हम जब भी किसी धर्म विशेष का विश्लेषण करते हैं तो सबसे पहले उसकी बुराइयों और अच्छाइयों पर अधिक ध्यान देते हैं। इसके पश्चात भूतकाल में घटित घटनाओं को धर्म से जोड़कर सभी के समक्ष कुछ नए और अनभिज्ञ तथ्यों को प्रकाशित करते हैं। किंतु हम सभी ने कभी किसी धर्म विशेष को एक विषय, इकाई के रुप में न देखकर सदैव इसे मनुष्य और मानवता को विभाजित करने वाले यंत्र माना है। धर्म संबंधित किसी भी राय पर जाने से पूर्व हमारा यह समझना आवश्यक है कि आखिर धर्म का तात्पर्य क्या है? सामान्यत धर्म का तात्पर्य किसी समाज में रहने वाले हर व्यक्ति की जीवन पद्धति से हैं। जिसके माध्यम से वे न केवल अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हैं अपितु अपने अस्तित्व का भी निर्माण करते हैं।इसके साथ ही यह जानना आवश्यक है कि समाज के महान विचारकों का धर्म के प्रति क्या नजरिया है। तभी हम धर्म और समाज के मध्य सामंजस्य को स्थापित कर अपनी राय को तर्क सहित किसी के समक्ष प्रस्तुत कर सकते हैं।
समाजशास्त्र विचारक कार्ल मार्क्स ने धर्म को जनता की अफीम बताया है।इनके अनुसार धर्म एक भ्रम है जो समाज में व्याप्त असली शोषणकारी स्थितियों पर पर्दा डालने का कार्य करता है।उनकी नजरों में धर्म का परित्याग करना आवश्यक है। वहीं दूसरी ओर एक महत्वपूर्ण विचारक दुर्खीम की नजरो में धर्म एक प्रकार्य वादी सिद्धांत की भांति है जिसका आधार स्वयं समाज है। धार्मिक धारणाएं समाज की विशेषताओं के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।धर्म का आवश्यक कार्य केवल समाज में एकता, स्थायित्व और निरंतरता बनाए रखने में है।
उपरोक्त दोनों विचारकों के धर्म संबंधित विचार एक दूसरे से पृथक है लेकिन वर्तमान समाज में यही दोनो विचार एक दूसरे के पूरक हैं।सरल शब्दों में कहें तो यदि धर्म को जीवन जीने का एक जरिया मानकर आगे बढ़ा गया तो इससे सरल कुछ नहीं है किंतु यदि किसी भी धर्म को अपनी सोच,अपने अस्तित्व पर हावी करके उसका गलत प्रयोग किया गया तो इससे कष्टकारी और कुछ नही है। सभी धर्मों के अपने प्रतीक अपनी व्यवस्थाएं है।किसी भी धर्म विशेष की अपनी अच्छाई अपनी बुराई है लेकिन यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि परिवर्तन ही संसार का नियम है। तो हर धर्म हर शैली में समय के साथ परिवर्तन आना सामान्य और उचित है बेशर्त वो परिवर्तन सकारत्मक हो।
वर्तमान में ऐसी अनेकों परिस्थितियां बनी हुई है जिसके आधार पर एक धर्म की सिर्फ अच्छाई और एक धर्म की सिर्फ बुराई देखी जाती है। इससे भी अलग सहिष्णुता के नाम पर अपने धर्म की बुराई करना और अन्य धर्म की तारीफे करना काफी प्रचलन में है। जबकि कोई यह नहीं समझता की जो व्यक्ति अपने धर्म का सम्मान नहीं कर सकता वो किसी और धर्म के प्रति सम्मान कैसे व्यक्त करेगा। हर बार अपने धर्म के बारे मे बोलना कट्टरवाद कहलाए यह जरूरी तो नहीं है। वैसे भी हमारे समाज में हम चाहे किसी भी धर्म का समर्थन करे या आलोचना किसी को कोई फर्क नही पड़ता है। इसका मुख्य कारण हमारे देश का संविधान है और इसी संविधान के रहते हमारे समाज में कट्टरता का कोई स्थान नहीं है। किंतु इसके साथ ही यह समझना भी जरूरी है कि जीवन जीने की जिस पद्धति को आधार बनाकर आप अपने उत्तरदायित्व को पूरा कर रहे हैं और अपने अस्तित्व का निर्माण कर रहे हैं उस पद्धति का सम्मान भी बहुत जरूरी है।
जीवन जीने का आधार है जो,
और जिससे हमारी शैली हुई रोशन,
कैसे अपमानित करे हम अपने उस धर्म को,
जिसने बोए मानवता के बीज हर दम।