वो ही सपने, पलकों तले फिर से लगे हैं जगने........
स्वप्न सदृश्य, पर हकीकत भरे जागृत मेरे सपने,
जैसे खोई हुई हो धूप में आकाश के वो सितारे,
चंद बादल विलीन होते हुए आकाश पर लहराते,
वो ही सपने, पलकों तले फिर से लगे हैं जगने........
खामोश सी हो चली हैं अब कुछ पल को हवाएँ,
और रुकी साँसों के वलय लगे हैं तेज धड़कने,
रुक से गए हैं तेज कदमों से भागते से वो लम्हे,
वो ही सपने, पलकों तले फिर से लगे हैं जगने.......
गूँजती हैं कहीं जब ठिठकते से कदमों की आहट,
बज उठती है यूँहीं तभी टूटी सी वीणा यकायक,
चुपके से कानों में कोई कह जाता है इक कहानी ,
वो ही सपने, पलकों तले फिर से लगे हैं जगने.......
जागृत हकीकत है ये, स्वप्न सदृश्य मगर है लगते,
परियों की देश से, तुम आए थे मुझसे मिलने,
हर वक्त हो पहलू में मेरे, जेहन में हैं तेरी ही बातें,
वो ही सपने, पलकों तले फिर से लगे हैं जगने........