टूटा कुनबा देख के, मुखिया हुआ निराश।
तिनके जैसा उड़ गया,जीवन से विश्वास।
जीवन से विश्वास,प्रेम जब उसका हारा।
जीत गया है स्वार्थ,कहाँ अब रहा सहारा।
कहती 'अभि' निज बात,पटाखा जैसे फूटा।
उड़ी घृणा की धुंध,और फिर कुनबा टूटा।
प्यारी पीहर की लगे ,मुझको सारी बात।
पक्षी जैसी मैं उड़ी, छूटे भगिनी-भ्रात।
छूटे भगिनी-भ्रात,तात तरुवर सी छाया।
छूटी आँचल-छाँव,दिवस ये कैसा आया।
कहती'अभि'निज बात,विरह में जाती मारी।
बसी दूसरे देश, पिता माता की प्यारी।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक