जीवन ईश्वर की दी अनुपम कृति है और मनुष्य मन, वाणी और कर्म की एकरूपता रखने के कारण इस सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी।
इस सृष्टि में मन और वाणी की विशेषता और उसे कर्म में ढालने की शक्ति सिर्फ मनुष्य को ही प्राप्त हुई है।संसार में आदर्श माने जाने वाले महान व्यक्तियों का व्यक्तित्व इसी विशेषता के कारण महान बन सका। भगवान बुद्ध,महावीर,महात्मा गांधी,वल्लभ भाई पटेल,
लालबहादुर शास्त्री, भगतसिंह ,ऐसे ही जाने कितने लोग हैं,जिनकी अपनी विचारधारा थी ,वे जो सोचते थे,वही अपनी वाणी से उद्धृत करते और उसे कर्म रूप में साकार करके समाज के लिए आदर्श उपस्थित करते थे।
कथनी-करनी का अंतर रखने वाले मनुष्य न तो किसी का आदर्श बनते हैं और न ही समाज को कोई दिशा दे पाते हैं।मतिभ्रम और मतभेद उत्पन्न करने में इनका कोई सानी नहीं।आज
दुर्भाग्य से हमारे देश में उच्च पदों पर ऐसे ही लोग आसीन हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों के पतन का कारण भी यही है।सच्चा मनुष्य सदैव मन-वाणी-कर्म का समन्वय बनाकर चलता है।यह मानवीय आचरण का एक विशिष्ट अंग है।भक्त शिरोमणि तुलसीदास ने भी कहा है-"पर उपदेश कुशल बहुतेरे"
उपदेश देकर कुशलता की कामना करने वाले लोग बहुत होते हैं।पर किसी के भले के लिए कार्य करने वाले समाज में ढूंढने से भी नहीं मिलते।संत कबीर की तरह-
सुखिया सब संसार है,खाए और सोए
दुखिया दास कबीर है,जागे और रोए।
दूसरों के दुख देखकर करुणा विगलित होने वाली पुण्यात्मा अब कहां है।जब तक मन-वाणी-कर्म में एकरुपता नहीं होगी, सफलता हमसे कोसों दूर रहेगी।थोथे गाल बजाने या ढोल पीटने वाले आचरण पतित व्यक्ति समाज को पतन की ओर ले जाते हैं।
महाभारत के युद्ध में परिजनों को समक्ष देख अर्जुन विचलित हो उठे।उनका मन यह मानने को तैयार ही नहीं था कि मुझे अपने ही गुरुजनों और परिजनों से युद्ध लड़ना है।उनका भय उनकी कायरता का कारण बना तब कर्म योगी कृष्ण ने उन्हें मन-वाणी-कर्म में सामंजस्य स्थापित करने का संदेश दिया। संपूर्ण गीता का सार यही है, मनुष्य निमित्त मात्र है, ईश्वर ने उसे मन-बुद्धि-कर्म से श्रृंगारित कर धरती पर इसलिए भेजा है ताकि वह ईश्वर के सौंपे दायित्व पूरे कर सके। कामायनी में मन मनु का,हृदय श्रद्धा का और बुद्धि इड़ा का प्रतीक है।मन के दोनों पक्ष हृदय और बुद्धि का
सुंदर समन्वय ही लोक कल्याण के सार्वभौमिक सत्य का निमित्त बनता है।
इस बात को स्पष्ट करने के लिए मैं एक उदाहरण जो मेरे ही जीवन से संबंधित है ,बताती हूँ,दरअसल मेरा विवाह जल्दी होने के कारण मेरी शिक्षा अधूरी रह गई और मैं कोई डिग्री नहीं ले पाई।मेरे मन में विवाह के बाद इस बात को लेकर द्वंद्व मचा रहता। हमारे यहां एक ज्योतिषी आते थे ,मैंने एक दिन उन्हें अपना हाथ दिखाया तो वो बोले कि तुम्हारे हाथ में शिक्षा की लकीर ही नहीं है।मन विचलित हो गया।विवाह के आठ साल बाद एक दिन मेरे पति ने मेरे चाव को देखते हुए आगे पढ़ने का प्रस्ताव रखा।मुंह मांगी मुराद पूरी हो रही थी,पर समस्या यहाँ भी थी।बारह-तेरह जनों के परिवार और दो छोटे बच्चों के साथ यह कार्य एवरेस्ट पर चढ़ने जैसा था।लेकिन जब आगे बढ़ना था तो डरना क्या??सारा काम निपटा कर जो भी आराम का समय मिलता वो पढ़ाई में लगा दिया और एम.फिल में यूनिवर्सिटी टाॅपर रही।कई सालों बाद फिर ज्योतिषी को हाथ दिखाया,वही बात उन्होंने दोहराई तो मैंने सच बताया कि मेरे पास तीन-तीन डिग्री है। उन्होंने कहा तुमने सोचा और करके दिखाया और अपनी शिक्षा पूरी की। लेकिन मेरी बात भी सच है।
यह जीवन का सत्य है।मात्र ख्याली पुलाव पकाने या हवाई किले बनाने से जीवन में सफलता नहीं आती ,सफलता के लिए संघर्ष करना पड़ता है। मुझे कवि सोहनलाल द्विवेदी की पंक्तियां याद आ रहीं हैं-
कल्पना में आज तक उड़ते रहे तुम।
साधना से मुड़कर सिहरते रहे तुम।।
अब तुम्हें आकाश में उड़ने न दूँगा।
आज धरती पर बसाने आ रहा हूँ।।
मन में विचार करना या सपने देखना बुरा नहीं है क्योंकि ये हमें आगे बढ़ने का मार्ग दिखाते हैं।इन सपनों को बोलकर पूरा नहीं किया जा सकता ,उसके लिए कर्म पथ पर चलने की आवश्यकता है। महामहिम ए पी जे अब्दुल कलाम ने भी कहा है-"हर व्यक्ति को महान सपने देखने चाहिए और उन सपनों को पूरा करने का प्रयास भी अवश्य करना चाहिए ।ये सपने जीवन को सही राह दिखाते हैं।"उनका स्वयं का व्यक्तित्व भी मनसा वाचा कर्मणा का प्रतिबिंब है।अत्यंत गरीब परिवार में जन्मे कलाम अपने सपनों और कर्मों के कारण ही 'मिसाइल मैन' कहलाए।यहां तक कि अपने व्यक्तित्व के कारण भारत के राष्ट्रपति बने ।उनकी कथनी और करनी में सदैव समानता रही।हमारी संस्कृति में मन- वचन -कर्म को सदैव सर्वोपरि माना गया है। रामचरितमानस में-"रघुकुल रीत सदा चलि आई।प्राण जाए पर वचन न जाई।" यह रीत सिर्फ रघुकुल की नहीं बल्कि संपूर्ण मानव समाज की होनी चाहिए पर वर्तमान में ऐसा कहाँ दिखता है। बड़ी-बड़ी बातें करने वाले लोग कर्म से मुँह चुराते देखें जाते हैं।अंत में मेरी छोटी सी एक कविता-
बोलता है आज मन
एक लिख दूं नव कहानी
सो गई जो नींद लंबी
वो नहीं होती जवानी।
पत्थरों को तोड़ती
बहती नदी रुकती नहीं है
ये हवा देती उड़ा सब
देख लेकिन थमती नहीं है
लीक से हट कर चले जो
है अमर उनकी ही वाणी।।
खाई खंदक हो भले ही
हों गगन के दूर तारे
फूल पथ में न बिछे हों
शूल के दिखते नजारे
सोच में बसती है मंजिल
मुश्किलें भी भरती पानी।।
हाथ में सूरज लिए जो
रोज उसका ताप सहते
सोचते करते वही वे
बोल उनके जो भी कहते
घाव तन पर झेलते पर
कौन उनका होता सानी।
अभिलाषा चौहान
स्वरचित मौलिक