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परखा हुआ सत्य

22 अगस्त 2017

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फिर क्युँ परखते हो बार-बार तुम इस सत्य की सत्यता?


सूर्य की मानिंद सतत जला है वो सत्य,

किसी हिमशिला की मानिंद सतत गला है वो सत्य,

आकाश की मानिंद सतत चुप रहा है वो सत्य!

अबोले बोलों में सतत कुछ कह रहा है वो सत्य!


फिर क्युँ परखते हो बार-बार तुम इस सत्य की सत्यता?


गंगोत्री की धार सा सतत बहा है वो सत्य,

गुलमोहर की फूल सा सतत खिला है वो सत्य,

झूठ को इक शूल सा सतत चुभा है वो सत्य!

बन के बिजली बादलों में चमक रहा है वो सत्य


फिर क्युँ परखते हो बार-बार तुम इस सत्य की सत्यता?


असंख्य मुस्कान ले सतत हँसा है वो सत्य,

कंटकों की शीष पर गुलाब सा खिला है वो सत्य,

नीर की धार सा घाटियों में बहा है वो सत्य!

सागरों पर अनन्त ढेह सा उठता रहा है वो सत्य!


फिर क्युँ परखते हो बार-बार तुम इस सत्य की सत्यता?

पुरूषोत्तम कुमार सिन्हा की अन्य किताबें

रेणु

रेणु

आदरणीय पुरुषोत्तम जी ------ सही कहा पूनम जी ने ------- ये रचना भी बहुत ही उम्दा भावों का संकलन है | निरंतर बहुत ही उत्कृष्ट काव्य रच रहे हैं खासकर भावों की अभिव्यक्ति बेजोड़ है | आपको बहुत शुभकामना ------ आपकी रचनात्मकता का प्रवाह बना रहे -----

25 अगस्त 2017

पूनम शर्मा

पूनम शर्मा

अति सुन्दर , कविता के मामले में आपका कोई जोड़ नहीं

22 अगस्त 2017

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त्यजित

26 जून 2017
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त्यजित हूँ मै इक,भ्रमित हर क्षण रहूँगा इस प्रेमवन में।क्षितिज की रक्तिम लावण्य में,निश्छल स्नेह लिए मन में,दिग्भ्रमित हो प्रेमवन में,हर क्षण जला हूँ मैं अगन में...ज्युँ छाँ

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चाहो तो

27 जून 2017
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चाहो तो पढ़ लेना तुम वो पाती,हवाओं के कागज पर लिखकर हमनें जो भेजी,ना कोई अक्षर इनमें, ना हैं स्याही के रंग,बस है इक यादों की खुश्बू चंचल पुरवाई के संग। चाहो तो रख लेना तुम वो यादें,घटाओं की चुनरी में कलिय

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उजड़ा हुआ पुल

30 जून 2017
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यूँ तो बिसार ही चुके हो अब तुम मुझे!देख आया हूँ मैं भी वादों के वो उजरे से पुल,जर्जर सी हो चुकी इरादों के तिनके,टूट सी चुकी वो झूलती टहनियों सी शाखें,यूँ ही भूल जाना चाहता है अब मेरा ये मन भी तुझे!पर इक ध

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जगने लगे हैं सपने

30 जून 2017
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वो ही सपने, पलकों तले फिर से लगे हैं जगने........स्वप्न सदृश्य, पर हकीकत भरे जागृत मेरे सपने,जैसे खोई हुई हो धूप में आकाश के वो सितारे,चंद बादल विलीन होते हुए आकाश पर लहराते,वो ही सपने, पलकों तले फिर से ल

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विरह के पल

2 जुलाई 2017
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सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....आया था जीवन में वो जुगनू सी मुस्कान लिए,निहारती थी मैं उनको, नैनों में श्रृंगार लिए,खोई हैं पलको से नींदें, अब असह्य सा इन्तजार लिए,कलाई की चूरी भी मेरी, अब

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आभास

2 जुलाई 2017
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परछाई हूँ मैं, बस आभास मुझे कर पाओगे तुम .....कर सर्वस्व निछावर,दिया था मैने स्पर्शालिंगन तुझको,इक बुझी चिंगारी हूँ अब मै,चाहत की गर्मी कभी न ले पाओगे तुम।अब चाहो भी तो,आलिंगनबद्ध नही कर पाओगे तुम,इक खुश्

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रिमझिम सावन

5 जुलाई 2017
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आँगन है रिमझिम सावन, सपने आँखों में बहते से...बूदों की इन बौछारों में, मेरे सपने है भीगे से,भीगा ये मन का आँगन, हृदय के पथ हैं कुछ गीले से,कोई भीग रहा है मुझ बिन, कहीं पे हौले-हौले से...भीगी सी ये हरीतिमा, टपके हैं बूदें पत्तों से,घुला सा ये कजरे का रंग, धुले हैं का

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कोरी सी कल्पना

7 जुलाई 2017
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शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्नकविताओं में मैने उसको हरपल विस्तार दिया,मन की भावों से इक रूप साकार किया,हृदय की तारों से मैने उसको स्वीकार किया,अभिलाषा इक अपूर्ण सा मैने अंगीकार किया... शायद महज कोरी सी कल्पना या है ये इक दिवास्वप्न!कभी यूँ ही मुलुर मुल

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छलकते बूँद

7 जुलाई 2017
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छलकी हैं बूँदें, छलकी सावन की ठंढी सी हवाएँ...ऋतु सावन की लेकर आई ये घटाएँ,बारिश की छलकी सी बूँदों से मन भरमाए,मंद-मंद चंचल सा वो बदरा मुस्काए!तन बूंदो से सराबोर, मन हो रहा विभोर,छलके है मद बादल से, मन जाए किस ओर,छुन-छुन छंदों संग, हिय ले रहा हिलोर!थिरक रहे ठहरे से

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श्रापमुक्त

12 जुलाई 2017
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कुछ बूँदे! ... जाने क्या जादू कर गई थी?लहलहा उठी थी खुशी से फिर वो सूखी सी डाली....झेल रहा था वो तन श्रापित सा जीवन,अंग-अंग टूट कर बिखरे थे सूखी टहनी में ढलकर,तन से अपनों का भी छूटा था ऐतबार,हर तरफ थी टूटी सी डाली और सूखे पत्तों का अंबा

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कभी

19 जुलाई 2017
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कभी गुजरना तुम भी मन के उस कोने से,विलखता है ये पल-पल, तेरे हो के भी ना होने से..कुछ बीत चुके दिन सा है...तेरा मौजूदगी का अनथक एहसास!हकीकत ही हो तुम इक,मन को लेकिन ये कैसे हो विश्वास? कभी चुपके से आकर मन के उस कोने से कह दो,इनकी पलकों स

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अधलिखी

21 जुलाई 2017
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अधलिखी ही रह गई, वो कहानी इस जनम भी ....सायों की तरह गुम हुए हैं शब्द सारे,रिक्त हुए है शब्द कोष के फरफराते पन्ने भी,भावप्रवणता खो गए हैं उन आत्मीय शब्दों के कही,कहानी रह गई एक अधलिखी अनकही सी....संग जीने

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काश

21 जुलाई 2017
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काश! यादों के उस तट से गुजरे न होते हम....रंग घोलती उन फिजाओं में,शिकवे हजार लिए अपनी अदाओं में, हाँ, पहली बार यूँ मिले थे तुम.....कशिश बला की उन बातों में, भरी थी शरारत उन शरमाई सी आँखों में,हाँ, वादे हजार कर गए थे तुम..... नदी का वो स

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चुप सी धड़कन

22 जुलाई 2017
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इस दिल में ही कहीं, इक धड़कन अब चुप सा रहता है!चुप सी अब रहने लगी है, इक शोख सी धड़कन!बेवजह ही ये कभी बेजार सा धड़कता था, भरी भीड़ में अब, तन्हा-तन्हा ये क्यूँ रहता है!अब तन्हाई में न जाने, ये किस से बातें करता है? इस दिल में ही कहीं, इक ध

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उम्र की दोपहरी

28 जुलाई 2017
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उम्र की दोपहरी, अब छूने लगी हलके से तन को...सुरमई सांझ सा धुँधलाता हुआ मंजर,तन को सहलाता हुआ ये समय का खंजर,पल पल उतरता हुआ ये यौवन का ज्वर,दबे कदमों यहीं कहीं, ऊम्र हौले से रही है गुजर।पड़ने लगी चेहरों पर वक्त की सिलवटें,धूप सी सुनहरी, होने लगी ये काली सी लटें,वक्त यू

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आ जाऊँगा मैं

30 जुलाई 2017
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इक अक्श हूँ, ख्यालों में ढल जाऊँगा मैं,सोचोगे जब भी तुम, सामने नजरों के आ जाऊँगा मैं..जब दरारें तन्हा लम्हों में आ जाए,वक्त के कंटक समय की सेज पर बिछ जाएँ,दुर्गम सी हो जाएँ जब मंजिल की राहें,तुम आहें मत भ

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उत्कंठा और एकाकीपन

30 जुलाई 2017
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दिशाहीन सी बेतरतीब जीवन की आपाधापी में,तड़प उ

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कुछ और दूरियाँ

2 अगस्त 2017
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यूँ चलते हुए कुछ और दूरियाँ करनी है तय बस....अंततः चले जाना है हमें, इस जहाँ से कहीं दूर,शाश्वत सत्य व नि:शब्द चिरशांति के पार,उजालों से परिपूर्ण होगी वो अन्जानी सी जगह,चाह की चादर लपेटे धूलनिर्मित इस देह को बस,चलते हुए कुछ और दूरियाँ क

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विदाई

3 अगस्त 2017
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विदाई की वेदना में असह्य से गुजरते हुए ये क्षण!भर आई हैं आखें, चरमराया सा है

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शोर मचाती आँखें

8 अगस्त 2017
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शोर बहुत करती है तेरी चुप सी ये दो आँखें!जाने ये क्या बक-बक करती है तेरी ये दो आँखें!भींचकर शब्दों को भिगोती है ये पहले,दर्द की सुई,फिर डूबकर पिरोती है इनमें,फिर छिड़ककर नमक हँसती है तेरी ये दो आँखें....खा

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अंजानी सी रात

15 अगस्त 2017
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जरा सा चूमकर, उनींदी सी पलकों को,कुछ देर तक, ठहर गई थी वो रात,कह न सका था कुछ अपनी, गैरों से हुए हालात,ठिठक कर हौले से कदम लिए फिर,लाचार सी, गुजरती रही वो रात रुक-रुककर।अंजान थी वो, उनींदी स्वप्निल सी आँखें,,मूँदी रही वो पलकें, ख्वाबों में डूबकर,न तनिक भी थी उसको, बिलखते रात की खबर,गुजरती रही वो रात

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अव्यक्त कहानी

15 अगस्त 2017
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रह गई अब अव्यक्त जो, हूँ वही इक कहानी मैं!आरम्भ नही था जिसका कोई,अन्त जिसकी कोई लिखी गई नहीं,कल्पना के कंठ में ही रुँधी रही,जिसे मैं परित्यक्त भी कह सकता नहीं। चुभ रही है मन में जो, हूँ वही इक पीर पुर

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भावस्निग्ध

16 अगस्त 2017
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कंपकपाया सा क्युँ है ये, भावस्निध सा मेरा मन?मन की ये उर्वर जमीं, थोड़ी रिक्त है कहीं न कहीं!सीचता हूँ मैं इसे, आँखों में भरकर नमीं,फिर चुभोता हूँ इनमें मैं, बीज भावों के कई,कि कभी तो लहलहाएगी, रिक्त सी मन की ये जमीं!पलकों में यूँ नीर भरकर, सोचते है मेरे ये नयन?रिक्त क्युँ है ये जमीं, जब सिक्त है ये

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अधर

17 अगस्त 2017
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सुंदर हैं वो अधर, मेरे शब्दों में जो भरते हैं स्वर...ओ संगनिष्ठा, मेरे कोरे स्वर तू होठों पे बिठा,जब ये तेरे रंगरंजित अधरों का आलिंगन ले पाएंगे,अंबर के अतिरंजित रंग इन शब्दों मे भर जाएँगे।शब्दों के मेरे रंगरंजित स्वर, रंग देंगे ये तेरे अधर...ओ बासंती, कोकिल कंठ तू शब्दों को दे जा,प्रखर से ये तेरे स्

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भूल सा चुका था मैं

18 अगस्त 2017
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भूल सा चुका था मैं, न गया था मैं मुड़कर उन्हे देखने..किताबों में दबी उन सूखी सी पत्तियों को...वर्जनाओं की झूठी सी परत में दबी उन बंदिशों को,समय की धूल खा चुकी मृत ख्वाहिशों को,क्षण भर को मन में हूक उठाती अभिलाषाओं को.....वो ख़्वाब, उम्मीद, तमन्नाएँ, ताल्लुक, रिश्ते, सपने,भूल सा चुका था मैं, न गया था

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ख्याल तुम्हारा

18 अगस्त 2017
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तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!तब रूह को छू जाती हैं बरबस यादें तेरी,जल उठते है माहताब दिल के अंधियारे में कहीं,महक उठती है ख्यालों से सूनी सी ये तन्हाई,मद्धम सुरों में उभरता आलाप एक सुरमई।तुम ख्वाबों से निकलकर ख्यालों में गुजरती हो कहीं!मन पूछने लगता है पता खुद से खुद का ही,भूल सा

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परखा हुआ सत्य

22 अगस्त 2017
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फिर क्युँ परखते हो बार-बार तुम इस सत्य की सत्यता?सूर्य की मानिंद सतत जला है वो सत्य,किसी हिमशिला की मानिंद सतत गला है वो सत्य,आकाश की मानिंद सतत चुप रहा है वो सत्य!अबोले बोलों में सतत कुछ कह रहा है वो सत्य!फिर क्युँ परखते हो बार-बार तुम इस सत्य की सत्यता?गंगोत्री की धार सा सतत बहा है वो सत्य, गुलमोह

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कलपता सागर

23 अगस्त 2017
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हैं सब, बस उफनती सी उन लहरों के दीवाने,पर, कलपते सागर के हृदय की व्यथा शायद कोई ना जाने! पल-पल विलखती है वो ... सर पटक-पटक कर तट पर, शायद कहती है वो.... अपने मन की पीड़ा बार-बार रो रो कर, लहर नहीं है ये...

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भादो की उमस

24 अगस्त 2017
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दुरूह सा क्युँ हुआ है ये मौसम की कसक?सिर्फ नेह ही तो ..... बरसाए थे उमरते गगन ने! स्नेह के.... अनुकूल थे कितने ही ये मौसम! क्युँ तंज कसने लगी है अब ये उमस? दुरूह सा क्युँ हुआ.... ये बदली का असह्य मौसम? प्रतिकूल क्युँ है... ये भादो की चिलमिलाती सी कसक? कहीं तंज कस रहे... ये प्रतिकूल से होते ये मौ

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संवेदनहीन

26 अगस्त 2017
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पतंग प्रीत की उड़ती है कोमल हृदयाकाश में, संवेदनहीन हृदय क्या भर पाएगा इसे बाहुपाश में, पाषाण हृदय रह जाएगा बस प्रीत की आस में, मुश्किल होगा प्रीत की डोर का आकाश मे उड़ पाना,व्यर्थ सा होगा संवेदनाओं के पतंग उड़ाना!हो चुके हो जब तुम इक पाष

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भ्रम के शहर

27 अगस्त 2017
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हो न हो! भ्रम के इस शहर में कोई भ्रम मुझे भी हो? भ्रमित कर रही हो जब हवाएँ शहर की!दिग्गभ्रमित कर गई हों जब हवाएँ वहम की! निस्तेज हो चुकी जब ईश्वरीय आभाएँ! निश्छल सा ये मन फिर कैसे न भरमाए? हो न हो! भ्रम के इस शहर में कोई भ्रम मुझे भी हो ?प्रहर प्रशस्त हो रही हो जब निस्तेज की! कुंठित हुई हो जब किरण

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मैं और मेरे दरमियाँ

28 अगस्त 2017
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ऐ जिन्दगी, इक तू ही तो है बस, मैं और मेरे दरमियाँ । खो सा गया हूँ मुझसे मैं, न जाने कहां! ढूंढता हूँ खुद को मैं, इस भीड़ में न जाने कहां? इक तू ही है बस और कुछ नहीं मेरा यहाँ! अब तू ही है बस मैं और मेरे दरमियाँ! ये रात है और कुछ कह रही

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झील का कोई समुंदर नहीं

2 सितम्बर 2017
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झील का अपना ही मन, जो आकर मिलती है मेरे मन से... कहते हैं कि झील का कोई समुंदर नही होता! मैं कहता हूँ कि झील सा सुन्दर कोई समुन्दर नही होता! अपनी ही स्थिरता, विराम, ठहराव ह

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नैनों की पनघट

3 सितम्बर 2017
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नैनों की तेरे पनघट पर, मधु हाला प्यासा पथिक पा लेता, प्यास बुझाने जीवन भर की, सुधि नैन पनघट की फिर फिर लेता। नैनों की इस पनघट में, पथिक देखता आलोक प्रखर सा, दो घूँट हाला की पाने को, सर्वस्व जीवन घट न्योछावर कर देता। नैनों की इस पनघट तट पर, व्यथित हृदय पीर पथिक का रमता, विरह की चिर नीर बहाकर, पनघट त

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प्रतीक्षारत

3 सितम्बर 2017
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स्नेह मन का प्रतीक्षारत, तुम प्रतीक्षा के ये पल ले लो! मैं सागर प्रीत का एकांत स्नेह भरा, सिहरता पल-पल प्रतीक्षा की नेह से भरा, प्रतीक्षा की इल पल को स्नेहित कर दो, नेह का तुम मुझसे इक अटूट आलिंगन ले लो। गीत मन की प्रतीक्षारत, तुम गीत मेरे मन के ले लो! सुन ऐ मेरे मन के चिर प्रतीक्षित मीत, कहता है को

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नवव्याहिता

3 सितम्बर 2017
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रिवाजों में घिरी, नव व्याहिता की बेसब्र सी वो घड़ी! उत्सुकता भड़ी, चहलकदमी करती बेसब्र सी वो परी! नव ड्योड़ी पर, उत्सुक सा वो हृदय!मानो ढूंढ़ती हो आँखें, जीवन का कोई आशय! प्रश्न कई अनुत्तरित, मन में कितने ही संशय! थोड़ी सी घबड़ाहट, थोड़ा सा भय! दुविधा भड़ी, नजरों से कुछ टटोलती बेसब्र सी वो घड़ी!कैसी है ये

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निशा प्रहर में

7 सितम्बर 2017
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क्यूँ निशा प्रहर तुम आए हो मन के इस प्रांगण में? रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।बुझती साँसों सी संकुचित निशा प्रहर में, मिले थे भाग्य से, तुम उस भटकी सी दिशा प्रहर में,संजोये थे अरमान कई, हम

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दूभर जीवन

13 सितम्बर 2017
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उस छोटी सी चिड़ियाँ का जीवन कितना दूभर? चातुर नजरों से देखती इधर-उधर, मन ही मन हो आतुर सोचती करती फिकर.... मीलों होगे आज फिर उड़ने, अधूरे काम बहुत से होंगे करने, आबो-दाना है कहाँ न जाने? मिटेगी भूख न जाने किस दाने से? चैन की नींद! रही अब आने से! दूर डाल पे बैठी छोटी सी चिड़ियाँ सोंचती! फिर घोंसले

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छाए हैं दृग पर

15 सितम्बर 2017
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 छाए हैं अब दृग पर, वो अतुल मिलन के रम्य क्षण! वो मिल रहा पयोधर, आकुल हो पयोनिधि से क्षितिज पर, रमणीक क्षणप्रभा आ उभरी है इक लकीर बन। छाए हैं अब दृग पर, वो अतुल मिलन के रम्य क्षण! वो झुक रहा वारिधर,युँ आकुल हो प्रेमवश नीरनिधि पर, ज्युँ चूम रहा जलधर को प्रेमरत व्याकुल महीधर। छाए हैं अब दृग पर, वो अ

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इक नया शिखर

17 सितम्बर 2017
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यात्रा के इस चरण की कौन सी शिखर है ये, है यह एक शिखर या पड़ाव किसी नए यात्रा की ये, या उपलब्धियों के मुस्कान की एक मुकाम है ये, शिखर मेरी है यह कौन सी यह खबर है किसे। शिखरों की है यहाँ अनगिनत सी श्रृंखलाएँ, कुछ छोटी कुछ उँची जैसे हो माला की ये मणिकाएँ, कितनी ऊबड़-खाबड़ दुर्गम राहों वाली ये मालाएँ,

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निशिगंधा

19 सितम्बर 2017
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घनघोर निशा, फिर महक रही क्युँ ये निशिगंधा? निस्तब्ध हो चली निशा, खामोश हुई दिशाएँ, अब सुनसान हो चली सब भरमाती राहें, बागों के भँवरे भी भरते नहीं अब आहें, महक उठी है,फिर क्युँ ये निशिगंधा? प्रतीक्षा किसकी सजधज कर करती वो वहाँ? मन कहता है जाकर देखूँ, महकी क्युँ ये निशिगंधा?घनघोर निशा, फिर महक रही क्

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प्रीत

20 सितम्बर 2017
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मूक प्रीत की स्पष्ट हो रही है वाणी अब.... अमिट प्रतिबिंम्ब इक जेहन में, अंकित सदियों से मन के आईने में, गुम हो चुकी थी वाणी जिसकी, आज अचानक फिर से लगी बोलनें। मुखर हुई वाणी उस बिंब की,स्पष्ट हो रही अब आकृति उसकी, घटा मोह की फिर से घिर आई, मन की वृक्ष पर लिपटी अमरलता सी। प्रतिबिम्ब मोहिनी मनमोहक वो

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सैकत

23 सितम्बर 2017
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असंख्य यादों के रंगीन सैकत ले आई ये तन्हाई, नैनों से छलके है नीर, उफ! हृदय ये आह से भर आई!कोमल थे कितने, जीवन्त से वो पल, ज्यूँ अभ्र पर बिखरते हुए ये रेशमी बादल, झील में खिलते हुए ये सुंदर कमल, डाली पे झूलते हुए ये नव दल,मगर, अब ये सारे न जाने क्यूँ इतने गए हैं बदल? उड़ते है हर तरफ ये बन के यादों के

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किंकर्तव्यविमूढ

24 सितम्बर 2017
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गूढ होता हर क्षण, समय का यह विस्तार! मिल पाता क्यूँ नहीं मन को, इक अपना अभिसार, झुंझलाहट होती दिशाहीन अपनी मति पर, किंकर्तव्यविमूढ सा फिर देखता, समय का विस्तार! हाथ गहे हाथों में, कभी करता फिर विचार! जटिल बड़ी है यह पहेली,नहीं किसी की ये सहेली! झुंझलाहट होती दिशाहीन

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दुर्गे निशुम्भशुम्भहननी

28 सितम्बर 2017
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अग्निज्वाला अनन्त अनन्ता अनेकवर्णा, पाटला, अनेकशस्त्रहस्ता अनेकास्त्रधारिणी अपर्णा,अप्रौढा, अभव्या अमेय अहंकारा एककन्या आद्य आर्या, इंद्री

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तुम्हारी बातें

29 सितम्बर 2017
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तुम्हारी बातें, तुम्हारी प्यारी-प्यारी सी बातें, साँसों में संग घुली हुई वो मुलाकातें, साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा अंत तक,बना लूँ मैं इन्हें सारथी अपने जीवन पथ का,तुम बोलो क्या करूँ मैं इनका? तुम्हारी बातें, तुम्हारी बहकी-बहकी सी बातें,अन्तस्थ दिलों में समाती वो इठलाती बा

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मौन अभ्यावेदन

2 अक्टूबर 2017
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मुखर मनःस्थिति, मनःश्रुधार, मौन अभ्यावेदन! ढूंढता है तू क्या ऐ मेरे व्याकुल मन? चपल हुए हैं क्यूँ, तेरे ये कंपकपाते से चरण है मौन सा कैसा तेरा ये अभ्यावेदन? तू है निश्छल, तू है कितना निष्काम! जीवन है इक छल, पीता जा तू छल के जाम! प्रखर जरा मौन कर, तू पाएगा आराम! मौन अभ्यर्थी ही पाता विष का प्याला!

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कोलाहल

4 अक्टूबर 2017
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क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार? काँप उठी ये वसुन्धरा, उठी है सागर में लहरें हजार, चूर-चूर से हुए हैं, गगनचुम्बी पर्वत के अहंकार, दुर्बल सा ये मानव, कर जोरे, रचयिता का कर रहा मौन पुकार! क्या सृष्टि के उस स्रष्टा की, है ये गगनभेदी हुंकार?कोलाहल के है ये स्वर, कण से कण अब रहे बिछर,

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शरद हंसिनी

5 अक्टूबर 2017
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नील नभ पर वियावान में, है भटक रही..... क्यूँ एकाकिनी सी वो शरद हंसिनी? व्योम के वियावान में, स्वप्नसुंदरी सी शरद हंसिनी, संसृति के कण-कण में, दे रही इक मृदु स्पंदन, हैं चुप से ये हृदय, साँसों में संसृति के स्तब्ध समीरण, फिर क्युँ है वो निःस्तब्ध सी, ये कैसा है एकाकीपन! यह जानता हूँ मैं... क्षणिक तुम

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बेखबर

19 अक्टूबर 2017
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काश! मिल पाता मुझे मेरी ही तमन्नाओं का शहर! चल पड़े थे कदम उन हसरतों के डगर, बस फासले थे जहाँ, न थी मंजिल की खबर, गुम अंधेरों में कहीं, था वो चाहतों का सफर, बस ढूंढता ही रहा, मैं मेरी तमन्नाओं का शहर! बरबस खींचती रहीं जिन्दगी मुझे कहीं, हाथ बस दो पल मिले, दिल कभी मि

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कुछ कहो ना

28 अक्टूबर 2017
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प्रिय, कुछ कहो ना!यूँ चुप सी खामोश तुम रहो ना! संतप्त हूँ, तुम बिन संसृति से विरक्त हूँ, पतझड़ में पात बिन, मैं डाल सा रिक्त हूँ... हूँ चकोर, छटा चाँदनी सी तुम बिखेरो ना, प्रिय, कुछ कहो! यूँ चुप तो तुम

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मेरे पल

5 नवम्बर 2017
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वो कुछ पल जो थे बस मेरे...... युँ ही उलझ पड़े मुझसे कल सवेरे-सवेरे, वर्षों ये चुप थे या अंतर्मुखी थे? संग मेरे खुश थे या मुझ से ही दुखी थे? सदा मेरे ही होकर क्युँ मुझ से लड़े थे? सवालों में थे ये अब मुझको ही घेरे! वो कुछ पल जो थे बस मेरे...... सालों तलक शायद था अनभिज्ञ मैं इनसे, वो पल मुझ संग यूँ जिय

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वापी

7 नवम्बर 2017
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ले चल तू मुझको उस वापी ऐ नाविक, हो आब जहाँ मेरे मनमाफिक। अंतःसलिल हो जहाँ के तट, सूखी न हो रेत जहाँ की, गहरी सी हो वो वापी, हो मीठी सी आब जहाँ की। दीड घुमाऊँ मैं जिस भी ओर, हो चहुँदिश नीवड़ जीवन का शोर, मन के क्लेश धुल जाए, हो ऐसी ही आब जहाँ की। वापी जहाँ थिरता हो धीरज, अंतःकीचड़ खिलते हों जहाँ जलज

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क्यूँ झाँकूं मैं बाहर

8 नवम्बर 2017
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क्यूँ झाँकूं मैं मन के बाहर..... जब इतना कुछ घटित होता है मन के ही भीतर,सब कुछ अलिखित होता है अन्दर ही अन्दर,कितने ही विषयवस्तु, कौन चुने आकर? बिन लघुविराम, बिन पूर्णविराम... बिन मात्रा, शब्दों बिन प्रस्फुटित होते ये अक्सर, ये निराकार से प्रतिबिंब यूँ ही काटते चक्क

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ऋतुराज

10 नवम्बर 2017
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फिजाओं ने फिर, ओस की चादर है फैलाई, संसृति के कण-कण पर, नव-वधु सी है तरुणाई, जित देखो तित डाली, नव-कोपल चटक आई, ऋतुराज के स्वागत की, वृहद हुई तैयारी..... नव-वधु सी नव-श्रृंगार, कर रही ये वसुंधरा, जीर्

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बदल रहा ये साल

16 नवम्बर 2017
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युग का जुआ कांधे देकर, बदल रहा ये साल... यादों के कितने ही लम्हे देकर, अनुभव के कितने ही किस्से कहकर, पल कितने ही अवसर के देकर, थोड़ी सी मेरी तरुणाई लेकर, कांधे जिम्मेदारी रखकर, बदल रहा ये साल... प्रगति के पथ प्रशस्त देकर, रोड़े-बाधाओं को कुछ समतल कर, काम अधूरे से बहुतेरे रखकर, निरंतर बढ़ने को कहकर

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अनन्त प्रणयिनी

25 नवम्बर 2017
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कलकल सी वो निर्झरणी, चिर प्रेयसी, चिर अनुगामिणी, दुखहरनी, सुखदायिनी, भूगामिणी, मेरी अनन्त प्रणयिनी...... छमछम सी वो नृत्यकला, चिर यौवन, चिर नवीन कला, मोह आवरण सा अन्तर्मन में रमी, मेरी अनन्त प्रणयिनी...... धवल सी वो चित्रकला, नित नवीन, नित नवरंग ढ़ला, अनन्त काल स

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उपांतसाक्षी

9 दिसम्बर 2017
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न जाने क्यूँ..... जाने.... कितने ही पलों का... उपांतसाक्षी हूँ मैं, बस सिर्फ.... तुम ही तुम रहे हो हर पल में, परिदिग्ध हूँ मैं हर उस पल से, चाहूँ भी तो मैं .... खुद को... परित्यक्त नहीं कर सकता, बीते उस पल से। उपांतसाक्षी हूँ मैं.... जाने.... कितने ही दस्तावेज

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