घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?
निस्तब्ध हो चली निशा, खामोश हुई दिशाएँ,
अब सुनसान हो चली सब भरमाती राहें,
बागों के भँवरे भी भरते नहीं अब आहें,
महक उठी है,फिर क्युँ ये निशिगंधा?
प्रतीक्षा किसकी सजधज कर करती वो वहाँ?
मन कहता है जाकर देखूँ, महकी क्युँ ये निशिगंधा?
घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?
है कोई चाँद खिला, या है वो कोई रजनीचर?
या चातक है वो, या और कोई है सहचर!
क्युँ निस्तब्ध निशा में खुश्बू बन रही वो बिखर!
शायद ये हैं उसकी निमंत्रण के आस्वर!
क्या प्रतीक्षा के ये पल अब हो चले हैं दुष्कर?
मन कहता है जाकर देखूँ, बिखरी क्युँ ये निशिगंधा?
घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?
यूँ हर रोज बिखरती है टूटकर वो निशिगंधा?
जैसे कोई विरहन, महकती गीत विरह की हो गाती!
आशा के दीप प्राणों में खुश्बू संग जलाती,
सुबासित नित करती हो राहें उस निष्ठुर साजन की,
प्रतीक्षा में खुद को रोज ही वो सजाती....
मन कहता है जाकर देखूँ, सँवरी क्युँ ये निशिगंधा?
घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा?