आदरणीय मार्गदर्शक और प्रेरणास्रोत श्री संजय कौशिक'विज्ञात'जी और सखी नीतू ठाकुर'विदुषी'जी चाहते हैं कि मैं इस समस्या पर और कार्य करूँ।करना भी चाहती हूँ,पर सोचती हूँ क्या मेरे लिख देने मात्र से कोई क्रांति संभव है??
मेरे विचार से इसका उत्तर"नहीं"है।
आज लाखों लोग सोशल मीडिया पर साहित्य सेवा में लीन हैं।कई एप्प भी हिंदी साहित्य लेखन के लिए इस क्षेत्र में सक्रिय हैं।हिंदी प्रतिलिपि,स्टोरीमिरर, वेबदुनिया इत्यादि। मैं हिंदी प्रतिलिपि और स्टोरीमिरर दोनों पर लिखती हूँ।वहाँ रहस्य ,रोमांच,प्रेम , सामाजिक,देश, आध्यात्मिक आदि विविध विषयों पर अच्छी रचनाएँ लिखी जा रहीं हैं।
अच्छी-खासी पाठक संख्या है वहाँ।लाखों लोग जुड़े हुए हैं और रचनाओं को पसंद कर रहें हैं,इसके लिए मैं एप्प संचालकों को धन्यवाद देना चाहती हूँ, लेकिन वहाँ भी यही समस्या है जो मुझे दुखी करती है भाषा में अशुद्ध शब्दों का प्रयोग।पाँच सितारा लेखक की भाषा में अशुद्धियों की भरमार देख मन दुखी हो उठा।इस पर प्रश्न भी उठाया़। बहस भी हुई,पर निष्फल रही।वहाँ लिखना महत्वपूर्ण है,कैसे लिखा जा रहा ये महत्त्वपूर्ण नहीं है ।
माना भाव प्रधान होते हैं रचना में,लेकिन उसके शरीर का क्या? क्या रोगी शरीर में प्राण प्रसन्न रहता है।लेखक का दायित्व है कि यदि वह साहित्य सेवा कर रहा है तो साहित्य के दोनों पक्षों पर ध्यान दे-भाव और शिल्प। दोनों सशक्त होने चाहिए,क्योंकि-
" साहित्य जनता की चित्तवृत्तियों का द्योतक होता है"यह कथन आ.रामचंद्र शुक्ल का है। साहित्य में हित का भाव भी निहित है"हितेन सह सहितम् तस्य भाव साहित्यम्"अर्थात जिसमें हित का भाव निहित हो ,वह साहित्य है ,तो जो भी लिख रहा है,उसके लेखन का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य है।इस उद्देश्य की पूर्ति में भाषा का अहित कदापि नहीं होना चाहिए।भाषा मनुष्य के परस्पर भाव-विनिमय का साधन है।इसका अपना इतिहास है।संस्कृत,पालि ,प्राकृत,अपभ्रंश का अपना साहित्य है,अपना सौंदर्य है।इसके बाद काव्य की भाषा ब्रज और अवधी बनी।
भारतेंदु काल तक ब्रजभाषा ही काव्य की भाषा बनी रही।इस युग में श्रीधर पाठक ने खड़ी बोली में काव्य रचना का प्रयास किया ।खड़ी बोली को काव्य के अनुकूल नहीं माना जाता था।इसे 'कड़ी बोली' माना जाता था।यह मेरठ और इसके आसपास बोली जाने वाली भाषा थी।चूंकि इसका उद्भव इन भाषाओं के बाद हुआ था। इसलिए इनके शब्द इसमें समाहित होना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। देश में मुगल शासकों का साम्राज्य होने से अरबी-फारसी की शब्दावली भी खड़ी बोली में समाहित हो गई।इस प्रकार इसके दो रूप हो गए।एक शुद्ध संस्कृत निष्ठ खड़ी बोली और दूसरा अरबी-फारसी शब्दों से युक्त खड़ी बोली।आज हम इन सब अंतरों को भुला बैठे हैं।और तो और हम तो मात्रा ज्ञान से भी अपरिचित हैं।जब कोई व्यक्ति सीता को सिता लिख देता है तो कितना बड़ा अनर्थ करता है ,ये शायद उसे पता नहीं होगा।सीता जनकनंदिनी है और सिता मिश्री को कहते हैं।एक मात्रा का फेरबदल अर्थ का अनर्थ कर देता है।
क्रमशः
अभिलाषा चौहान
सादर समीक्षार्थ 🙏🌷