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एक ज़मीन अपनी- चित्रा मुद्गल (भाग -1 )

2 जुलाई 2022

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वह ठिठक गई। क्यारियों की चौड़ी मेड़ से एकदम धनुषाकार हो.....

जब भी रंगोली आती है, उसके प्रवेश-द्वार के दोनों ओर चुने हुए गोटों और चट्टानों की सांधों में दुबकी-सी झाँकती कैक्टस की दुर्लभ प्रजातियाँ उसे मोहपश में ही नहीं जकड़ लेतीं, बेईमान हो उठने को भी उकसाती हैं कि वह उनमें से किसी भी पौधे को पुतले से जड़ खड़े दरबान की आँख बचाकर फुर्ती से उखाड़ ले और अपने पर्स में छिपा ले.....

उधर उस कोने में चलते हैं। उसने मेहता को इंगित कर तेजी से उस ओर बढ़ चलने का संकेत किया। इससे पहले कि अन्य कोई उस मेज़ को धाँपता, वह मेज़ पर पहुँच जाना चाहती थी। मनपसंद रेस्तराँ में अगर मन मुताबिक बैठने की जगह न मिले तो वहाँ आना उसे व्यर्थ-सा महसूस होने लगता है। अन्य खाली मेजों के बावजूद वह पलट पड़ती, - कहीं और चलकर बैठते हैं.... उन्हें पलटते देख मुख्य वेटर हड़बड़ाया हुआ-सा पास आकर पूछने लगता, कोई गलती हो गई सर.....? -  मैडम की तबीयत जरा गड़बड़ लग रही है। वह खिसियाया-सा ऐसा ही कोई बहाना उछाल देता। अंकू की यह आदत उसे सख्त नागवार गुजरती और सनक की हद तक बचकानी, तुम जगह खाती हो या खाना ?

तीनों।

तीसरा ?

साथ ! वह बगैर उसकी खीझ की परवाह किए अपनी बात चाबुक-सी हवा में लहरा देती, मेहता ! जगह, साथ, खाना-तीनों समान महत्त्व रखते हैं मेरे लिए.....

यानी बहस फिजूल है। आपके अच्छा लगने, न लगने की बात भी। आना है तो ऐसे ही आना होगा और इन्हीं शर्तों पर मित्रता भी, वरना न साथ आने की जरूरत है, न खाने की। इतने शुष्क असंबंधित कटाक्ष से वह गहरे कटकर रह जाता है लेकिन अकसर उसने अपने से उबरकर अंकिता के विषय में सोचने की कोशिश की है और पाया है कि स्निग्धता के कवच के भीतर कहीं कुछ इतना अधिक छिजा है उसमें कि वह छोटी-छोटी चाहनाओं को लेकर दुराग्रह की हद तक हठीली हो उठती है.....

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REENA SRIVASTAVA

REENA SRIVASTAVA

अच्छी कहानी है

25 जुलाई 2022

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रचनाएँ
एक ज़मीन अपनी
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विज्ञापन की चकाचौंध दुनिया में जितना हिस्सा पूँजी का है, शायद उससे कम हिस्सेदारी स्त्री की नहीं है। इस नए सत्ता-प्रतिष्ठान में स्त्री अपनी देह और प्रकृति के माध्यम से बाज़ार के सन्देश को ही उपभोक्ता तक नहीं पहुँचाती, बल्कि इस उद्योग में पर्दे के पीछे एक बड़ी ‘वर्क फ़ोर्स’ भी स्त्रिायों से ही बनती है। ‘एक ज़मीन अपनी’ विज्ञापन की उस दुनिया की कहानी भी है जहाँ समाज की इच्छाओं को पैना करने के औज़ार तैयार किए जाते हैं और स्त्री के उस संघर्ष की भी जो वह इस दुनिया में अपनी रचनात्मक क्षमता की पहचान अर्जित करने और सिर्फ़ देह-भर न रहने के लिए करती है। आठवें दशक की बहुचर्चित कथाकार चित्रा मुद्गल ने इस उपन्यास में उसके इस संघर्ष को निष्पक्षता के साथ उकेरते हुए इस बात का भी पूरा ध्यान रखा है कि वे सवाल भी अछूते न रह जाएँ जो विज्ञापन-जगत की अपेक्षाकृत नई संघर्ष-भूमि में नारी-स्वातंत्र्य को लेकर उठते हैं, उठ सकते हैं।
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एक ज़मीन अपनी- चित्रा मुद्गल (भाग -1 )

2 जुलाई 2022
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वह ठिठक गई। क्यारियों की चौड़ी मेड़ से एकदम धनुषाकार हो..... जब भी रंगोली आती है, उसके प्रवेश-द्वार के दोनों ओर चुने हुए गोटों और चट्टानों की सांधों में दुबकी-सी झाँकती कैक्टस की दुर्लभ प्रजातियाँ

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एक ज़मीन अपनी - चित्रा मुद्गल (भाग - 2)

2 जुलाई 2022
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हाय अंकिता........ यहाँ....कौन ? उसी को तो पुकारा गया है ? विस्मित दृष्टि इधर-उधर दौड़ाई तो ठीक अपने दाहिनी ओर आब्जर्वेशन एडवरटाइजिंग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी मि० मैथ्यू को खड़ा पा वह अप्रत्याशित ख

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एक ज़मीन अपनी - चित्रा मुद्गल (भाग-३ )

2 जुलाई 2022
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कैसी बातें कर रही हो ! मैथ्यू का स्वर अविश्वास से फुसफुसा आया।  अगले ही क्षण वह सतर्क-भाव से गलतफ़हमी बुहारता-सा बोला, देखो अंकिता ! टकरा गए वाली लीपा-पोती यह नहीं है। मैंने तुम्हें देखते ही पुकारा.

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एक ज़मीन अपनी - चित्रा मुद्गल (भाग-४ )

2 जुलाई 2022
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जाहिर था कि उसकी ओर से रत्ती-भर भी भाव न दिया जाना आज की नंबर वन मॉडल को नख से शिख तक अखर गया है। अखरता रहे। शायद उसने जान-बूझकर ही किया ताकि व्यक्ति स्वयं अवमानना की उस धुएँ-भरी कोठरी के भीतर हो सके

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एक ज़मीन अपनी - चित्रा मुद्गल (भाग-५ )

2 जुलाई 2022
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उसने कोई उत्तर नहीं दिया। कुछ उत्तर दिए नहीं जा सकते। किसी प्रकार पर्स में से रूमाल टटोलकर वह माथे, गले पर छलछला आए श्वेद बिंदुओं को पोंछने लगी। कुछ मेजें उसे कौतूहल से घूर रही हैं, वह स्वयं बड़ा अटपट

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उपन्यास के कुछ अंश

2 जुलाई 2022
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बारीकी से सोचने पर पुनः उसकी पूर्व धारणा स्पष्ट हुई है कि लोग उसके सामने खामोशी अपनाकर उसे बहकने ही नहीं देते अपितु बकायदा उकसाते हैं कि वो बहके और खूब बहके। जैसे किसी को अंधाधुंध पिलाने का मकसद यही ह

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