वह ठिठक गई। क्यारियों की चौड़ी मेड़ से एकदम धनुषाकार हो.....
जब भी रंगोली आती है, उसके प्रवेश-द्वार के दोनों ओर चुने हुए गोटों और चट्टानों की सांधों में दुबकी-सी झाँकती कैक्टस की दुर्लभ प्रजातियाँ उसे मोहपश में ही नहीं जकड़ लेतीं, बेईमान हो उठने को भी उकसाती हैं कि वह उनमें से किसी भी पौधे को पुतले से जड़ खड़े दरबान की आँख बचाकर फुर्ती से उखाड़ ले और अपने पर्स में छिपा ले.....
उधर उस कोने में चलते हैं। उसने मेहता को इंगित कर तेजी से उस ओर बढ़ चलने का संकेत किया। इससे पहले कि अन्य कोई उस मेज़ को धाँपता, वह मेज़ पर पहुँच जाना चाहती थी। मनपसंद रेस्तराँ में अगर मन मुताबिक बैठने की जगह न मिले तो वहाँ आना उसे व्यर्थ-सा महसूस होने लगता है। अन्य खाली मेजों के बावजूद वह पलट पड़ती, - कहीं और चलकर बैठते हैं.... उन्हें पलटते देख मुख्य वेटर हड़बड़ाया हुआ-सा पास आकर पूछने लगता, कोई गलती हो गई सर.....? - मैडम की तबीयत जरा गड़बड़ लग रही है। वह खिसियाया-सा ऐसा ही कोई बहाना उछाल देता। अंकू की यह आदत उसे सख्त नागवार गुजरती और सनक की हद तक बचकानी, तुम जगह खाती हो या खाना ?
तीनों।
तीसरा ?
साथ ! वह बगैर उसकी खीझ की परवाह किए अपनी बात चाबुक-सी हवा में लहरा देती, मेहता ! जगह, साथ, खाना-तीनों समान महत्त्व रखते हैं मेरे लिए.....
यानी बहस फिजूल है। आपके अच्छा लगने, न लगने की बात भी। आना है तो ऐसे ही आना होगा और इन्हीं शर्तों पर मित्रता भी, वरना न साथ आने की जरूरत है, न खाने की। इतने शुष्क असंबंधित कटाक्ष से वह गहरे कटकर रह जाता है लेकिन अकसर उसने अपने से उबरकर अंकिता के विषय में सोचने की कोशिश की है और पाया है कि स्निग्धता के कवच के भीतर कहीं कुछ इतना अधिक छिजा है उसमें कि वह छोटी-छोटी चाहनाओं को लेकर दुराग्रह की हद तक हठीली हो उठती है.....
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