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दूभर जीवन

13 सितम्बर 2017

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उस छोटी सी चिड़ियाँ का जीवन कितना दूभर?

चातुर नजरों से देखती इधर-उधर,

मन ही मन हो आतुर सोचती करती फिकर....


मीलों होगे आज फिर उड़ने,

अधूरे काम बहुत से होंगे करने,

आबो-दाना है कहाँ न जाने?

मिटेगी भूख न जाने किस दाने से?

चैन की नींद! रही अब आने से!


दूर डाल पे बैठी छोटी सी चिड़ियाँ सोंचती!


फिर घोंसले की करती फिकर!

न जाने किस डाल सुरक्षित रह पाऊँगी?

कोटरों में हैं बसते आस्तीन के साँप,

मैं तिनके कहाँ सजाऊँगी?

क्रूर बहेलियों की दुष्ट नजर से, दूर कैसे रह पाऊँगी?


उस छोटी सी चिड़ियाँ को भविष्य का डर?


आनेवाली बारिश की फिकर!

आँधियों मे अपनों से बिछड़ने का डर!

डाली टूट गई थी पिछली बार,

उजड़ चुका था उसका छोटा सा संसार,

सपने हो चुके थे तितर बितर,

"अन्डे कैसे बचाऊँगी?" अब यही फिकर!


उस छोटी सी चिड़ियाँ का जीवन कितना दूभर?

चातुर नजरों से देखती इधर-उधर,

मन ही मन हो आतुर सोचती करती फिकर....

पुरूषोत्तम कुमार सिन्हा की अन्य किताबें

आलोक सिन्हा

आलोक सिन्हा

बहुत सुदर रचना है |शुभ कामनाएं |

14 सितम्बर 2017

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त्यजित

26 जून 2017
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त्यजित हूँ मै इक,भ्रमित हर क्षण रहूँगा इस प्रेमवन में।क्षितिज की रक्तिम लावण्य में,निश्छल स्नेह लिए मन में,दिग्भ्रमित हो प्रेमवन में,हर क्षण जला हूँ मैं अगन में...ज्युँ छाँ

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चाहो तो

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चाहो तो पढ़ लेना तुम वो पाती,हवाओं के कागज पर लिखकर हमनें जो भेजी,ना कोई अक्षर इनमें, ना हैं स्याही के रंग,बस है इक यादों की खुश्बू चंचल पुरवाई के संग। चाहो तो रख लेना तुम वो यादें,घटाओं की चुनरी में कलिय

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वो ही सपने, पलकों तले फिर से लगे हैं जगने........स्वप्न सदृश्य, पर हकीकत भरे जागृत मेरे सपने,जैसे खोई हुई हो धूप में आकाश के वो सितारे,चंद बादल विलीन होते हुए आकाश पर लहराते,वो ही सपने, पलकों तले फिर से ल

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सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....आया था जीवन में वो जुगनू सी मुस्कान लिए,निहारती थी मैं उनको, नैनों में श्रृंगार लिए,खोई हैं पलको से नींदें, अब असह्य सा इन्तजार लिए,कलाई की चूरी भी मेरी, अब

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कुछ बूँदे! ... जाने क्या जादू कर गई थी?लहलहा उठी थी खुशी से फिर वो सूखी सी डाली....झेल रहा था वो तन श्रापित सा जीवन,अंग-अंग टूट कर बिखरे थे सूखी टहनी में ढलकर,तन से अपनों का भी छूटा था ऐतबार,हर तरफ थी टूटी सी डाली और सूखे पत्तों का अंबा

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काश! यादों के उस तट से गुजरे न होते हम....रंग घोलती उन फिजाओं में,शिकवे हजार लिए अपनी अदाओं में, हाँ, पहली बार यूँ मिले थे तुम.....कशिश बला की उन बातों में, भरी थी शरारत उन शरमाई सी आँखों में,हाँ, वादे हजार कर गए थे तुम..... नदी का वो स

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सुंदर हैं वो अधर, मेरे शब्दों में जो भरते हैं स्वर...ओ संगनिष्ठा, मेरे कोरे स्वर तू होठों पे बिठा,जब ये तेरे रंगरंजित अधरों का आलिंगन ले पाएंगे,अंबर के अतिरंजित रंग इन शब्दों मे भर जाएँगे।शब्दों के मेरे रंगरंजित स्वर, रंग देंगे ये तेरे अधर...ओ बासंती, कोकिल कंठ तू शब्दों को दे जा,प्रखर से ये तेरे स्

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भूल सा चुका था मैं

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भूल सा चुका था मैं, न गया था मैं मुड़कर उन्हे देखने..किताबों में दबी उन सूखी सी पत्तियों को...वर्जनाओं की झूठी सी परत में दबी उन बंदिशों को,समय की धूल खा चुकी मृत ख्वाहिशों को,क्षण भर को मन में हूक उठाती अभिलाषाओं को.....वो ख़्वाब, उम्मीद, तमन्नाएँ, ताल्लुक, रिश्ते, सपने,भूल सा चुका था मैं, न गया था

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ख्याल तुम्हारा

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तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!तब रूह को छू जाती हैं बरबस यादें तेरी,जल उठते है माहताब दिल के अंधियारे में कहीं,महक उठती है ख्यालों से सूनी सी ये तन्हाई,मद्धम सुरों में उभरता आलाप एक सुरमई।तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!मन पूछने लगता है पता खुद से खुद का ही,भूल सा

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हैं सब, बस उफनती सी उन लहरों के दीवाने,पर, कलपते सागर के हृदय की व्यथा शायद कोई ना जाने! पल-पल विलखती है वो ... सर पटक-पटक कर तट पर, शायद कहती है वो.... अपने मन की पीड़ा बार-बार रो रो कर, लहर नहीं है ये...

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27 अगस्त 2017
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हो न हो! भ्रम के इस शहर में कोई भ्रम मुझे भी हो? भ्रमित कर रही हो जब हवाएँ शहर की!दिग्गभ्रमित कर गई हों जब हवाएँ वहम की! निस्तेज हो चुकी जब ईश्वरीय आभाएँ! निश्छल सा ये मन फिर कैसे न भरमाए? हो न हो! भ्रम के इस शहर में कोई भ्रम मुझे भी हो ?प्रहर प्रशस्त हो रही हो जब निस्तेज की! कुंठित हुई हो जब किरण

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28 अगस्त 2017
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झील का अपना ही मन, जो आकर मिलती है मेरे मन से... कहते हैं कि झील का कोई समुंदर नही होता! मैं कहता हूँ कि झील सा सुन्दर कोई समुन्दर नही होता! अपनी ही स्थिरता, विराम, ठहराव ह

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रिवाजों में घिरी, नव व्याहिता की बेसब्र सी वो घड़ी! उत्सुकता भड़ी, चहलकदमी करती बेसब्र सी वो परी! नव ड्योड़ी पर, उत्सुक सा वो हृदय!मानो ढूंढ़ती हो आँखें, जीवन का कोई आशय! प्रश्न कई अनुत्तरित, मन में कितने ही संशय! थोड़ी सी घबड़ाहट, थोड़ा सा भय! दुविधा भड़ी, नजरों से कुछ टटोलती बेसब्र सी वो घड़ी!कैसी है ये

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क्यूँ निशा प्रहर तुम आए हो मन के इस प्रांगण में? रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।बुझती साँसों सी संकुचित निशा प्रहर में, मिले थे भाग्य से, तुम उस भटकी सी दिशा प्रहर में,संजोये थे अरमान कई, हम

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दूभर जीवन

13 सितम्बर 2017
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उस छोटी सी चिड़ियाँ का जीवन कितना दूभर? चातुर नजरों से देखती इधर-उधर, मन ही मन हो आतुर सोचती करती फिकर.... मीलों होगे आज फिर उड़ने, अधूरे काम बहुत से होंगे करने, आबो-दाना है कहाँ न जाने? मिटेगी भूख न जाने किस दाने से? चैन की नींद! रही अब आने से! दूर डाल पे बैठी छोटी सी चिड़ियाँ सोंचती! फिर घोंसले

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छाए हैं दृग पर

15 सितम्बर 2017
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 छाए हैं अब दृग पर, वो अतुल मिलन के रम्य क्षण! वो मिल रहा पयोधर, आकुल हो पयोनिधि से क्षितिज पर, रमणीक क्षणप्रभा आ उभरी है इक लकीर बन। छाए हैं अब दृग पर, वो अतुल मिलन के रम्य क्षण! वो झुक रहा वारिधर,युँ आकुल हो प्रेमवश नीरनिधि पर, ज्युँ चूम रहा जलधर को प्रेमरत व्याकुल महीधर। छाए हैं अब दृग पर, वो अ

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इक नया शिखर

17 सितम्बर 2017
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यात्रा के इस चरण की कौन सी शिखर है ये, है यह एक शिखर या पड़ाव किसी नए यात्रा की ये, या उपलब्धियों के मुस्कान की एक मुकाम है ये, शिखर मेरी है यह कौन सी यह खबर है किसे। शिखरों की है यहाँ अनगिनत सी श्रृंखलाएँ, कुछ छोटी कुछ उँची जैसे हो माला की ये मणिकाएँ, कितनी ऊबड़-खाबड़ दुर्गम राहों वाली ये मालाएँ,

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निशिगंधा

19 सितम्बर 2017
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घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा? निस्तब्ध हो चली निशा, खामोश हुई दिशाएँ, अब सुनसान हो चली सब भरमाती राहें, बागों के भँवरे भी भरते नहीं अब आहें, महक उठी है,फिर क्युँ ये निशिगंधा? प्रतीक्षा किसकी सजधज कर करती वो वहाँ? मन कहता है जाकर देखूँ, महकी क्युँ ये निशिगंधा?घनघोर निशा, फिर महक रही क्

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प्रीत

20 सितम्बर 2017
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मूक प्रीत की स्पष्ट हो रही है वाणी अब.... अमिट प्रतिबिंम्ब इक जेहन में, अंकित सदियों से मन के आईने में, गुम हो चुकी थी वाणी जिसकी, आज अचानक फिर से लगी बोलनें। मुखर हुई वाणी उस बिंब की,स्पष्ट हो रही अब आकृति उसकी, घटा मोह की फिर से घिर आई, मन की वृक्ष पर लिपटी अमरलता सी। प्रतिबिम्ब मोहिनी मनमोहक वो

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सैकत

23 सितम्बर 2017
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असंख्य यादों के रंगीन सैकत ले आई ये तन्हाई, नैनों से छलके है नीर, उफ! हृदय ये आह से भर आई!कोमल थे कितने, जीवन्त से वो पल, ज्यूँ अभ्र पर बिखरते हुए ये रेशमी बादल, झील में खिलते हुए ये सुंदर कमल, डाली पे झूलते हुए ये नव दल,मगर, अब ये सारे न जाने क्यूँ इतने गए हैं बदल? उड़ते है हर तरफ ये बन के यादों के

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किंकर्तव्यविमूढ

24 सितम्बर 2017
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गूढ होता हर क्षण, समय का यह विस्तार! मिल पाता क्यूँ नहीं मन को, इक अपना अभिसार, झुंझलाहट होती दिशाहीन अपनी मति पर, किंकर्तव्यविमूढ सा फिर देखता, समय का विस्तार! हाथ गहे हाथों में, कभी करता फिर विचार! जटिल बड़ी है यह पहेली,नहीं किसी की ये सहेली! झुंझलाहट होती दिशाहीन

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दुर्गे निशुम्भशुम्भहननी

28 सितम्बर 2017
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अग्निज्वाला अनन्त अनन्ता अनेकवर्णा, पाटला, अनेकशस्त्रहस्ता अनेकास्त्रधारिणी अपर्णा,अप्रौढा, अभव्या अमेय अहंकारा एककन्या आद्य आर्या, इंद्री

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तुम्हारी बातें

29 सितम्बर 2017
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तुम्हारी बातें, तुम्हारी प्यारी-प्यारी सी बातें, साँसों में संग घुली हुई वो मुलाकातें, साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा अंत तक,बना लूँ मैं इन्हें सारथी अपने जीवन पथ का,तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका? तुम्हारी बातें, तुम्हारी बहकी-बहकी सी बातें,अन्तस्थ दिलों में समाती वो इठलाती बा

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मौन अभ्यावेदन

2 अक्टूबर 2017
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मुखर मनःस्थिति, मनःश्रुधार, मौन अभ्यावेदन! ढूंढता है तू क्या ऐ मेरे व्याकुल मन? चपल हुए हैं क्यूँ, तेरे ये कंपकपाते से चरण है मौन सा कैसा तेरा ये अभ्यावेदन? तू है निश्छल, तू है कितना निष्काम! जीवन है इक छल, पीता जा तू छल के जाम! प्रखर जरा मौन कर, तू पाएगा आराम! मौन अभ्यर्थी ही पाता विष का प्याला!

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कोलाहल

4 अक्टूबर 2017
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क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार? काँप उठी ये वसुन्धरा, उठी है सागर में लहरें हजार, चूर-चूर से हुए हैं, गगनचुम्बी पर्वत के अहंकार, दुर्बल सा ये मानव, कर जोरे, रचयिता का कर रहा मौन पुकार! क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार?कोलाहल के है ये स्वर, कण से कण अब रहे बिछर,

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शरद हंसिनी

5 अक्टूबर 2017
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नील नभ पर वियावान में, है भटक रही..... क्यूँ एकाकिनी सी वो शरद हंसिनी? व्योम के वियावान में, स्वप्नसुंदरी सी शरद हंसिनी, संसृति के कण-कण में, दे रही इक मृदु स्पंदन, हैं चुप से ये हृदय, साँसों में संसृति के स्तब्ध समीरण, फिर क्युँ है वो निःस्तब्ध सी, ये कैसा है एकाकीपन! यह जानता हूँ मैं... क्षणिक तुम

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बेखबर

19 अक्टूबर 2017
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काश! मिल पाता मुझे मेरी ही तमन्नाओं का शहर! चल पड़े थे कदम उन हसरतों के डगर, बस फासले थे जहाँ, न थी मंजिल की खबर, गुम अंधेरों में कहीं, था वो चाहतों का सफर, बस ढूंढता ही रहा, मैं मेरी तमन्नाओं का शहर! बरबस खींचती रहीं जिन्दगी मुझे कहीं, हाथ बस दो पल मिले, दिल कभी मि

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कुछ कहो ना

28 अक्टूबर 2017
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प्रिय, कुछ कहो ना!यूँ चुप सी खामोश तुम रहो ना! संतप्त हूँ, तुम बिन संसृति से विरक्त हूँ, पतझड़ में पात बिन, मैं डाल सा रिक्त हूँ... हूँ चकोर, छटा चाँदनी सी तुम बिखेरो ना, प्रिय, कुछ कहो! यूँ चुप तो तुम

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मेरे पल

5 नवम्बर 2017
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वो कुछ पल जो थे बस मेरे...... युँ ही उलझ पड़े मुझसे कल सवेरे-सवेरे, वर्षों ये चुप थे या अंतर्मुखी थे? संग मेरे खुश थे या मुझ से ही दुखी थे? सदा मेरे ही होकर क्युँ मुझ से लड़े थे? सवालों में थे ये अब मुझको ही घेरे! वो कुछ पल जो थे बस मेरे...... सालों तलक शायद था अनभिज्ञ मैं इनसे, वो पल मुझ संग यूँ जिय

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वापी

7 नवम्बर 2017
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ले चल तू मुझको उस वापी ऐ नाविक, हो आब जहाँ मेरे मनमाफिक। अंतःसलिल हो जहाँ के तट, सूखी न हो रेत जहाँ की, गहरी सी हो वो वापी, हो मीठी सी आब जहाँ की। दीड घुमाऊँ मैं जिस भी ओर, हो चहुँदिश नीवड़ जीवन का शोर, मन के क्लेश धुल जाए, हो ऐसी ही आब जहाँ की। वापी जहाँ थिरता हो धीरज, अंतःकीचड़ खिलते हों जहाँ जलज

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क्यूँ झाँकूं मैं बाहर

8 नवम्बर 2017
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क्यूँ झाँकूं मैं मन के बाहर..... जब इतना कुछ घटित होता है मन के ही भीतर,सब कुछ अलिखित होता है अन्दर ही अन्दर,कितने ही विषयवस्तु, कौन चुने आकर? बिन लघुविराम, बिन पूर्णविराम... बिन मात्रा, शब्दों बिन प्रस्फुटित होते ये अक्सर, ये निराकार से प्रतिबिंब यूँ ही काटते चक्क

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ऋतुराज

10 नवम्बर 2017
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फिजाओं ने फिर, ओस की चादर है फैलाई, संसृति के कण-कण पर, नव-वधु सी है तरुणाई, जित देखो तित डाली, नव-कोपल चटक आई, ऋतुराज के स्वागत की, वृहद हुई तैयारी..... नव-वधु सी नव-श्रृंगार, कर रही ये वसुंधरा, जीर्

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बदल रहा ये साल

16 नवम्बर 2017
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युग का जुआ कांधे देकर, बदल रहा ये साल... यादों के कितने ही लम्हे देकर, अनुभव के कितने ही किस्से कहकर, पल कितने ही अवसर के देकर, थोड़ी सी मेरी तरुणाई लेकर, कांधे जिम्मेदारी रखकर, बदल रहा ये साल... प्रगति के पथ प्रशस्त देकर, रोड़े-बाधाओं को कुछ समतल कर, काम अधूरे से बहुतेरे रखकर, निरंतर बढ़ने को कहकर

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अनन्त प्रणयिनी

25 नवम्बर 2017
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कलकल सी वो निर्झरणी, चिर प्रेयसी, चिर अनुगामिणी, दुखहरनी, सुखदायिनी, भूगामिणी, मेरी अनन्त प्रणयिनी...... छमछम सी वो नृत्यकला, चिर यौवन, चिर नवीन कला, मोह आवरण सा अन्तर्मन में रमी, मेरी अनन्त प्रणयिनी...... धवल सी वो चित्रकला, नित नवीन, नित नवरंग ढ़ला, अनन्त काल स

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उपांतसाक्षी

9 दिसम्बर 2017
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न जाने क्यूँ..... जाने.... कितने ही पलों का... उपांतसाक्षी हूँ मैं, बस सिर्फ.... तुम ही तुम रहे हो हर पल में, परिदिग्ध हूँ मैं हर उस पल से, चाहूँ भी तो मैं .... खुद को... परित्यक्त नहीं कर सकता, बीते उस पल से। उपांतसाक्षी हूँ मैं.... जाने.... कितने ही दस्तावेज

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