नेत्र प्रवाहित नदिया अविरल,
नेह हृदय कुछ बोल रहा था।
तिनका-तिनका दुख में मेरे,
जैसे सबकुछ भूल रहा था।
अम्बर पर बदरी छाई थी,
दुख की गठरी लादे भागे।
नयनों से सावन बरसे था
प्यासा मन क्यों तरस रहा था।
खोया-खोया जीवन मेरा
चातक बन कर तड़प रहा था।
तिनका-तिनका दुख में मेरे
जैसे सब कुछ भूल रहा था।
कस्तूरी को वन-वन ढूँढे,
पागल मृग सा मेरा मन था।
मृगतृष्णा में उलझा-उलझा
कंचन मृग को तरस रहा था।
खोया-खोया जीवन मेरा
जीवन-धन को ढूँढ रहा था।
तिनका-तिनका दुख में मेरे
जैसे सब कुछ भूल रहा था।
धरती से लेकर अंबर तक,
जिसको अपना मान लिया था।
सच्चाई से मुख मोड़ा था,
दुख की गठरी बाँध लिया था,
थोड़ा-थोड़ा सुख जो पाया,
कोई उसको छीन रहा था।
तिनका-तिनका दुख में मेरे
जैसे सब कुछ भूल रहा था।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक