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जाने कितने वर्षों से वह बरगद का वृक्ष उस चौपड पर खड़ा अतीत की न जाने कितनी घटनाओं का साक्षी था, न जाने कितने जीव-जंतुओं, पथिकों की शरणस्थली था। आज उदासी से घिरा था, वर्तमान परिवेश में उसे अपने ऊपर आने वाले संकट का एहसास था, लोगों की बदली हुई मानसिकता ने उसे हिला दिया था ! सोच रहा था, क्या समय आया है जिससे स्वतंत्रता व ऐशोआराम में बाधा पडे, उसे रास्ते से हटा दो, चाहे वे हरे-भरे वृक्ष हों या फिर बूढ़े मां-बाप ! ऐसा ही हुआ था दिनेश जी के साथ।
बेचारे दिनेश जी जब गांव से शहर आए थे तो कुछ नहीं था उनके पास, बड़ी मेहनत की। बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए उन्होंने खुद को कर्म की भट्ठी में झोंक दिया था। उनकी पत्नी बच्चों के पालन-पोषण में व्यस्त थीं। एक-एक सुविधा का ध्यान रखा। दो बेटे और दो बेटी थे उनके। अपना जीवन तो उन्होंने जिया ही नहीं। बस बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, सुख-सुविधाओं के लिए कार्य करते रहे और यही सोचते रहे कि जब ये लोग अच्छी नौकरी कर लेंगे तो फिर वे आराम करेंगे। लोन लेकर घर बनाया। बेटियों का अच्छे परिवार में विवाह किया। दोनों बेटियां सरकारी स्कूल में शिक्षिका बन गई थी और दोनों बेटे गजटेड आफिसर!उनकी शादियां भी अच्छे परिवार में हो गयी थी। दोनों बहुएं भी नौकरीपेशा थी। सब अच्छा चल रहा था। पर कबाड़ किसे अच्छा लगता है !
दिनेश जी और उनकी पत्नी का यूं खाली बैठना परिवार में खटकने लगा था। अब दोनों ही बुजुर्ग हो चुके थे। पूरी तरह से डिपेंडेंट हो गए थे। तबियत भी नासाज रहती थी।
उनकी देखभाल कौन करे ? इस बात पर घर में महाभारत मची रहती। कौन उनके लिए घर पर रूके ? नौकरों पर भरोसा नहीं कर सकते थे, घूमना-फिरना, पार्टी में जाना सब कुछ बाधित हो रहा था। दोनों बेटे भी पत्नियों की चिक-चिक से तंग आ चुके थे। बड़े बेटे का एक दोस्त विदेश में रहता था। वह आया हुआ था। बात चली तो माता-पिता की बातें भी हुईं। उसने कहा -भई मैंने तो अपने माता-पिता को आश्रम में छोड़ रखा है। सालाना पैसा भर देता हूं। वहां उनकी अच्छी सार-संभाल होती है।बीमार होने पर इलाज भी हो जाता है। साल में एक बार आ पाता हूं, तब मिल लेता हूं। वहां उन लोगों को हम उम्र लोगों की कंपनी भी मिल जाती है। सब सैटल है अपना। कोई टेंशन नहीं।
दोनों बहुएं बड़े गौर से सुन रही थी। तुरंत बोली-कहां है ये आश्रम। हम भी बात कर लेते हैं। मां-बाबूजी की वहां अच्छे से देखभाल होगी। जो पैसा लगेगा हम दोनों दे देंगे। अरे भाभी!ऐसे भी आश्रम हैं, जहां पैसा नहीं देना पड़ता। आप लोग तो यहीं हो, मिल लिया करना उनसे।
भाई तू क्या कहता है ? बड़े ने छोटे से पूछा। मैं क्या जानूं अब उनके लिए मैं तो छुट्टी लेकर नहीं बैठ सकता।
दिनेश जी और उनकी पत्नी अपने कमरे में बैठे यह वार्तालाप सुन रहे थे। आंखों से अश्रुधारा बह रही थी। कलेजे के टुकड़ों ने कलेजा ही टूक-टूक कर दिया था।
मां ने बिटिया को फोन घुमाया और ये बातें बताई तो वो भी छूटते ही बोली-गलत क्या है इसमें मां, आप लोग घर में बोर हो जाते होंगे, वहां जाओ, हम उम्र लोगों के साथ रहो। मेरी सासू तो अपनी मर्जी से चली गई। ये कहते हुए उसने फोन रख दिया। अब किससे कहें और क्या कहें ?
चलो वे हमें निकाले, उससे पहले हम ही चले जाते हैं। लंबी सांस भरके दिनेश जी ने पत्नी को सामान समेटने का आदेश दिया।
सुबह घर में सन्नाटा था। दूध ऐसे ही पड़ा था। अखबार भी नहीं उठाया गया था। चाय भी नहीं बनी थी। बड़ी बहू का पारा सातवें आसमान पर पहुंचा हुआ था, बड़बड़ाते हुए -ये क्या मांजी आपने न दूध उठाया, न चाय बनाई। ये काम तो आपका था न, फिर भी, ऐसे कैसे चलेगा ?
कमरे में पहुंची तो देखा कमरा तो खाली था। अब ये कहां गए ? अरे सुनते हो, ये तुम्हारे मां-बाप नहीं है कमरे में।
सब भागकर आए, कमरा देखा एक मुड़ा-तुड़ा कागज रखा था। हम जा रहें हैं, कहां नहीं पता, पर ढूंढने की कोशिश न करना।
सब एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे। चलो अच्छा हुआ बला टल गई। नहीं तो कैसे कहते उनसे ?
चलो भई, अब तो नौकरानी भी ढूंढनी पड़ेगी। काम कौन करेगा ? सब अपने में व्यस्त हो चुके। बर्ष़ो से लगा बरगद उखड़ चुका था, अब उसकी छांव बेमानी हो गई थी।
मैं यह सब देखकर जड़वत हो गई थी और सोचने लगी कि क्या वास्तव में हम राम-कृष्ण व श्रवण के देश में रहते हैं ? क्या यही हमारे नैतिक मूल्य हैं ? ये कैसे संस्कार हैं, जो वृद्ध माता-पिता को दर - दर भटकने के लिए छोड़ देते हैं या वृद्धाश्रम जाने को मजबूर कर देते हैं। कहां गई हमारी मानवता जो ईश्वर तुल्य माता-पिता पर हाथ उठाने में भी किसी को शर्म नहीं आती ! माना वैचारिक मतभेद बढ़ रहे हैं संबंधों में तल्खियां बढ़ रही हैं तो इसका क्या यही समाधान है ?
आज जब कहीं ऐसा होते देखती हूं तो मन खून के आंसू रोता है। ये दरख्त या बूढे मां-बाप हमें सदा छांव देते आए हैं, सबके नसीब में यह सुख नहीं होता, छांव का महत्व रेगिस्तान में भटकने वालों से पूछो, किसी अनाथ से पूछो
इतने स्वार्थी न बनो क्योंकि इतिहास अपनेआप को दोहराता है, हम जैसा बोते हैं, वैसा ही काटते हैं इसलिए दरख्तों को आंगन में रहने दो। इनकी छांव बड़ी अनमोल है।