तुम कभी कुछ नहीं कर सकते,क्या किया है आज तक !
तुम्हारे बच्चों के खर्चे भी हम उठाएं...क्या सुख दिए है,
अपने बूढ़े मां-बाप को..!छोटे को देखो...सीखो उससे
कुछ..?
ठाकुर साहब अपने बेटे पर बेतहाशा चिल्ला रहे थे।ये उनकी
आदत में शुमार था...जब भी उनका बड़ा बेटा घर में घुसता
उनकी चिल्ल-पों चालू हो जाती...जितना बेइज्जत कर सकते,करते... बेचारे की भूख-प्यास सब मर जाती।दो
बच्चों का बाप रतन बहुत ही सीधा-साधा था...एक निजी
स्कूल में शिक्षक था.. जितना बन पड़ता करता था परिवार
के लिए ... लेकिन ठाकुर साहब ... उन्हें तो बेटे को बड़े
सरकारी अफसर के रूप में देखना था...अपनी इसी चाह
के पूरा न होने की खुन्नस वे बेटे पर निकालते।
गजब की सहनशक्ति थी रतन में...पिता को कभी पलटकर
जबाव नहीं दिया... लेकिन अपने बच्चों के सामने पिता की
डांट खाना उसके लिए मुश्किल हो रहा था...घर में और भी
लोग थे...सब हंसते...रतन की मां ..रतन को कई बार कह
चुकी थी...बेटा!तुम किराए का मकान ले लो.. परिवार के
साथ वहां रहने लगो... तुम्हारे बाप को समझाना मेरे बस
में नहीं.... जितनी मदद होगी मैं चुपचाप कर दूंगी...बस
तुम चैन से रहो। रतन तैयार था लेकिन...?
जब वह अपनी पत्नी से कहता तो वह कहती...हम क्यों
अलग रहें..?...इस घर को क्यों छोड़ दें....तुम ज्यादा
कमाने की कोशिश करो .... मैं तो ये घर छोड़ कर नहीं
जाने वाली... पापाजी का क्या है...वो तो बोलते रहते हैं।
बेचारा रतन..! त्रिकोण में उलझा हुआ जीवन में सुकून
के पल ढूंढ़ता रहता..घर की किचकिच ने उसके दिमाग
को प्रभावित करना शुरू कर दिया....इस किचकिच से
बचने के लिए उसने ट्यूशन लेना शुरू कर दिया...पर
घर तो जाना ही होता था...घर में मां के अलावा कोई
उसे अपना हमदर्द न दिखाई देता...पत्नी बच्चों में और
घर के काम इतनी उलझी रहती कि दो घड़ी पास बैठना
तो दूर...कोई बात भी ध्यान से न सुनती।
भरे-पूरे परिवार में अकेलेपन के अहसास ने रतन को
अंदर ही अंदर खाना शुरू कर दिया...अपने कमरे में
बंद रहना...गुस्से में खाना न खाना..उसका स्वभाव
बन गया..वह सबसे कटा-कटा रहने लगा... उसके
इस बदलाव पर सबकी प्रतिक्रिया और नकारात्मक
हो गई...इसी बीच वह बीमार पड़ा...शरीर से कमजोर
स्नेह के लिए तड़पता रतन.. अवसाद से ग्रस्त हो गया।
उसे देख कर बड़ा दुख होता था...लंबी कद-काठी का
हृष्ट-पुष्ट..लड़का कंकाल सम दिखने लगा था..सबकी
मदद को खड़ा रहने वाला.. अंधेरे की दुनिया में खोता
जा रहा था... परिवार उसकी मनोदशा को समझने के
स्थान पर उसकी हालत का जिम्मेदार उसे ही ठहरा
रहा था...हताशा पूरी तरह से हावी हो रही थी। मैं उसे
भाई से भी बढ़कर मानती थी...जब भी वह दुखी होता,
मेरे पास आकर अपना दुख हल्का कर लेता... मैंने उसे
बहुत समझाया...कि अपनी सेहत का ध्यान रखो ..
मन पर किसी बात को हावी न होने दो... लेकिन एक
ही बात वह मुझसे कहता...मुझे ही क्यों..दी !छोटे की
कितनी गलतियां पापा माफ़ करते हैं... उससे एक शब्द
नहीं कहते..मुझसे ही क्यों...और किसके लिए...उसे
तो मेरी पड़ी ही नहीं है.. बच्चों में मगन रहती है रात-दिन,
या पापाजी जो कहें ..वह करती है...दी! किसके लिए..,
ठीक रहूं?
खुद के लिए भाई! जिंदगी तुम्हारी है ...उसे बर्बाद मत
करो.. बार-बार नहीं मिलती ये जिंदगी!!
पर उस पर कोई असर नहीं हुआ...एक दिन मैंने आंटीजी
को समझाया..उसकी हालत के बारे...अंकल से भी बात
की...थोड़े दिन दिन सब ठीक रहा.... लेकिन आदतें कहां
बदलती हैं...और आज ..... मैं ये क्या सुन रहीं हूं..!!
कानों पर विश्वास नहीं हो रहा....रतन अब इस दुनिया में
नहीं ...क्यों...? कैसे...? आंखों से अविरल अश्रुधारा बह
रही है...क्या हुआ होगा...? मैं एक महीने से शहर से बाहर
थी...ओह!रतन... अब कौन दी कहेगा.…..तुमने तो मुझे
बड़ी बहन का पूरा सम्मान दिया था....ये उम्र तो नहीं थी
तुम्हारे जाने की... आखिर क्यों????
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक
(सत्य घटना पर आधारित)