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शर्मीली

11 अक्टूबर 2021

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शीर्षक - शर्मीली

जीवन चलने का नाम है
दिल की चाह में राह बनाते
मेले में चलते ही जाना है


   कुछ ऐसी ही पंक्तियाँ आज राकेश के मन में आ रही थी। उस दिन अगर उसने आशा(राकेश की पत्नी) की बात मान ली होती, तो आज खुद पर इतनी शर्मिंदगी नहीं हो रही होती। राकेश टंडन, शहर के जाने माने लेखक, बेस्ट सेलर, जिसके इशारों पर शब्द थिरकते हैं, आज वो खुद को असहाय महसूस कर रहे थे। कहने को तो 4-5 महीना हो गया उस घटना को घटे हुए, पर राकेश जी कादिन का चैन, रात की नींद चली गई उस दिन। ना चाहते हुए भी मन उस लड़की को लेकर परेशान हो उठता है।
                    शर्मीली .. हाँ.. यही नाम बताया था उसने आशा को, उसकी अपनी बेटी अराध्या के उम्र की तो थी। कोरोना ने पाँव पसरना शुरू कर दिया था, लाँकडाउन लगा दिया गया था। घर के जरूरी समान लाकर राकेश ने रख दिए थे, बस सब्जियां, फल ठेले वाले से ले लेते थे। बेटी चेन्नई में थी.. आना नहीं हो सका उसका। लाँकडाउन के यही कोई 10-15 दिन बीते होंगे। एक दिन आशा कह रही थी कि अब कुछ सब्जियां लानी होगी, इतने में एक लड़की की आवाज़ आती है.. सब्जियाँ ले लो.. हम दोनों ही एक दूसरे को देखने लगे,आशा ने कहा मैं देखकर आती हूँ। आशा उसे देखकर ठगी सी खड़ी रह गई, इतनी सुन्दर मानो कोई शापित अप्सरा धरती पर उतर आई हो। आशा को दरवाजे पर देखते ही उसने कहा - माँजी सब्जियाँ ले लो।
                      आशा ने कुछ सब्जियाँ तौलने को कहा और उसके बारे में पूछने लगी। उसने अपना नाम शर्मीली बताया और काम के बारे में पूछने पर कहा - घर में कोई कमाने वाला नहीं है, बापू की तबियत खराब रहती है और माँ घरों में काम करती थी, तो वो भी छूट गया, छोटे भाई को दुनियादारी की समझ नहीं है। माँ ने हमें कहीं भेजा नहीं.. किसी तरह हम दोनों की पढ़ाई करवा रही है,जिससे पढ़ लिख कर समाज में इज्जत से रह सकें। लेकिन अभी तो हमारी पढ़ाई होगी भी कि नहीं.. पता नहीं.. घर चल सके इसीलिए ठेला लगाने लगी, ये सब बताते हुए शर्मीली बहुत ही उदास थी। आशा ने उससे हर दूसरे तीसरे दिन चक्कर लगा लेने को कहा... शर्मीली ने हाँ किया और ठेला के साथ आगे बढ़ गई।
                आशा - सुनो जी.. देखो कितनी खुद्दार लड़की थी, बहुत प्यार आ रहा था उस पर।
                  राकेश - आपकी ये जो आदत है ना आशा जी.. किसी पर भी विश्वास कर लेने की.. बहुत ही गलत है। आजकल पुरुष घर से नहीं निकल रहे और ये लड़की होकर...
राकेश की बात बीच में काट कर आशा कहती है - "जहाँ चाह वहाँ राह".. लेखक होकर भी आपमें भावना नहीं है.... आप कविता, कहानी कैसे लिख लेते हैं।
       राकेश ने कोई ज़वाब नहीं दिया और अपने अध्ययन कक्ष में चला गया। संयोग से दूसरे दिन ही राकेश को किसी काम से बाहर जाना पड़ा। अचानक शर्मीली की आवाज़ कानों में पड़ी.. किसी को डांट रही थी.. थोड़ा आगे बढ़कर उसने देखा तो गली के एक दो लड़के थे, जो शायद उसे परेशान कर रहे थे और उन्हें वो डपट रही थी। घर आकर उन्होंने आशा को आवाज दिया।
   राकेश - आशा जी उस ठेले वाली लड़की से अब कुछ नहीं लेंगी, मुझे वो ठीक नहीं लगती।
    आशा - क्यूँ ऐसा क्या हो गया.. अचानक ऐसी बात।
     राकेश फिर बिना कोई जवाब दिए अपने अध्ययन कक्ष में चले गए।
       दो तीन के बाद शर्मीली आवाज लगाती हुई आती है... और दरवाजे के पास खड़ी हो जाती है। आशा जी मन मसोस कर रह जाती है। शर्मीली जाने लगती है.. आशा जी से रहा नहीं जाता है और वो शर्मीली कहती हुई बाहर आ जाती हैं.. सब्जियों की जरूरत नहीं होते हुए भी ले लेती हैं और शर्मीली से थोड़ी गपशप
भी करती हैं।
             आशा - शर्मीली इस काम में तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं होती है ना।
             शर्मीली - परेशानी तो बहुत है माँजी... लड़की देखकर लोग घंटों मोल भाव करते हैं और बदतमीजी भी करने की कोशिश करते हैं। कई बार तो हिम्मत नहीं होती है कि निकलूँ.. पर घर का सोच कर निकलना पड़ता है और कुछ दिन पहले घटी घटना बताती है। क्या गरीब होना और गरीब होकर स्वाभिमान की रोटी खाना पाप है माँजी.. बोलते बोलते शर्मीली की आँखों में आंसू आ जाते हैं।
              इस समय भी लोगों में मर्यादा नहीं जगी है.. बड़बड़ाते हुए आशा जी अंदर आती हैं।
         उनके अंदर आते ही राकेश जी गुस्से में बोलते हैं - जब मैंने मना किया था, फिर आप उस लड़की से बातें करने लगी।
          आशा जी बिना कोई जवाब दिए सब्जियाँ सम्भालने लगती हैं।
           कई दिन हो गए थे...शर्मीली नहीं आई थी.. आशा जी बहुत चिंतित थी। दिन में कई बार बाहर झाँक आती थीं।
            एक दिन दरवाजे पर दस्तक होती है.. उनदोनों को आश्चर्य होता है कि आजकल कोई कहीं भी आने जाने से बच रहे हैं तो कौन आया होगा। राकेश जी दरवाजा खोलते हैं तो सामने शर्मीली होती है.. परेशान सी.... राकेश जी बिना कुछ पूछे अंदर चले जाते हैं और आशा जी के पूछने पर कि कौन है तो जवाब नहीं देते हैं। आशा जी खुद ही बाहर जाकर देखती हैं तो शर्मीली को देखकर खुश हो जाती हैं। राकेश जी के कारण उसे अंदर आने नहीं कह पाती हैं... लेकिन शर्मीली की परेशानी और छटपटाहट उसके बिन बोले समझ जाती हैं।
          आशा - क्या बात है शर्मीली.. आज ठेला लेकर नहीं आई।
   शर्मीली रोने लगती है और रोते रोते ही बोलती है...
          शर्मीली - माँजी मुझे कुछ पैसे चाहिए थे.. मेरे बापू की तबियत ठीक नहीं है। डॉक्टर कोरोना बता रहे हैं और अस्पताल में भर्ती भी नहीं कर रहे हैं। घर में जो जमा पूँजी थी, सब खत्म है.. इसीलिए किसी तरह मैं आपके पास आ पाई हूँ ..जल्दी ही लौटा भी दूँगी माँजी...बहुत सकुचाते हुए शर्मीली ने बताया। 
                  राकेश जी भी सब सुन रहे थे, उन्होंने आशा जी को अंदर बुलाया और जोर से शर्मीली को सुनाते हुए कहा - ऐसे लोग शातिर होते हैं, कोई जरूरत नहीं है किसी को कुछ देने की। शर्मीली ये सुनकर जाने लगी, दो कदम चली ही थी कि आशा जी लगभग दौड़ते हुए आई और शर्मीली को कहा - तुम रुको, मैं अभी आती हूँ और अंदर से एक पैकेट में दस हजार लाकर देती हैं। शर्मीली उनके पैर छूकर प्रणाम करती है और जल्दी ही लौटा देने का वादा करके चली जाती है।
                     राकेश जी काफी गुस्सा होते हैं, जिस पर आशा जी ध्यान नहीं देती हैं। सिर्फ यही कहती हैं किसी इंसान की मदद करना कभी गुनाह नहीं हो सकता है।
                     लगभग दो महीने हो बीत जाते हैं, शर्मीली का कोई अता पता नहीं होता है। राकेश जी भी जब तब ताने देते रहते हैं.. आपकी ईमानदार सब्जी वाली नहीं आई। आशा जी प्रार्थना करती रहती हैं कि उसके साथ कोई अनहोनी ना हुई हो, वक़्त इतना बेरहम होता है कि कब किसके साथ क्या हो जाए, कहा नहीं जा सकता है।
                   इधर कुछ दिनों से राकेश जी की भी तबियत खराब रहने लगी थी, दो दिन से बुखार था, जो कि उतरने का नाम नहीं ले रहा था। सारे टेस्ट कराने के बाद पता चला कि कोरोना के लक्षण हैं, अब क्या करें, साँस लेने में भी तकलीफ होने लगी थी। जिसने भी जाना.. अपना पल्ला झाड़ लिया कि हम डॉक्टर तो नहीं हैं ना। गनीमत थी कि आशा जी की रिपोर्ट में कोरोना नहीं था। उन्हें राकेश जी की चिंता खाए जा रही थी।
                   इसी सब के बीच दरवाजे पर दस्तक होता है और माँजी.. माँजी की आवाज़ आती है.. जो कि शर्मीली की होती है। उनके दरवाजा खोलते ही वो झुककर आशा जी को प्रणाम करती है और बहुत प्रसन्नता से बताती है कि उसके पिता अब ठीक हैं और आभार प्रकट करती है कि उस दिन अगर आप मदद नहीं करती तो जाने क्या होता है। माँजी.. आज मैं पैसे लौटाने आई हूँ... आशा जी उसके परिवार के लिए खुशी व्यक्त करती हैं। लेकिन शर्मीली आशा जी की उलझन महसूस करती है।
           शर्मीली - क्या बात है माँजी आप परेशान हैं...सब ठीक है ना... आराध्या दीदी ठीक हैं ना.. साहब जी ठीक हैं ना।
आशा जी हाँ हाँ कर टालने की कोशिश करती हैं.. पर शर्मीली जिद्द करने लगती है।
           आशा - क्या बताऊँ.. राकेश जी की तबियत ठीक नहीं है.. टेस्ट में कोरोना है.. कभी कभी साँस लेने में तकलीफ होने लगती है। क्या करें कुछ समझ नहीं आता।
            शर्मीली - आप चिंता ना करें माँजी.. आजकल मैं एक निजी अस्पताल में सफाई का काम करती हूँ.. मेरे एक परिचित ने लगवा दिया। मैंने भी इसी तरह लोगों की थोड़ी मदद और सेवा कर सकूँगी... साहब को वही ले चलते हैं.. डॉक्टर अच्छे हैं। अपने स्टाफ और उनके जानने वालों का ध्यान रखते हैं।
            आशा - बहुत अच्छे संस्कार दिए हैं तुम्हारे माता पिता ने तुम्हें..बोलते हुए आशा जी के आँखों में आँसू आ जाते हैं।
             शर्मीली - माँजी, मैं एक घंटे में अपने अस्पताल में बात करके आती हूँ.. आपलोग तैयार रहिएगा.. कहती हुई चली जाती है।
              राकेश जी शर्मीली का नाम सुनकर आना कानी करते हैं कि पता नहीं हमारे पीठ पीछे चोरी ना करवा दे। पर आशा जी कुछ नहीं सुनती हैं। डॉक्टर के रिपोर्ट, दवाइयों की पर्ची सब रखकर राकेश जी के लिए खाने पीने का समान लेकर तैयार हो जाती हैं।
          तब तक शर्मीली एम्बुलेंस लेकर भी आ जाती है और दोनों के साथ अस्पताल पहुँचती है। डॉक्टर रिपोर्टस वगैरह देखते हैं और साँस लेने में तकलीफ की बात सुनकर भर्ती हो जाने की सलाह देते हैं।
          आशा जी को घर पहुँचा कर शर्मीली अस्पताल चली जाती है और आशा जी से कहती है.. आप अब चिंता ना करें.. साहब बिल्कुल ठीक हो जाएँगे.. मैं फ़िलहाल अपने घर नहीं जाती हूँ.. एक बार आकर साहब का हाल चाल बाहर से ही आपको बता जाऊँगी।

घर आकर आशा जी सोचती हैं जाने किस जन्म का क्या रिश्ता है शर्मीली से.. जहाँ सबने मुँह मोड़ लिया.. वहीँ इस लड़की ने इतना धीरज दिया।
           अब अस्पताल में शर्मीली जी जान से राकेश जी की सेवा करने लगती है.. अस्पताल के स्टाफ मज़ाक भी करते हैं कि अपनी भी फ़िक्र किया करो.. तुम तो ऐसे कर रही हो.. जैसे तुम्हारे पिता ही हो।
           शर्मीली - पिता तो नहीं हैं.. पर पिता जैसे ही हैं और बताती है कि कैसे उस समय पैसे से इन लोगों ने उसकी मदद की और कहती है उससे भी बड़ी बात "मैं माँजी को दुःखी नहीं देख सकती.. जहाँ इस समय सबने ताना ही दिया और मेरा फायदा उठाने की ही कोशिश करते रहे.. वहाँ उन्होंने मुझे इंसान समझा।
          राकेश जी भी बाहर से शर्मीली की आती आवाज सुन रहे थे और आत्मग्लानि महसूस कर रहे थे।
        पंद्रह दिन बाद राकेश जी घर आते हैं और आशा जी से कहते हैं.. बहुत भली लड़की है शर्मीली.. आशा जी मुस्कुरा उठती हैं।
        राकेश जी आराम कर रहे होते हैं कि अराध्या की कॉल आती हैं.. अपने पिता के लिए काफी परेशान थी और आना भी चाहती थी.. पर आशा जी ने ये कहकर कि शर्मीली ने सब सम्भाल लिया है.. आने से मना कर दिया।
        आराध्या ने जब राकेश जी से शर्मीली के बारे में पूछा तो राकेश जी ने कहा "तुम्हारी छोटी बहन की तरह ही है शर्मीली।
         राकेश जी में आए इस बदलाव को देखकर आशा जी हैरान रह जाती हैं।
     आत्मग्लानि से राकेश जी के तो दिन और रात का चैन खत्म हो गए... इतने सफल लेखक होकर भी उन्हें अनुभूति होती है कि उनमें भावना नहीं थी और एक छोटी बच्ची ने बिना अपनी परवाह किए.. बिना ये सोचे की उनका व्यवहार कितना खराब रहा उसके प्रति.... दिन रात एक करके उनकी सेवा की। आशा जी भी उनकी बैचेनी समझ रही थी और उन्हें कुछ ना कुछ लिखने के लिए प्रेरित कर रही थी। अब उनके शब्द उनके नहीं रह गए थे... रह गई थी तो सिर्फ उनके साथ व्याकुलता।
       उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्या किया जाए.. जिससे इस बैचेनी से बाहर निकल सके। दिन भर शर्मीली के बारे में सोचते रहते हैं कि कैसे माफ़ी माँगू उससे।
       धीरे-धीरे समय भी बीत रहा था.. लगभग एक महीने होने को आए.. शर्मीली नहीं आई थी.. कई बार आशा जी से पूछ चुके थे।
         इसी दौरान एक दोपहर शर्मीली आई.. वो कहते हैं ना किसी को दिल से याद करो तो कुदरत भी साथ देती है। राकेश जी उसे देख ऐसे खुश हो जाते हैं.. जैसे भक्त भगवान को देख कर खुश हो जाए।
           जिस शर्मीली को देख नफरत हो आती थी उन्हें.. उस शर्मीली ने उन्हें मानवता का पाठ पढ़ा दिया। उन्होंने तो ढाई आखर प्रेम का लिख पन्नों को सफेद से काला किया था, कभी उसे समझ नहीं सके थे और शर्मीली सच में उन्हें कोई शापित अप्सरा ही लग रही थी, जो उन्हें सही मार्ग दिखाने आई हो। शर्मिंदा थे गरीबों के प्रति अपनी सोच पर, शर्मिंदा थे कि उस दिन आशा जी के कहने पर दो प्यार के बोल नहीं बोल सके, शर्मिंदा थे कि अपना अभिमान उन्हें इतना प्रिय था कि किसी के स्वाभिमान को नहीं समझ सके। शर्मिंदा थे कि उन जैसे लोग उस दिन अगर एक लड़की के चाल चलन पर सवाल ना उठा कर,
गलत को गलत बोल सकें तो असामाजिक तत्वों को सिर उठाने का कभी अवसर नहीं मिलेगा। शर्मीली जैसे लोग ही हर परिस्थिति को धता बताकर अपनी गरीबी को मजबूरी ना बनाकर जहाँ चाह वहाँ राह को ही अपना मूलमंत्र बनाकर जीवन की हर धारा में मजबूती से खड़े रहने की सीख देते हैं ।
              यही सब सोचते सोचते उन्होंने शर्मीली से अपनी हर गलती के लिए माफ़ कर देने की गुजारिश की । शर्मीली ने उनके चरण स्पर्श कर इतना कहा - हमेशा इंसान गलत नहीं होता है.. कभी कभी उसका वक्त भी गलत होता है... जिस दिन हम इंसान को इंसान समझेंगे, इंसान के कर्मों से उसकी पहचान करेंगे .. समाज में बदलाव उसी दिन सम्भव है।
             राकेश जी जो कि शर्मीली को मंत्रमुग्ध हो सुन रहे थे.. मन ही मन प्रण लिया कि अब सिर्फ क्रांति , प्यार , समभाव लिखेंगे ही नहीं अपितु खुद के लिखे पर अमल भी करेंगे।कुछ देर बाद राकेश जी स्थिर मन से अपने अध्ययन कक्ष में अपने हर्फों से बातें करते हुए अपने जीवन का एक नया अध्याय लिख रहे थे।

आरती झा(स्वरचित व मौलिक)
सर्वाधिकार सुरक्षित ©®
            
          

Arun

Arun

बहुत ही बेहतरीन कहानी है।

11 अक्टूबर 2021

आरती झा

आरती झा

14 अक्टूबर 2021

हार्दिक आभार आपका 💐 💐

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