विदाई की वेदना में असह्य से गुजरते हुए ये क्षण!
भर आई हैं आखें, चरमराया सा है ये मन,
भरी सी भीड़ में, तन्हा हो रहा ये बदन,
तपिश ये कैसी, ले आई है वेदना की ये अगन!
निर्झर से बह चले हैं, इन आँखों के कतरे,
बोझिल सा है मन, हम हैं खुद से परे,
मिलन के वे सैकड़ों पल, विदाई में संग रो रहे!
हर ईक झण ये विदाई की दे रही है पीड़ा,
रो रहा टूट कर मन का हरेक टुकड़ा,
छलकी हैं इतनी आँखें, ज्यूँ आसमाँ है रो पड़ा!
विदाई के इन पलों से संबंध कई नए जनेंगे,
मृदु से लोग होंगे, पर कहीं हम न होंगे,
पर तन्हाईयों में याद कर, गले हम तुम्हे मिलेंगे!
विदाई के इस क्षण, क्यूँ चरमराया सा है ये मन?