द्वारिका नगरी हमारे देश के पश्चिम में समुन्द्र के किनारे पर बसी है। आज से हजारों साल पहले भगवान कॄष्ण ने इसे बसाया था। कृष्ण मथुरा में पैदा हुए, गोकुल में पले, पर राज उन्होने द्वारिका में ही किया। यहीं बैठकर उन्होने सारे देश की बागडोर अपने हाथ में संभाली। पांड़वों को सहारा दिया, धर्म की जीत कराई और, शिशुपाल तथा दुर्योधन जैसे अधर्मी राजाओं का नाश किया।
द्वारिका की महिमा का तो कहना ही क्या । यह चार धामों में एक धाम ओर सात पुरियों में एक पुरी है। इसकी ऎसी निर्मल सुन्दरता है कि जिसका शब्दों में बखान नहीं किया जा सकता। समुद्र की बड़ी-बड़ी लहरें उठकर् इसके किनारों पर् इस तरह से गिरतीं है कि मानो इसके चरण पखार रही हों.
पहले तो मथुरा ही कृष्ण की राजधानी थी। पर मथुरा उन्होने छोड़ दी और द्वारिका बसाई।
द्वारिका एक छोटा-सा-कस्बा है। कस्बे के एक हिस्से के चारों ओर चारदीवारी खिंची है इसके भीतर ही सारे बड़े-बड़े मन्दिर है। द्वारिका के दक्षिण में एक लम्बा ताल है। इसे गोमती तालाब कहते है। इसके नाम पर ही द्वारिका को गोमती द्वारिका भी कहा जाता है।
इस गोमती तालाब के ऊपर नौ घाट है। इनमें सरकारी घाट के पास एक कुण्ड है, जिसका नाम निष्पाप कुण्ड है। इसमें गोमती का पानी भरा रहता है। नीचे उतरने के लिए पक्की सीढ़िया बनी है। यात्री सबसे पहले इस निष्पाप कुण्ड में नहाकर अपने को शुद्ध करते है। बहुत-से लोग यहां अपने पुरखों के नाम पर पिंड-दान भी करतें है।
गोमती के दक्षिण में पांच कुंए है। निष्पाप कुण्ड में नहाने के बाद यात्री इन पांच कुंओं के पानी से कुल्ले करते है। तब रणछोड़जी के मन्दिर की ओर जाते है। रास्तें में कितने ही छोटे मन्दिर पड़ते है-कृष्णजी, गोमती माता और महालक्ष्मी के मन्दिर।
रणछोड़जी का मन्दिर द्वारिका का सबसे बढा एवं सबसे सुन्दर मन्दिर है। भगवान कृष्ण जी को ही वहां रणछोड़जी कहा जाता है। सामने ही कृष्ण भगवान की चार फुट ऊंची मूर्ति है। यह चांदी के सिंहासन पर विराजमान है। मूर्ति काले की पत्थर की बनी है। हीरे-मोती इसमें चमचमाते है। सोने की ग्यारह मालाएं गले में पड़ी है। कीमती पीले वस्त्र पहने है। भगवान के चार हाथ है। एक में शंख है, एक में सुदर्शन चक्र है। एक में गदा और एक में कमल का फूल । सिर पर सोने का मुकुट है। लोग भगवान की परिक्रमा करते है और उन पर फूल और तुलसी दल चढ़ाते है। चौखटों पर चांदी के पत्तर मढ़े है। मन्दिर की छत में बढ़िया-बढ़िया कीमती झाड़-फानूस लटक रहे है। एक तरफ ऊपर की मंजिल में जाने के लिए सीढ़िया है। पहली मंजिल में अम्बादेवी की मूर्ति है-ऐसी सात मंजिले है और कुल मिलाकर यह मन्दिर एक सौ चालीस फुट ऊंचा है। इसकी चोटी तो जैसे आसमान से बातें करती है।
रणछोड़जी के दर्शन के बाद मन्दिर की परिक्रमा की जाती है। मन्दिर की दीवार दोहरी है। दो दिवारों के बीच इतनी जगह है कि आदमी समा सके । यही परिक्रमा का रास्ता है।
दक्षिण की तरफ बराबर-बराबर दो मंदिर है। एक दुर्वासाजी का और दूसरा मन्दिर त्रिविक्रमजी का,जिन्हे टीकमजी भी कहा जाता है। इनका मन्दिर अति विशाल एवं साज-सज्जा से परिपूर्ण् है।
त्रिविक्रमजी के मन्दिर के बाद प्रधुम्नजी के दर्शन करते हुए यात्री इन कुशेश्वर भगवान के मन्दिर में जाते है। मन्दिर में एक बहुत बड़ा तहखाना है। इसी में शिव लिंग और भगवती पार्वती की मूर्तियां स्थापित है।
कुशेश्वर शिव के मन्दिर के बराबर-बराबर दक्षिण की ओर छ: मन्दिर और है। इनमें अम्बाजी और देवकी माता के मन्दिर खास हैं।
रणछोड़जी के मन्दिर के पास ही राधा, रूक्मिणी, सत्यभामा और जाम्बवती के छोटे-छोटे मन्दिर है। इनके दक्षिण में भगवान का भण्डारा है और भण्डारे के दक्षिण में शारदा-मठ है।
शारदा-मठ को गुरू शंकराचार्य ने बनबाया था। उन्होने भारतवर्ष की चारों दिशाओं मे चार मठों का निर्माण करवाया था। उनमें से एक यह शारदा-मठ है।
रणछोड़जी के मन्दिर से द्वारिका शहर की परिक्रमा आरम्भ होती है। पहले सीधे गोमती के किनारे जाते है। गोमती के नौ घाटों पर बहुत से मन्दिर है- सांवलियाजी का मन्दिर, गोवर्धननाथजी का मन्दिर, महाप्रभुजी की बैठक।
आगे वासुदेव घाट पर हनुमानजी का मन्दिर है। आखिर में संगम घाट आता है। यहां गोमती नदी समुद्र से मिलती है। इस संगम पर संगम-नारायणजी का बहुत बड़ा मन्दिर है।
संगम-घाट के उत्तर में समुद्र के ऊपर एक ओर घाट है। इसे चक्र तीर्थ कहा जाता है। इसी के पास रत्नेश्वर महादेव का मन्दिर है। इसके आगे सिद्धनाथ महादेवजी है, आगे एक बावली है, जिसे ‘ज्ञान-कुण्ड’ कहते है। इससे आगे जूनीराम बाड़ी है, जिसमें श्रीराम, लक्ष्मण और माता सीता जी की मूर्तिया है। इसके बाद एक बावली है, जिसे सौमित्री बावली यानी लक्ष्मणजी की बावजी कहते है। काली माता और आशापुरी माता की मूर्तिया इसके बाद आती है।
इनके आगे यात्री कैलासकुण्ड़ पर पहुंचते है। इस कुण्ड़ का पानी गुलाबी रंग का है। कैलासकुण्ड़ के आगे सूर्यनारायण का मन्दिर है। इसके आगे द्वारिका शहर का पूर्व दिशा की तरफ का दरवाजा पड़ता है। इस दरवाजे के बाहर जय और विजय की मूर्तिया है। जय और विजय जिन्हे बैकुण्ठ लोक में द्वारपाल का पद प्राप्त है। यहां भी ये द्वारका के दरवाजे पर खड़े उसकी देखभाल करते है।
यहां से यात्री फिर निष्पाप कुण्ड पहुंचते है और इस रास्ते के मन्दिरों के दर्शन करते हुए रणछोड़जी के मन्दिर में पहुंच जाते है। यहीं पर आकर परिक्रमा सम्पूर्ण होती है।
यही असली द्वारिका है। इससे बीस मील आगे कच्छ की खाड़ी में एक छोटा सा टापू है। जहां पर बेट-द्वारिका बसी है। गोमती द्वारिका के दर्शन करने के बाद यात्री बेट-द्वारिका जाते है। बेट-द्वारिका के दर्शन बिना द्वारका यात्रा अपूर्ण मानी जाती है। बेट-द्वारिका आप समुद्री मार्ग द्वारा भी जा सकते है और जमीन के रास्ते भी।
जमीन के रास्ते जाते हुए तेरह मील आगे गोपी-तालाब पड़ता है। यहां के आस-पास की भूमी पीले रंग की है। तालाब के अन्दर से भी पीले रंग की ही मिट्टी निकलती है। इस मिट्टी को वहां लोग गोपीचन्दन कहते है। यहां मोर बहुतायत में पाए जाते है। गोपी तालाब से तीन-मील आगे नागेश्वर नाम का शिवजी और पार्वती का छोटा सा मन्दिर है। यात्री लोग इसका दर्शन भी जरूर करते है।
कहते है, भगवान कृष्ण इस बेट-द्वारिका नाम के द्वीप पर अपने कुटुम्बीजनों के साथ भ्रमण करने आया करते थे। इसकी कुल लम्बाई सात मील के लगभग है ओर रास्ता अधिकतर पथरीला ही है। यहां कई अच्छे और बड़े भव्य मन्दिर है, कितने ही तालाब है। मन्दिरों के अतिरिक्त वहां का अद्भुत प्राकृतिक सौंर्दय ओर् समुद्र का किनारे घूमना, ऎसा आनंद जो कि सचमुच् नितांत अवर्णनीय है।
बेट-द्वारिका के द्वीप का पूरब की तरफ का जो कोना है, उस पर हनुमानजी का बहुत विशाल मन्दिर है। इसीलिए इस ऊंचे टीले को हनुमानजी का टीला कहा जाता है।
आगे बढ़ने पर गोमती-द्वारिका की तरह ही एक बहुत बड़ी चारदीवारी यहां भी है। इस घेरे के भीतर पांच बड़े-बड़े दुमंजिले ओर तिमंजले महल है। पहला और जो कि सबसे बडा भी है,वो श्रीकृष्ण जी का महल है। इसके दक्षिण में सत्यभामा और जाम्बवती के तथा उत्तर में रूक्मिणी और राधा के महल है। इन पांचों महलो की सजावट ऐसी है कि आंखें चकाचोंध हो जाती है। इन मन्दिरों के किबाड़ों और चौखटों पर चांदी के पतरे चढ़े है। भगवान कृष्ण और उनकी चारों रानियों के सिंहासनों पर भी चांदी मढ़ी है। मूर्तियों के श्रंगार का तो कहना ही क्या,बस अपलक देखते ही जायें.
रणछोड़जी के मन्दिर की ऊपरी मंजिलें देखने योग्य है। जहां भगवान की सेज सजी है, झूलने के लिए एक झूला है,खेलने के लिए चौपड़ बिछाई हुई है। दीवारों में चहुं ओर बड़े-बड़े शीशे लगे है।
इन पांच विशेष मन्दिरों के अतिरिक्त और भी बहुत-से मन्दिर इस चारदीवारी के अन्दर मौजूद हैं। ये प्रद्युम्नजी, टीकमजी, पुरूषोत्तमजी, देवकी माता, माधवजी, अम्बाजी और गरूड़ के मन्दिर है। इनके सिवाय साक्षी-गोपाल, लक्ष्मीनारायण और गोवर्धननाथजी के मन्दिर है।
बेट-द्वारिका में कई तालाब है-रणछोड़ तालाब, रत्न-तालाब, कचौरी-तालाब और शंख-तालाब । इनमें रणछोड तालाब सबसे बड़ा है। इन तालाबों के आस-पास बहुत से मन्दिर है। इनमें मुरली मनोहर, नीलकण्ठ महादेव, रामचन्द्रजी और शंख-नारायण के मन्दिर विशेष है।
रणछोड़ के मन्दिर से डेढ़ मील आगे चलकर शंख-तालाब आता है। इस जगह भगवान कृष्ण ने शंख नामक राक्षस का वध किया था।तालाब के किनारे पर ही शंख नारायण का मन्दिर है। शंख-तालाब में नहाकर 'शंख नारायण' के दर्शन करने से बड़ा पुण्य प्राप्त होता है।
बेट-द्वारिका से समुद्र के रास्ते जाकर बिरावल बन्दरगाह पर उतरना पड़ता है। ढाई-तीन मील दक्षिण-पूरब की तरफ चलने पर एक कस्बा मिलता है इसी का नाम सोमनाथ पट्टल है। कस्बे से करीब तीन मील पर हिरण्य, सरस्वती और कपिला इन तीन नदियों का संगम है। इस संगम के पास ही भगवान कृष्ण जी के पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार किया गया था।
कस्बे से करीब एक मील पश्चिम मे चलने पर एक और तीर्थ आता है। यहां जरा नाम के भील ने कृष्ण भगवान के पैर में तीर मारा था। इसी तीर से घायल होकर वह परमधाम गये थे। इस जगह को बाण-तीर्थ कहते है। यहां बैशाख मास मे बहुत भारी मेला लगता है।
बाण-तीर्थ से डेढ़ मील उत्तर में एक और बस्ती है, जिसका नाम भालपुर है। वहां एक पद्मकुण्ड नाम का तालाब है।
सोमनाथ पट्टन बस्ती से थोड़ी दूरी पर हिरण्य नदी के किनारे एक स्थान है, जिसे यादवस्थान कहा जाता हैं। यहां पर एक तरह की लंबी घास मिलती है, जिसके काफी चौड़े-चौडे पत्ते होते है। यह वही घास है, जिसको तोड़-तोडकर यादव आपस में लड़े थे और यही वह जगह है, जहां यादव वंश का सम्पूर्ण नाश हुआ था।
इस सोमनाथ पट्टन कस्बे में ही समुंद्र के किनारे पर बना, काले पत्थर से निर्मित सोमनाथ भगवान का प्रसिद्ध मन्दिर है, जिसे पुरातन काल में महमूद गजनवी ने लूटा था। इतने हीरे और रत्न इसमें कभी जुडे थे कि देखकर बड़े-बड़े राजाओं के खजाने भी शरमां जाएं। शिवलिंग के अन्दर इतने जवाहरात थे कि महमूद गजनवी को ऊंटों पर लादकर उन्हें ले जाना पड़ा। महमूद गजनवी के जाने के बाद यह दुबारा न बन सका।
लगभग सात सौ साल बाद इन्दौर की रानी अहिल्याबाई ने एक नया सोमनाथ का मन्दिर कस्बे के अन्दर बनबाया था। जो कि अब भी वैसा ही खड़ा है।