मानव तुम कहाँ थे कहाँ पहुँच चुके हो।
ज्ञान-ज्योति से जग आलोकित कर सके हो।
वानरों की भाँति तुम वृक्षों पे बसते थे।
जंगलों में रह कर निर्भय हो रमते थे।।1।।
सभ्यता की ज्योति से दूर थे भटकते।
ज्ञान की निधि से तुम दूर थे विचरते।
कौन है पराया और कौन तेरा अपना।
नहीं समझ पाते थे प्रकृति की रचना।।2।।
परुष पाषाण ही थे अस्त्र शस्त्र तेरे।
जीविका के हेतु लगते थे कितने फेरे।
तेरे थे परम पट पत्र और छालें।
वन-सम्पदा पर तुम देह को थे पाले।।3।।
बिता रहा था पशुवत बन में तु जीवन।
दूर भागता था देख अपने ही स्वजन।
मोह का न नाता वियोग का न दुख था।
धन की न तृष्णा समाज का न सुख था।।4।।
पर भिन्न पशु से हुआ तेरा तुच्छ जीवन।
मन-उपवन में जब खिला ज्ञान का सुमन।
आगे था प्रसस्त तेरे प्रगति का विशाल अम्बर।
चमक उठा उसमें तेरा ज्ञान का दिवाकर।।5।।
त्याग अंध जीवन आ गये तुम प्रकाश में।
लगी गूंजने सभ्यता तेरी हर श्वास में।
लगा बाँधने विश्व ज्ञान के तुम गुण में।
छाने लगी प्रेम शांति अब तुम्हारे गुण में।।6।।
होने लगा लघु जग फैलाने लगा पाँव अपने।
लगा साकार करने भविष्य के समस्त सपने।
रचकर के अनेक यन्त्र जीवन सुलभ बनाया।
मानवी-विकास नई ऊँचाइयों पे पहुँचाया।।7।।
आने लगा इन सब से विलास तेरे जीवन में।
ऊँच नीच के भाव आने लगे तेरे मन में।
भूल गये तुम मिलजुल के साथ चलना।
चाहने लगे तुम अन्यों के श्रम पे पलना।।8।।
कहलाते हो सभ्य यद्यपि इस युग में।
मुदित हो रहे हो इस नश्वर सुख में।
उच्च बन रहे हो अभिमान के तुम रंग में।
मस्त हो रहे घोर स्वार्थ की तरंग में।।9।।
उत्थान और पतन जग का अमिट नियम है।
जीवन और मरण का भी अटल नियम है।
आज उन्नति के शिखर पर पहुँच चुके हो।
अब पतनोन्मुख होने के लिये रुके हो।।10।।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
16-04-16