जगत त्रस्त किरण रविताप से तप तपाकर तृप्त अतृप्त सी
मनहरण शशिशीतसमा सुखद शरद व्योम धरा पर छा गयी
सरसती सरसर वहती पवन अतिमनोज्ञ प्रशान्त सभीत सी
हृदय तंत्र विमर्दित अंग सब जनु अनंग उमाह उछाह में
पवन वेग लिए हिमकंण चली सघन शीत दिगन्त प्रसारती
व्यथित चित्त प्र कम्पित तन्त्रियाॅ जगत जीव अनन्दित हो रहे
नग्न वस्त्र न तन पे ऋतु ग्रीष्म मेंनववधू पितु गृह जनु रह रही
शरद सास दिखी परिधान से कस रही तन को प्रिय जनु मिले
विविधता नवरंग लिए गगन धुल गया मल धूल सिरा गयी
मलिन चित्त लिए दुरवृत्त जनु शठ हठात गया बन सन्त हो
महल तिनकों के खगवृन्द सब कर विनिर्मित पोषण वालहित
तरूशिखर और अम्बर भूमि बिच लटकते तरू डाल हैं घोंसले
तट सरोवर खंजन घूमते उड रहीं नभ बीच भमीरियाॅ
वरसता घन गर्जन थम गयाजलद वर्ष हुए बलहीन अब
कृषक बीज प्रसाधन में लगे उर्वरा कर भूमि प्रशन्न हैं
तंत्र पटपीत लजा रहींझुक गयीं अब धान की वालियाँ
मधुर शीत लिए हिमनद उठी नवलहर मन सौध निशीथ में
अति अलौकिक आनन्द मग्न हो श्रमित हो पर्यंक शयन किये
थक गया जग भानुकिरण थकी तपन रश्मि शरद लख शान्त है
बदन पर ढलती अति स्वेद कीटपकती अब बूॅद कहाॅ निढल
हृदयताप मिटा नर नारि काजग गयीं अब काम प्रवृत्तियां
सुघर सौध सुघर गृह वीथियाॅ थिरकतीं कर केलि मगन सभी
प्रकृति कृत अभ्यंतर श्रृष्टि के अति प्रहर्षित लोक समस्त है
सुखद जीवन के क्षण पा मनुज प्रभु कृपा धरती पे बरस रही
तरूलता बनभूमि धरा गगन भर गये शरदार्द्र मग्न सभी
मग्न मोहन मानिनि शरद काहृदय से अभिनन्दन है यहाॅ