उसने कोई उत्तर नहीं दिया। कुछ उत्तर दिए नहीं जा सकते। किसी प्रकार पर्स में से रूमाल टटोलकर वह माथे, गले पर छलछला आए श्वेद बिंदुओं को पोंछने लगी। कुछ मेजें उसे कौतूहल से घूर रही हैं, वह स्वयं बड़ा अटपटा महसूस कर रही है......
तुम....एक बार अपनी जाँच क्यों नहीं करवा लेतीं.....कभी मायग्रेन, कभी.....
उसने करवाना है वाले अंदाज में खामोशी से सिर हिला दिया, फिर बैरे द्वारा लाकर रखे गए जग से गिलास में पानी उँडेलकर गटागट पीने लगी।
घर ले चलूँ.....?
बैठते हैं..... उसने अपने को भरसक सहेज मेहता को चिंतित न होने देने की गरज से कहा। कितने उत्साह से वह उसे रंगोली लाया है। उसकी एक कॉपी जो सरस चाय पर लिखी गई थी, पिछले साल के विज्ञापनों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय साबित हुई और महीने-भर पहले ही उस विज्ञापन को एडवरटाइजिंग क्लब नाम संस्था ने वर्ष के सर्वाधिक सार्थक विज्ञापन के रूप में पुरस्कृत कर मेहता को उसके काम के लिए सम्मानित किया है। दफ्तर के उत्साहित साथियों ने सम्मान के उपलक्ष्य में मेहता से एक जोरदार पार्टी की माँग की। और इस बात पर अड़ गए थे कि वे दालमोठ और समोसे पर नहीं टलने वाले। तंदूरी चिकन के साथ चिल्ड बीयर से नीचे बात नहीं जमेगी। मेहता ने थोड़ी आना-कानी करने की कोशिश की कि किसी प्रकार मामला चाय और पनीर-पकौड़ों पर निपट जाए, मगर बहुमत के सामने उसे हथियार डालने ही पड़े। मेहता ने कहा था, इस ट्रीट में तुम शरीक जरूर हो मगर मेरे लेखे यह शरीक होना मायने नहीं रखता। तुम्हें मैं अलग से डिनर या लंच पर ले जाऊँगा, वहीं जहाँ तुम खाना पसंद करोगी और वही जो तुम खाना चाहोगी। ऐसे सुंदर अवसर पर अगर वह नीता की टुच्चीगिरी बात छेड़ बैठे अच्छे-खासे मूड़ पर घड़ों पानी पड़ जाएगा। अचानक बिगड़ी अपनी तबीयत को लेकर ही वह मेहता के सामने अत्यन्त अटपटा ही नहीं महसूस कर रही, लज्जित भी अनुभव कर रही है......वह पूछेगा जरूर कि.....
कुछ ठीक लग रहा है ?
हाँ....
क्या लोगी ?
कुछ भी। बोलना जरूरी लगा।
आज कुछ भी खा लेने यहाँ नहीं आए हैं हम !
वह सँभली। ठीक ही तो कह रहा है मेहता। लेकिन क्या करे ? भीतर की अन्यमनस्कता उसकी चेतना पर भारी-भरकम सिल्लियों-सी लटकी हुई घड़ी की पेंडुलम सदृश टिक्-टिक् करती हथौड़े के प्रहार-सी अनुभव हो रही है। जो कुछ सामने है वह बहुत सुंदर और अच्छा होकर भी उसके मन को अपने से बाँधने में असमर्थ है.....नहीं, इस क्षण वह अपने सामने के सत्य से ही संबंधित रहना चाहती है। मेज पर कुहनियाँ टिकाकर वह सीधी हो बैठ गई। वातानुकूल की ठंडक भी अब अच्छी लग रही है, हॉल में मध्यम सुर में गूँज रहा अमजद अली खान का सरोद वादन भी। ठंडक और लय की भी अपनी आँच होती है।
ठंडेपन की चींटियाँ शनै:-शनै: लोप हो रही हैं।.....काफी स्वस्थ महसूस कर रही है। मेनू बता देने के बाद और भी। मेहता के चेहरे पर उगी रोशनी कितनी अच्छी लगती है !
बैरा ' चिकन स्वीट कार्न सूप ' रखा गया है। वह सूप के प्याले में ग्रीन चिली सॉस के साथ जिंजर शेरी मिलाने लगी.....
रोशनी आँख-मिचौनी खेल रही है.....मेहता न जाने किस सोच में डुबकी लगा रहा है। चुप्पी तोड़नी ही पड़ेगी। उसने स्वर को सायास बुलबुला बनाकर उसे छेड़ा, यह क्या मजाक है......तबीयत हमारी नक्शे दिखा रही है और तोरई आप हो रहे हैं.....?
सूप-भरी चम्मच मेहता के उदास खिंचे होठों के पास पहुँचकर ठिठक-सी गई, उल्लास होने जैसी बात नहीं है.....?
" मसलन..."
यही कि.....तुम मुझे इस काबिल नहीं समझतीं कि मैं तुमसे कुछ शेयर कर सकता हूँ, बाँट सकता हूँ......परेशानियों के अपने भीतर ताला लगाके बंद रखने का शौक है तुम्हें....कोई नहीं जान सकता, मैं भी नहीं ?.....हालाँकि जानने में विशेष दिलचस्पी नहीं है मुझे, जितनी सामने हो, काफी है मगर अंकू ! तुम्हारे ये ताले तुम्हारे लिए ही जख्म की शक्ल अख्तियार करते जा रहे हैं और तुम अपनी ही टीसों में घुल रही हो....टूट रही हो.....बड़ा अपच दर्शन है तुम्हारा....
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