तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!
तब रूह को छू जाती हैं बरबस यादें तेरी,
जल उठते है माहताब दिल के अंधियारे में कहीं,
महक उठती है ख्यालों से सूनी सी ये तन्हाई,
मद्धम सुरों में उभरता आलाप एक सुरमई।
तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!
मन पूछने लगता है पता खुद से खुद का ही,
भूल सा जाता है ये मन के तुम कहीं हो ही नहीं,
बस इक परछाईं सी हो तुम कोई अक्स नहीं
गुमसुम सा विकल ये मन मानता ही नहीं।
तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!
राख बन कर ही सही उर रहीं हैं यादें तेरी,
गहरा धुआँ सा छा रहा हैं मन के गगन पर मेरी,
क्या मिलोगे मुझे उस क्षितिज के किनारे कहीं,
इस रूह की गहराईयों में तुम छुपे हो कहीं।
तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!