मालवा के गाँवों से लौटकर मनीष वैद्य
इंदौर, आपने शायद ही कभी सुना होगा कि बारिश के पानी को तिजोरी में रखा जाता हो, लेकिन मालवा के किसान अपने खेतों पर अब इसे चरितार्थ कर रहे हैं। उन्होंने इसके लिए बकायदा जमीन पर लाखों की पोलीथिन बिछाकर बारिश से पहले ही इस पानी को इजरायली पैटर्न पर अपनी तिजोरी में स्टोर करने की पूरी तैयारी कर ली है। इस तिजोरी में करीब डेढ़ करोड़ लीटर पानी को गर्मियों के वक्त के लिए सहेजा जाएगा।
जल विशेषज्ञों का दावा है कि पानी को बनाया नहीं जा सकता, सिर्फ़ बरसाती पानी को बचाया जा सकता है। इसलिए अब लगातार पानी के लिए परेशान होते किसानों को यही रास्ता दिखाई दे रहा है। मालवा निमाड़ में खेती के लिए अब ऐसी कई तकनीकें इस्तेमाल की जा रही हैं, जिनसे बारिश के पानी को सहेजा जा सके. इजरायल में पानी की कमी से ऐसी कई तकनीकें पहले से इस्तेमाल की जा रही है।
इंदौर के पास तिल्लौरखुर्द के किसान चिंतक पाटीदार ने अपने खेत पर पॉली पाऊंड तैयार किया है। इस तरह के तालाब इसी गांव में पांच बन चुके हैं। पूरे इंदौर इलाके में 40 तालाब इसी साल बनाए गए हैं। चिंतक के पास 20 बीघा जमीन है। सवा बीघा में तालाब तैयार किया है। इसकी लागत 6 लाख रुपए आई है। महज 15 दिन में पोकलेंड मशीन से खुदाई की गई है। इसकी लंबाई 165 फीट और चौडाई 185 फीट है जबकि गहराई 20 फीट है। इसमें डेढ़ करोड़ लीटर पानी की क्षमता है। बारिश के पानी के बाद तीन बोरिंग और एक कुंए से वे अब तक सोयाबीन के बाद आलू की फसल ले लेते हैं। लेकिन उसके बाद तीसरी फसल प्याज बोने तक पानी सूख जाता है। तीसरी फसल प्याज के लिए इस स्टोर पानी का इस्तेमाल करेंगे। अनुमान है कि एक ही सीजन में प्याज की फसल से तालाब की लागत वसूल हो जाएगी।
वे आश्वस्त हैं कि इससे इस साल पूरी जमीन में सिंचाई हो सकेगी। इसमें मछली पालन भी किया जा सकता है। इसके अलावा तालाब के लबालब भरे होने से इससे सायफन आधारित सिंचाई हो सकेगी तो बिजली या डीजल का खर्च भी बच सकेगा। वे बताते हैं कि पानी की कमी तथा अन्य कारणों से खेती लगातार घाटे का सौदा बनती जा रही है। ऐसी हालत में यह सबसे ज़रूरी है कि हर किसान पानी के मामले में आत्मनिर्भर हो।
गौरतलब है कि मध्यप्रदेश और खासकर मालवा-निमाड़ के जिलों में खेती के लिए पानी सबसे बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। हर साल गर्मी का मौसम आते ही भूजल स्तर तेजी से गिरने लगता है और पानी के लिए हाहाकार शुरू हो जाता है। सत्तर के दशक में खेती के लिए नलकूपों के बढ़ते चलन से बड़े पैमाने पर किसानों ने बैंक से कर्ज लेकर बोरिंग और विद्युत मोटरों के जरिये धरती के पानी को गहरे तक जाकर उलीचा है। इसे सिंचाई के एकमात्र विकल्प के रूप में माना जाने लगा। वर्ष 1975 से 1990 तक के 15 सालों में ही अकेले मालवा-निमाड़ इलाके में 18 फीसदी हर साल की दर से नलकूप खनन में बढ़ोतरी हुई. जबकि 1991 से 2018 में यह दर करीब 30 फीसदी तक पंहुच गई. नतीजतन अब गाँव-गाँव नलकूपों की संख्या 300 से 1000 तक है। परम्परागत संसाधनों को भुला कर करोड़ों साल से धरती में जमा बैंक बेलेंस की तरह के पानी का उपयोग इस हद तक हुआ कि हमारे यहाँ नलकूपों से ही करीब 60 फीसदी सिंचाई होने लगी यानी हम अब ज़्यादा से ज़्यादा जमीन के भंडारित पानी पर ही आश्रित होते जा रहे हैं।
इलाके में इस तरह के तालाब तेजी से बनाए जा रहे हैं। हालांकि यह बहुत मंहगी प्रक्रिया है और आम किसान इसका इस्तेमाल शायद ही कर सकें पर यह दिखाता है कि हमने पानी बचाने और सहेजने के जिन परम्परागत सहज और सस्ते तरीकों को भुला दिया उनकी एवज में आज हमें कितने मंहगे और श्रमसाध्य तरीकों पर निर्भर रहना पड़ता है।
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