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एक विलेन रिटर्न फ़िल्म समीक्षा

31 जुलाई 2022

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एक कहावत हैं। "कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा महरवती ने कुनबा जोड़ा" ये फ़िल्म इस कहावत को पूरी तरह से चरितार्थ करती हुई दिखती हैं। हॉलीवुड में 1995 से 2000 के बीच के सालों में इस तरह की फिल्मों की भरमार थी। उसके बाद इनको बनाने का ठेका कोरिया वालों ने ले लिया। और अब जब दुनिया इन फिल्मों से जिसे क्राइम थ्रिलर कहा जाता हैं।, बनाते हुए थक गई, तब इन्हें बनाने का बॉलीवुड ने ठेका ले लिया हैं। 

वैसे 2003 से 2008 तक महेश भट्ट ने और अब भी विक्रम भट्ट इस तरह की फिल्में बनाते हैं। लेकिन अब मुखर होकर जिसने ठेका लिया हैं। वो है। मोहित सूरी, 

मोहित सूरी को क्या लगता हैं। कि भारत के बड़े शहरों में रहने वाले लड़के-लड़की जो एक दूसरे के प्यार में पड़े हुए हैं। उनकी सूरी साहब ने फ़िल्म पसंद करने की नश पकड़ रखी हैं। और ये सब लवर्स सूरी की फ़िल्म को दुनिया का अंतिम काम समझकर जरूर देखने जाएंगे। तो सूरी साहब इतना विला। वेल्ला कोई नहीं होता अपनी ज़िंदगी में कि वो आपका कारनामा देखने जाएंगे। और कारनामा भी ऐसा हैं। जिसे ये लोग बनाने के बाद खुद नहीं देखते हैं।


कहानी; अर्जुन कपूर बड़े बाप की औलाद हैं। औऱ वो कुछ भी कर सकता हैं। तो बस उसी कुछ करने में एक दिन तारा सुतारिया को सिंगिंग स्टार बना देता हैं। और फिर नीचे गिरा देता हैं। क्यों, क्योकि उसका स्वभाव सनकी किस्म का हैं।

दूसरी तरफ जॉन अब्राहम हैं। जो टैक्सी ड्राइवर हैं। और दिशा पाटनी जो सेल्स गर्ल हैं। उससे प्यार करता हैं। जॉन भी सनकी गुस्सैल टाइप का हैं। 

बस कभी अर्जुन कपूर पर शक जाता हैं। कभी जॉन पर और अंत में राज खुल जाता हैं। 

ज्यादा कहानी मैं बता नहीं सकता किसी देखने का मन हो तो उसका मूड ऑफ हो जाएगा कि सस्पेन्स तो सारा यहीं खुल गया। इसलिए जैसा भी सस्पेन्स हैं। सस्पेन्स रहने दो


एक्टिंग; जॉन अब्राहम ये बन्दा फ़िल्म में हो या असल जिंदगी में ये चेहरे पर तीन तरह के भाव रखता हैं। 

  1.  सीरियस

  2. उप्पर वाले होंठ से मुस्कुराना

  3. चिलाना

तो बस इस फ़िल्म में भी इस बन्दे ने ये ही काम किया हैं। और अंत में शर्ट उतार दी। आखिर बॉलीवुड को दूसरा सलमान खान भी तो चाहिए

अर्जुन कपूर इसे एक्टर कहना ईश्वर की दी हुई जवान का अपमान हैं। साबुत लड्डू मुँह में लेकर ये बन्दा डॉयलोग बोलता हैं। एक्टिंग ये ऐसे करता हैं। जैसे ड्रग्स ले रखा हो, ऊप्पर से इसके जिम ट्रेनर को अलग से सजा होनी चाहिए। उसने कैसी बॉडी बनवाई हैं। इसकी कि ये बन्दा अदरक की तरह कहीं से भी फैल रहा हैं। सीरियस सीन में ये कॉमेडी कर रहा हैं। और कॉमेडी में पागलपन

तारा सुतारिया ये बन्दी खुद को मर्लिन मुर्लो समझती हैं। इसे क्या लगता हैं। दुनिया की दूसरी सेक्स सिंबल बनेगी और हर लड़की इसके जैसा बनने का सपना देखगी। लेकिन ये एक बात भूल जाती कि पहले लड़की जैसी तो दिख। ये फ़िल्म की शुरुआत में एक गाना गाती हैं। उस गाने में ये कभी बालों को हिलाती हैं। कभी गर्दन को कभी पूरी बॉडी को अरे भई तू एक सेड सांग गा रही ना कि टेलर स्विफ्ट की तरह कोई पॉप सांग जो उसकी तरह एक्टिंग कर रही हैं। पर वो ही हैं। कि भसड़ कही भी मचवा लो इनसे

दिशा पाटनी इस बन्दी ने एक्टिंग सही की हैं। क्योंकि डांस नहीं करना था ना, पर इन जैसी हीरोइन के साथ समस्या डायरेक्टर को होती हैं। कि वो कपड़े उतारे उनके या एक्टिंग कराएं। इसलिए वो दोनों ही कामों में इनका इस्तेमाल सही से नहीं कर पाता। वैसे दिशा पाटनी ऐसी ही फिल्मों में एक्टिंग कर पाती हैं। क्योंकि बाकी फिल्मों के तो किरदार ही इसकी भी समझ नहीं आते हैं। 


औऱ बचें कुचे बाकियों ने तो शर्त लगाकर काम खराब किया हैं। कि देखते कि कौन ज्यादा नाश करता हैं।

डायरेक्शन; मोहित सूरी के नाम में ही सूरी हैं। तो बस डायरेक्शन कुछ ऐसा ही हैं। बल्कि मैं तो ये कहूँगा कि इस कहानी पर कोई फ़िल्म भी कैसे बना सकता हैं। ऊप्पर से अर्जुन कपूर को लेकर, भाई ठीक हैं। तुम्हें खुद को शीशे में देखकर डाइरेक्टर कहना हैं। पर उसके लिए इतना जुल्म मत करो। पूरी फिल्म में vfx इतना बेकार हैं। कि लगेगा की छोटा भीम का तो vfx मास्टर पीस हैं। उसके बाद फाइट सीन, सच में ऐसे सीन होते हैं। कैमरा रो रहा होगा कि क्या मेरा निर्माण ये सब सूट करने के लिए हुआ हैं। 

पटकथा सूरी साहब ने पक्का भांग खाकर लिखी हैं। ये मैं दावें के साथ कह सकता हूं। ऊप्पर से अर्जुन कपूर का वो डोज़ दिया हैं। कि एक-दो महीने तक दिमाग ठिकाने पर नहीं रहेगा। मोहित साहब एक सीन में कुछ गलत दिखाते हैं। और अगले सीन में गलत दिखाने को जस्टिफिकेशन देते हैं। फिर अगले सीन में जस्टिफिकेशन को गलत दिखाते हैं। अरे भैया तस्सली से पहले सोचलो ना कि दिखाना क्या हैं। ऐसे ही फ़िल्म में एक टाइगर हैं। जिससे एक हीरो पहले डरता हैं। फिर फ़िल्म के बीच में टाइगर उससे डरता हैं। और अंत में हीरो टाइगर से कहता हैं। आ मुझे खालें, सच में ये डाइरेक्शन हैं। मोटा-मोटा ये हैं। कि इससे बकवास डायरेक्शन बहुत कम देखने को मिलता हैं। 

संवाद; जिस फ़िल्म में अर्जुन कपूर हो उस फिल्म में संवाद की बात करनी ही नहीं चाहिए। क्योंकि शरीर के हर छिद्र में खून बहता हैं। जब अर्जुन कपूर संवाद बोलता हैं। औऱ बड़ी बात ये हैं। कि पूरी फिल्म में केवल अर्जुन कपूर ही संवाद बोलता हैं। बाकी सब या तो रोते हैं। या चिल्लाते हैं।


तो अंत में बात ये हैं। कि जब तुम इरोटिक क्राइम थ्रिलर बना रहे हो, तो उसमें एक चीज़ तो ढंग से दिखाओ। इस फ़िल्म में एक भी चीज़ ढंग से नहीं दिखाई। ऊप्पर से लड़का-लड़की का रिलेशन हिंसा से भरा हुआ दिखाया हैं। और ये ही लोग पब्लिक प्लेस पर कहते हैं। कि हिंसा गलत हैं। अब इनकी अपनी लाइफ में इतना विरोधाभास हैं। तो ये सही चीज़ कैसे बना सकते हैं। ट्रेलर के अंदर सेक्स सीन इन्होंने दिखाए कैमरे को क्लोजअप शॉट में कई लोगों को वो अच्छे भी लगे हो क्या पता, लेकिन मेरी रिक्वेस्ट हैं। उनसे वो फ़िल्म देखने ना जाए ये एक फैमिली फ़िल्म हैं। इसमें कुछ भी सेक्स से जुड़ा हुआ नहीं हैं। और जो हैं। उससे ज्यादा जब कोई इंसान सुबह नहाने जाता हैं। तो खुद को देखकर महसूस कर लेता हैं। 

फ़िल्म में बस तेरी गालियाँ गाना अच्छा हैं। लेकिन उसके आने तक आदमी अपनी नस काटने की हद तक आ जाता हैं। और थिएटर छोड़कर कहता हैं। चलो मेरा जीवन बच गया।


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