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छंद मुक्त कविता

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मानव तुम कहाँ थे कहाँ पहुँच चुके हो। ज्ञान-ज्योति से जग आलोकित कर सके हो। वानरों की भाँति तुम वृक्षों पे बसते थे। जंगलों में रह कर निर्भय हो रमते थे।।1।। सभ्यता की ज्योति से दूर थे भटकते। ज्ञान

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