(होम्योपैथिक के चमत्कार भाग-2)
अध्याय -2
होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति
से मिलती जुलती विभिन्न चिकित्सा पद्धतियॉ
होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति से मिलती जुलती बहुत सी चिकित्सा पद्धतियॉ
प्रचलन में है उनमें से कुछ चिकित्सा पद्धतियों की जानकारी यहॉ पर हम देने का
प्रयास कर रहे है ।
1- बायोकेमिक चिकित्सा
जीते तो सभी है परन्तु अपने अन्दाज में जीने का सौभाग्य बहुत ही कम लोगों को
मिल पाता है । जिसने जीवन के रहस्यों को जान लिया कि मृत्यु अवश्यम्भावी है । जिसे
कोई नही टाल सका , वही इन्सान अपनी जिन्दगी में
कुछ ऐसा कर गुजरता है कि लोग उसे युगों युगों तक याद करते है । जब कभी हम अपनी
जिन्दगी का विश्लेषण करते है तब हमें बडा दु:ख होता है कि हमने अपना कितना बहुमूल्य
समय व्यर्थ ही गवा दिया । हमने अपने लिये या समाज के लिये क्या किया क्या हमारा
अपना कोई ऐसा निर्माण या रचना है जो हमारे बाद भी याद रखी जायेगी , जिससे लोगों का भला होगा, क्या हमारा कार्य आने वाला पीढी का आदर्श बन सकेगी ।
सन 1821 ई0 को डॉ0 विलहैम हैनीरिच शुसलर का
जन्म इसी वर्ष 21 अगस्त को ओल्डन वर्ग जर्मनी में हुआ था । आपका बचपन भी अन्य महापुरूषों की
तरह सधर्ष एंव आर्थिक परेशानियों से गुजरा । इस महत्वाकांक्षी होनहार युवक की
अभिलाषा एक होम्योपैथिक चिकित्सक बनने की थी । उस जमाने में होम्योपैथिक की पढाई
अलग से नही हुआ करती थी । इसलिये आपने ऐलोपैथिक चिकित्सा का अध्ययन किया बाद में अपनी जन्मभूमि वापिस आकर 1857 मे आपने 36 वर्ष की आयु में होम्योपैथिक चिकित्सा प्रारम्भ कर दी । होम्योपैथिक के
आविष्कारक डॉ0 हैनिमैन ने सर्वप्रथम
पार्थिव लवण पोटैशियम सोडा लाईम एंव सिलिका का परिक्षण किया और सदृष्य चिकित्सा होम्योपैथि में उसका प्रयोग किया था । उन्होने ही सर्वप्रथम बायोकेमिक
चिकित्सा का रास्ता प्रशस्त किया ,
बाद में डॉ0 स्टाफ ने भी इस बात
का समर्थन किया और कहॉ कि रोग को दूर करने के लिये
मनुष्य शरीर के सभी उत्पादन जिनमें नमक (तन्तु प्रमुख है एंव
आवश्यक है ।
डॉ0 शुसलर ने ही हैनिमैन के बतलाये सिद्धान्तों पर चल कर बायोकेमिक चिकित्सा
प्रणाली का वैज्ञानिक ढंग से
विश्लेषण किया ।
अतः बायोकेमिक चिकित्सा के आविष्कार का श्रेय डॉ0 शुसलर सहाब को जाता है । उन्होने देखा कि कई ऐसे
रोगी जो निरोग नही हो रहे थे ,
उन्होने प्राकृतिक पदार्थ देकर देखा उक्त सिद्धान्तों एंव विचारों के आधार पर
उन्होने मानव के रक्त , हडडी , थूक ,राख इत्यादि का विश्लेषण कार्य प्रारम्भ किया और वे
इस निष्कर्ष पर पहुचे कि मानव शरीर में प्रवाहित होने वाले रक्त में दो पदार्थ पाये जाते है ।
1- आगैनिक (कार्बनिक
2- इनागैनिक (अकार्बनिक
इनमें से किसी भी पदार्थ की कमी हो जाने से
मानव शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है एंवम इनकी पूर्ति कर देने से शरीर निरोग व
स्वस्थ्य हो जाता है ।
सन 1832-1844 के आर्चिव्ह जनरल में निकला , मानव शरीर के विभिन्न अंग जिन आवश्यक पदार्थो से बने है वे पदार्थ स्वय बडी
औषधियॉ है । डा0 कान्सरेन्टाइन
हेरिंग ने भी एक लेख लिखा था मानव शरीर की रचना में पाये जाने वाले पदार्थ उन
अंगों पर अपनी विशेष क्रिया प्रगट करते है । जहॉ वे पाये जाते है व कार्य करते है इसके कारण पैदा होने वाले लक्षणों पर यह
पदार्थ। अपना अपना कार्य पूर्ण रूप से
करते है । डॉ0 शुसलर सहाब ने इन्ही
सिद्धन्तों का गंभीरता से अध्ययन किया ।
मानव शरीर में ग्यारह प्राकृतिक क्षार (मिनरल
साल्टस तथा 12 वा
क्षार सिलिका है । इसका सिद्धान्त इस प्रकार है - मानव शरीर में 70 प्रतिशत पानी
25 प्रतिशत कार्वनिक पदार्थ एंव 5 प्रतिशत खनिज पदार्थ एंव अकार्वनिक पदार्थ है ।
यह खनिज क्षार सख्या में बारह है जो शरीर के कोषों का निर्माण करते है । इन
क्षारों में से किसी भी क्षार की कमी हो जाने से बीमारीयॉ उत्पन्न होती है । एंव उस क्षार की पूर्ति कर देने से वह निरोगी हो जाता है ।
सन 1873 ईस्वी में जर्मनी के पत्र के अंक में अपनी इस चिकित्सा पद्धति पर
एक लेख लिखा उन्होने इस बात को स्वयम स्वीकार किया कि बायोकेमिक चिकित्सा प्रणाली
में प्रयुक्त होने वाली कुछ औषधियों के लक्षण होम्योपैथिक सिद्धान्तों के अनुसार अपनाये जाते है । बायोकेमिक औषधियॉ बनाने व शक्ति परिर्वतन करने की समस्त विधियॉ होम्योपैथिक विधि पर आधारित है । परन्तु प्रयोग
में लाये जाने वाले सिद्धान्तों में कुछ भिन्नता होने के कारण डॉ0 शुसलर इसे होम्योपैथिक से अलग चिकित्सा मानते है ।
आपने इस चिकित्सा प्रणाली का नाम जीव रसायन
रखा । बायोकेमिस्ट्री शब्द ग्रीक भाषा के
बायोस तथा केमिस्ट्री इन दो शब्दों से मिल कर बना है । बायोस का अर्थात जीवन तथा केमिस्ट्री का अर्थ रसायन शास्त्र अर्थात
हम इसे जीवन का रसायन शास्त्र कह सकते है । आपने अपनी चिकित्सा प्रणाली को पूर्ण
बनाने के लिये अथक परिश्रम किया । आज बायोकेमिक चिकित्सा पद्धति को होम्योपैथिक
चिकित्सा के साथ सम्मलित कर लिया गया है ।
केवल उपयोंग में लाने के सिद्धान्तों में भिन्नता है ।
डॉ0
शुसलर ने 12 तन्तु औषधियों का आविष्कार किया यह दबा न तो विषैली है न ही इसका
हानिकारक प्रभाव है, इन औषधियों को आपस में मिला
कर भी दिया जा सकता है ।
शरीर में किस शाल्ट की कमी है,
यह औषधियों के लक्षणों द्वारा आसानी से समक्षा जा सकता है । शरीर में जिस औषधिय की
कमी होती है वह औषधिय अन्य औषधियों की अपेक्षा मीठी व जीभ में रखने पर जल्दी धुल
जाती है । उसी तत्व की पूर्ति कर देने से रोगी स्वस्थ्य हो जाता है । शारीर में
जिस दवा की आवश्यकता नही होती वह देर से घुलती है एंव कडवी लगती है ।
बायोकेमिक दवायें होम्योपैथिक दबाओं की ही तरह दशमिक अथवा शतमिक क्रम के विचूर्ण अथवा द्रव रूप
में तैयार की जाती है ।
औषधि की एक मात्र को नौ गुना शुगर आफ मिल्क के साथ कम से कम दो घन्टे तक
खरल करने से 1-एक्स शक्ति की दबा तैयार होती है । इसके
एक भाग में पुन: नौ भाग शुगर आफ मिल्क के साथ मिलाकर विचूर्ण करने से 2-एक्स शक्ति की दवा तैयार होती है । पुन: इसके एक भाग में नौ भाग शुगर आफ मिल्क मिला कर
खरल करने से जो आगे का क्रम तैयार होता है उसे 3-एक्स पोटेंसी कहते है । इसी
प्रकार आगे की पोटेंसी बनाई जा सकती है । बायोकेमिक की बारह दवाये निम्नानुसार है
। इन दवाओं के रोग लक्षणानुसार अकेली या आपस में मिला कर भी दी जा सकती है । रोग
स्थितियों के अनुसार इसके कॉम्बीनेशन उपलब्ध है ।
बायोकेमिक की बारह दवाओं में पॉच-फॉस्फेटस,
तीन-सल्फेट, दो-म्यूरेटस, तथा एक- फ्लोराइड, एंव एक-सिलिका अर्थात साइलिशिया है
।
1-कैल्केरिया
फ्लोरिका :- शरीर में गांठों का बनना, हड्डीयों का बढना,जहॉ कही
भी शरीर में गांठे बनती हो जो सख्त हो जाती हो ,चाहे वह मॉस पेशियों में हो, ऑख
पर मोतियॉ बन्द, गांठो के बनने पर व उसकी प्रवृति के रोगों पर प्रभावकारी होने से
टयूमर, मोतियाबिन्द, टांसिल ,हड्डीयों के बढ जाने ,सडने गलने आदि पर इसका प्रयोग
होता है । यह सर्द प्रकृति के रोगियो की दवा है ।
2- कैल्केरिया फॉस्फोरिकम:- यह कैल्केरिया तथा फॉसपोरस को मिश्रण से निर्मित लवण है , कैल्कैरिया फॉस
की कमी हो जाने पर शरीर में नये सैल्स का निर्माण नही होता, कैल्कैरिया फॉस का
कार्य है शरीर में नये सैल्स का निर्माण करना है । कैल्सियम एंव फॉस्फोरस की कमी की वहज से
शारीरिक एंव मानसिक विकाश के रूक जाने पर , दोषपूर्ण शारीरिक व मानसिक विकाश ,
दॉतों का समय पर न निकलना, बच्चा पतला दुबला जिसके छाती की हड्डीयॉ स्पष्ट
दिखलाई देती है ।
3- कैल्केरिया सल्फ्युरिकम:- कैल्केरिया
सल्फ का मुंख्य कार्य पकने व पीव जमने पर होता है शरीर के किसी भी स्थान में पस
बनने पर , घॉवों के पस फारमेशन की वजह से धॉवों का समय पर न भरना आदि में इसका
उपयोग होता है यह गर्म प्रकृति के रोगीयों की दवा है ।
4-फैरम फॉस्फोरिकम :-फैरम फॉस में फैरम
अर्थात लोहा है इसका कार्य आक्सीजन को शुद्ध हवा से खीचना है । हमारे शरीर के रक्त
कणों में मौजूंद फैरम (लोहा) शुद्ध हवा से आक्सीजन को खींच लेता है ,फैरम की कमी
से शरीर में आक्सीजन की कमी से जो रोग होते है उनमें यह दवा कार्य करती है जैसे
आक्सीजनकी कमी से रक्त प्रणाली ढीली पड जाती है ,रक्त संचय होने लगता है जिकी
वजह से सूजन शोथ होने लगता है ,सफेद तरल पदार्थ रिसने लगते है इस लिये इसका उपयोग शोथ, सूजन, ज्वर,दस्तों की प्रथम अवस्था
में प्रयोग करते है , यह रक्त की कमी एंव रक्त स्त्रावों में भी उपयोगी है ।
5-कैली म्यूरियेटिकम:-यदि शरीर में इस लवण की कमी हो जाये रूधिर में जमने वाले नाईट्रोजन युक्त
फाईब्रिन बाहर निकलने लगते है जो नॉक ,मुंह ,कान ,जीभ आदि से बाहर निकलने लगते है,
जो थूंक या पस के रूप में दिखलाई देते है । यह दवा कॉन के रोगों में उपयोगी है । प्रकृति सर्द है ।
6-कैली फॉस्फोरिकम:- डॉ0
शुस्लर का कथन है कि यह मस्तिष्क के सैल्स का घटक है इसकी कमी से मस्तिष्क सम्बन्धित
रोग उत्पन्न्ा हो जाते है इसकी कमी से ज्ञान तन्तुओं में निर्बलता आ जाती है
जिसकी वजह से रोगी में निराशा भाव आ जाता है ,रोगी चिन्ताग्रस्त ,भयग्रस्त ,तथा
उसे नीद नही आती ,स्मृति शक्ति कमजोर हो जाती है रोगी शीत प्रधान होता है ,रोगी
स्नायु प्रधान होता है छोटी छोटी बातों से परेशान हो जाता है , उसके समस्त रोग
ठंड से बढते है ।
7-कैली सल्फ्युरिकम :- इसकी कमी से शरीर
में आक्सीजन की सप्लाई उचित ढंग से नही होती ,ऑक्सीजन को शरीर के समस्त सैल्स
तक भेजने का कार्य कैली सल्फ्यूरिकम का है । इसकी कमी से शरीर में ऑक्सीजन की
पूर्ति उचित ढग से नही होगी जैसे कि फैरम फॉस का कार्य शुद्ध हवा से ऑक्सीजन को
खींचने का है ,परन्तु उसे यथास्थानों तक पहुंचाने का कार्य कैली सल्फ्युरिकम का
है । ऑक्सीजन का शरीर में समान रूप से वितरण न होने पर जो रोग होते है वह उत्पनन
हो जाते है ,रोगी का दम धुटने लगता है ,ऑक्सीजन की कमी से रोगी को भारीपन ,थकावट
,चक्कर आना ,चित्त उदास रहना ,चिन्ता तथा ऑक्सीजन जो शरीर के कोशिकाओं में दहन
हो कर गर्मी पैदा करती है यदि इसकी कमी हो जाती है तो रोगी को अत्याधिक ठंड लगती
है ,त्वचा के छिछडे निकलने लगते है तथा नये कोशिकाओं के निर्माण में बाधा उत्पन्न्
हो जाता है एंव पुराने सैल्स शरीर से बाहर नही निकल पाते । दवा गर्म प्रकृति के
अनुकूल है ।
8-मैग्नीशिया फॉस्फोरिकम:- इस लवण की कमी से नर्व तन जाते है एंव उत्तेजित हो जाते है जिसकी वजह से
नर्व में र्दद पैदा हो जाता है ,ठंड से र्दद बढता है एंव गर्मी से कम होता है ,स्नायुशूल
नर्व की उत्तेजना से पैदा होने वाले रोगों पर जैसे अकडन, र्दद , पेट र्दद, जबडे का अकड जाना आदि में इसका उपयोग किया जाता है ।
9-नेट्रम म्यूरियेटिकम :- इस साधरण नमक से बनाया जाता है । नमक की कमी से उत्पन्न्ा होने वाले रोगों
में नेट्रम म्यूर की शक्तिकृत दवा का उपयोग किया जाता है । यह लवण हमारे शरीर की
जैविक क्रिया में सहायक होते है यह जल को शरीर में शोषित करते है एंव शरीर में तथा
रक्त में पहुच कर आर्द्रता की मात्रा को बढाते है शरीर में कोशिकाओं की वृद्धि
एंव विभाजन में इनका योगदान होता है यदि हमारी कोशिकाओं में नमक की कमी हो जाये तो
जल जनित रक्ताल्पता उत्पन्न हो जाती है ,इसकी विश्रृखला से जल संचय होने लगता
है इससे अश्रुगन्थियों से ऑसू निकलने लगते है पनीला अतिसार , जब कभी शरीर से
सोडियम क्लोराईड या अन्य लवण रक्त से निकल गये हो तो शरीररिक तरत पदार्थ अस्वाभाविक
रूप से कार्य करने को बाध्य हो जाते है तब यही नेट्रम म्यूर ही शारीरिक तरल
पदार्थो को स्वाभाविक रूप में लौटा देती है । रोग धुंधली दृष्टी पढते समय
अक्षरों का आपस में जुड जाना ,पुष्टी कारक भोजन करने पर भी दुर्बल होते जाना ,
शरीर नीचे से सूखता है ,अत्याधिक भूंख लगने पर भी दुर्बलता ,लडकीयों में रक्त की
कमी ,शोक ,भय , क्रोध के दुष्परिणाम ,सूर्य उदय से सूर्य अस्त तक होने वाला सिर
र्दद आदि में इसका उपयोग होता है ।
10-नेट्रम
फॉस्फोरिकम:-हम जो भी खते है वह लैक्टिक ऐसिड में परिवर्तित हो
जाता है परन्तु यदि यही लैक्टिक ऐसिड हमारे पेट मे ही पडा रहे तो वहॉ ऐसिडिटी
पैदा करता है लैक्टिक ऐसिड को नेट्रम फॉस कार्बोनिक ऐसिड एंव पानी में विभक्त कर
देता है । इसकी कमी से खटटी डकारे आती है ,खट्टी कैय होती है , अम्ल की अधिकता के
कारण पीले दस्त होने लगते है ,पेट में र्दद होता है , इसके उपयोग से पेट के कीडे
बाहर निकल जाते है ,इसकी कमी से शरीर में यूरिक ऐसिड जमा होने लगता है इससे गठिया
, वात रोग की शिकायते होने लगती है । लिम्फैटिक ग्लैंडस में लैक्टिक ऐसिड जमा हो
कर एल्ब्युमिन को जमा कर देता है जिसका परिणाम यह होता है कि ग्लैन्ड में सूजन
आ जाती है । पुरानी बदहजमी, ऐसिडिटी, खट्टापन, खट्टी उल्टी,ऐसिडिटी के कारण सिर
र्दद आदि में
11-नेट्रम
सल्फ्यूरिकम:- नेट्रम सल्फ का काम सल्फ्यूरिक ऐसिड को तोडकर पानी
को खींच लना है परन्तु यह व्यर्थ पानी शरीर से निकलना चाहिये नेट्रम सल्फ की
कमी हो जाने पर यह व्यर्थ पानी शरीर में एकत्र होने लगता है इससे शरीर के सैल्स
(कोशिकाये) व फाईबर्स (तन्तु) में यह अव्यर्थ जल संचय होने लगता है ,इससे जिन
अंगों में यह संचय हो रहा है उनकी वृद्धी होने लगती है , जिगर बडा मालुम होता है
कोशिकाओं तन्तुओ के खाली स्थान में पानी भर जाने से उसके दबाब से जिगर के सैल्स
से पित अधिक निकलने लगता है इससे पीले रंग के दस्त होने लगते है जब इसकी कमी हो
जाती है तब दस्त का रंग सफेद होने लगता है तिल्ली में पानी जमा होने के कारण
सूजन आ जाती है । नेट्रम सल्फ अवाछनीय पानी को बाहर फेक देता है । शरीर में इसकी
कमी से जो गंदा पानी जमा होने लगाता है जिसकी वजह से जलोदर ,सिर में जल संचय
,अंडकोषों में जल संचय ,शरीर का फूलना आदि
में इसका उपयोग हितकर है
12-
साइलीशिया:- डॉ0 शुस्लर का कथन है कि शरीर के तन्तुओं की
रचना में साइलिशिया होता है अगर शरीर की कोशिकाओं में इसकी कमी हो जाये तो शरीर से
अव्यर्थ पदार्थो को बाहर निकालने की शक्ति कम हो जाती है । इसका कार्य शरीर से
विजातीय तत्वों को बाहर निकालने का हे । यूरिक ऐसिड के जमा होने से गठिया हो जाता
है यदि यह गुर्दे में जमा हो जाये तो गुर्दे में पथरी बन जाती है । रोग ऑखों से
एकाएक दिखना बन्द हो जाना , मोतियाबिन्द , इसके रोगी का शीरीर दुर्बल ठिगना होता
है । इसके बच्चों में अच्छा खाने पीने पर भी पोषण का अभाव के कारण पुष्ट नही
होता ,माथे से गर्दन तक बदबूदार पसीना , नीद में तकिया भींज जाती है ,गण्डमाला
तथा रिकेट दोष्ा, बच्चों में सूखे की बीमारी ,बच्चों की बढत रूक जाती है ,डरपोक
,अपनी योग्यता पर सन्देह परन्तु कार्य को हाथों में लेते ही उसका निर्वाह
कुशलतापूर्वक कर लेता है । दिमाकी कार्य करने वालों की मानसिक थकावट विद्यार्थीयों
की दिमाकी कमजोरी ,कुछ निश्चित विचारों का आना ,पॉवों से बदबूदार पसीना, धॉवों में
मवाद धीरे धीरे बनती रहने पर पस को शरीर से बाहर निकाल कर धॉवों को सूखा देना
,भगंदर ,कब्ज आदि में
लावर रेमेडिस
डॉ0
एडवर्ड बैच एक ऐलोपैथिक चिकित्सक थे बाद में उनका झुकाव
होम्योपैथिक चिकित्सा की तरफ आकृषित हुआ । होम्योपैथिक से मान्यता प्राप्त डिग्री प्राप्त कर होम्योपैथिक से चिकित्सा कार्य कार्य करने लगे । परन्तु उन्हाने अनुभव किया कि
होम्योपैथिक में सौकडों की सख्या में दवाये है एंव हजारों लक्षणों को
समक्षना और फिर उपचार करना एक समस्या है । हमारे प्राचीनतम आयुर्वेद चिकित्सा में
कहॉ गया है कि प्राणी जिस जगह पर
रहता है उसके आस पास ही उसके उपचार की औषधियॉ भी मौजूद होती है । आयुर्वेद का कहॉ यह वाक्य वास्तव में एक गुण ज्ञान है । डॉ0 बैच ने भी यही बात अनुभव की उन्होने अनुभव किया कि जीव जन्तु जिस मौसम जलवायु
व स्थान पर रहते है उनके उपचार की वनस्पतियॉ भी उन्ही स्थान जलवायु व मौसम में उपलब्ध होती है । उन्हाने देखा की विभिन्न
प्रकार की जलवायु व स्थान में पैदा होने के बाद वे अपने आप को कैसे सुरक्षित रखते
है । वे छैः वर्षो (1930.1936) तक जंगल में धुमते रहे एंव विभिन्न प्रकार के जंगली
पेड पौधे व पुष्प आदि का संगृह करते रहे । चूंकि वे स्वयं एक होम्योपैथिक चिकित्सक थे अतः लक्षण विधान चिकित्सा एंव औषधियों
के शक्तिकरण का उन्हे अच्छी तरह से ज्ञान था । उन्हाने विभिन्न प्रकार के पुष्पों
को एकत्र किया एंव उन पुष्पों से औषधियॉ बनाई । जो बैच फलावर रेमैडिज के नाम से प्रचलित हुई । वैसे तो बैच फलावर
रेमेडिस चिकित्सा न तो होम्योपैथिक चिकित्सा में अपनाई जाती है न ही इसे स्वतन्त्र
रूप से मान्यता प्राप्त है । परन्तु अपनी उपयोगिता की वजह से यह चिकित्सा अपना
अस्तित्व बनाये हुऐ है । इसकी उपयोगिता से प्रभावित हो कर कई होम्योपैथिक
चिकित्सकों व अन्य चिकित्सा पद्धति के चिकित्सकों ने इसे अपनाया यहॉ तक कि कई जनसामान्य व्यक्ति भी इसकी उपयोगिता से
प्रभावित हो कर इस चिकित्सा पद्धति से उपचार करने लगा । चूंकि यहॉ चिकित्सा पद्धति पूर्णतः
प्राकृतिक पर आधारित है एंव इसके उपयोग से किसी भी प्रकार के दुष्प्रभाव की अशंका
नही रहती । बैच फलावर रैमिडीज में मानसिक लक्षणों पर विशेष रूप से ध्यान देकर
औषधियों का निर्वाचन किया जाता है । इसमें कई एक से लक्षणों
की औषधियों को आपस में मिलाकर दिया जा सकता है ।
बैच फलावर रेमेडिस में कुल 38 दवाये है ।
जिन्हे आपस में मिलाकर भी दिया जा सकता है । बैच फलावर की दवाये तरल रूप में मिलती
है । जिन्हे होम्योपैथिक के ग्लूबिल्स में मिला कर या तरल औषधियों को आपस मे मिलाकर
भी दिया जाता है । इसमें होम्योपैथिक की तरह से पोटेन्सी ढूढने की आवश्यकता नही होती ।
डॉ0 बैच के सिद्धान्तानुसार प्राणी शरीर में कोई भी रोग क्यो न हो केवल उसके
मानसिक लक्षणों के आधार पर औषधियों का चयन कर बडी से बडी बीमारीयों का उपचार आसानी
से किया जा सकता है । गलत औषधियों के चुनाव से भी किसी प्रकार की हानि नही होती यह
इस चिकित्सा की सबसे अच्छी बात है । बैच फलावर रैमेडिज्र की पुस्तके व दवाये
होम्योपैथिक दवा विक्रताओं की दुकानों पर
आसानी से मिल जाती है । डॉ0
शुसलर द्वारा आविष्कृत बायोकेमिक चिकित्सा पद्धति को होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति
में सम्मलित कर लिया गया है । परन्तु बैच
फलावर रेमेडिज को अभी किसी भी मान्यता प्राप्त चिकित्सा के साथ सम्मलित नही किया गया, परन्तु इसका मतलब यह नही है कि यह
चिकित्सा प़द्धति शासकीय मान्यता के अभाव में अनउपयोगी है , विभिन्न चिकित्सा
पद्धतियॉ अपने जन्म से ही मान्यताये
लेकर पैदा नही हुई है , मान्यता हेतु विभिन्न प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों को काफी सर्धष के साथ अपनी उपयोगिता को सिद्ध करना
पडा जब जाकर कहीं उन्हे शासकीय मान्यताये प्राप्त हुई है । इसलिये मात्र मान्यता
प्राप्त न होने के कारण , हम इस जन उपयोगी चिकित्सा को नकार नही सकते । मान्यताये
भविष्य के गर्भ में विकसित होती रहती है एंव अपनी उपयोगिता को सिद्ध कर शासकीया
मान्यता प्राप्त करती है परन्तु शासकीय मान्यता तक का पडाव कितना कठिन होता है ,
यह तो चिकित्सा पद्धति के मान्यताओ के सघर्ष में लडने वाला ही समक्ष सकता है । उस चिकित्सक को क्या मालुम जिसने मान्यता
प्राप्त चिकित्सकीय डिग्री तो हासिल कर ली, परन्तु उसे स्वंय नही मालुम की वह जिस
चिकित्सा पद्धति की आज दुहाई देता है व डिग्री ली है, वह भी कभी अमान्यता प्राप्त थी, कहने का
अर्थ है कि कोई भी चिकित्सा पद्धतियॉ
अपने जन्म से ही मान्यताये लेकर पैदा नही हुई है ।
बच फ्लावर में कुल 38
दवाये है जिनके नाम और उनका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है ।
1-एग्रीमनी
:- इसे एग्रीमनी यूपेटोरिया भी कहते है । ऐसे लोग जो
कभी भी अपने दु:ख को किसी पर प्रगट नही करते । ऐसे लोग अपनी गंभीर से गंभीर पीडा
को हल्के रूप में लेते एंव किसी पर प्रगट नही करते । इसके रोगी का दिन तो अच्छी
तरह से बीत जाता है परन्तु राते कांटे नही कटती ।
2-हीदर :- इसे कैलुना बल्गरिस भी कहते है,यह अपना दुखडा हर व्यक्ति के सामने सदा रोते
रहता है और अपनी समस्याओं के बारे में बेकार की सलाह लेता रहता है ।
3-सैन्च्युरी
:- इसको सैन्च्युरियम अम्बिलेटम के नाम से भी जाना
जाता है,ऐसे व्यक्तियों की इच्छा शक्ति एकदम कमजोर होती है और ऐसे व्यक्ति सदा
दूसरो के कहने पर चलने वाले होते है ।
4-हार्नबीम:- इसका दूसरा नाम कारपीनस बेटुलस है,किसी भी काम को उठाते वक्त उनमें आत्म
विश्वास नही रहता कि वे काम को बखूबी कर पायेगा परन्तु एक बार काम को हाथ में
लेते ही उसे बखूबी कर लेता है । यह
शारीरिक एंव मानसिक अवसन्नता की दवा है ।
5-ओलिब:- यह दवा भी शारीरिक एंव मानसिक अवसाद व अवस्न्नता की दवा है । जिनको एकदम
विपरीत परिस्थितियों में काम करना पडता हो और उसके कारण शारीरिक व मानसिक थकावट आ
रही हो, किसी लम्बी बिमारी के बाद जब रोगी कमजारी व अवसननता से गुजर रहा हो तब भी
यह दवा उपयोगी है ।
6-
केरेटो :- इसको कैरेटोसटिग्मा बिल्मोटिना प्लम्बेगो के
नाम से भी जाना जाता है , आत्म विश्वास की कमी बेवकूफ , ऐसे व्यक्तियों जो
निर्णय करने में सक्छम होते हुऐ भी सदा दूसरों से सलाह लेते रहते है और गलत होने
पर भी दुसरो की बातों को सहजतापूर्वक मान लेते है ।
7-स्कैलरेन्थस
:-इसका व्यक्ति अनिश्चयी होता है वह हमेशा यह करू या
वह करू ,इसी विचारों में खोया रहता है , वह निर्णय करने में अक्क्षम होता है ।
कभी हॅसमुख तो कभी सहज रोने लग जाना कभी अत्याधिक क्रियाशील तो कभी घोर निष्क्रिय
होता है ।
8-बाइल्ड
ओट :- इसे बुड ग्रास भी कहा जाता है । यह दवा मन में उत्पन्न
अनिश्चय की स्थिति,नैराश्य भाव तथा असन्तोष को दूर करती है ऐसे व्यक्ति अपने
जीवन में बहुत कुछ करना चाहते है परन्तु कौन सा रास्ता चुने इसका निर्णय नही कर
पाते ,तथा उसे अपने कार्यो से कभी सन्तोष नही मिलता । यदि सुर्निवाचित दवा देने
पर भी रोग ठीक न हो और रोगी दुबला पतला है तो बाइल्डओट दवा दी जा सकती है ।
9-लर्क
:- इसको लेरिक्स डिसिडुआ भी कहते है । यह भी आत्म
विश्वास की कमी, असफल होने का डर तथा नैराश्य भाव की दवा है ,ऐसे व्यक्तियों
में जरा भी आत्म विश्वास नही होता ,इसलिये वे किसी कार्य को करने का प्रयास ही
नही करते । ऐसे व्यक्तियों में कुछ बनने
की तमन्ना ही नही होती ।
10-चेरी
प्लम :- इसका दूसरा नाम प्रुनस सिरेसिफेरा है । जीवन में
असफलता,किसी प्रिय की मुत्यु,व्यापार में हानि,आग लग जाना आदि के कारण उत्पन्न्ा
निराशा,स्नायुविक अवसन्नता ,मृत्यु की कामना करना ,बार बार मन में आत्म हत्या
,या आत्म घात का विचार आना , उसे ऐसा लगता है कि कही वह पागल न हो जाये ।
11-चेस्टनट
बड :- इसका दूसरा नाम एस्क्यूलस चेस्ट नट है । ऐसे व्यक्ति
अपनी गलतीयो व अनुभवों से कुछ सीख नही पाते, इसलिये पुन: उन्ही गलतीयों को करते
है, किसी भी अपराध ,गलतियों को कभी याद नही रखता तत्काल वही भुला देता है किसी भी
बात की गाठ बांधकर रखना इसके स्वाभाव में नही होता ।
12-हनी
सकली :- इसका दूसरा नाम लोनीसिरा केप्रिफोलियम है । इसके स्वाभाव
का व्यक्ति गुजरी बातों को आसानी से नही भूलता और उसके मन में उन घटनाओं का बोझ
सदा बना रहता है ।
13-क्लिमेटिस
:- इसका दूसरा नाम क्लिमैटिस विटलवा ट्रेवलर्स जाय है
। ऐसे व्यक्ति दिवा स्वप्नी होते है हवाई किले बनाने वाला होता है ,सदा अपने ही
विचारों में खोये रहते है इसलिये किसी बात पर ठीक से ध्यान केन्द्रित नही कर पाते
,कार्य करते करते इनका ध्यान दूसरी तरफ चला जाता है उनको फिर यह याद नही रहता कि
तुरन्त का कौन सा कार्य वह कर रहा था । यह दवा जीवन में रसहीनता की ही नही बल्की
बेहोश होजाने ,जडावस्था तथा हिस्टिरिया की भी दवा है ।
14-एस्पीन
:- इसका दूसरा नाम पापुलस ट्रिम्युला । बिना किसी भय
के कारण मन दुखी हो जाता है ,चिन्ता के कारण बैचैनी, कम्पन्नता, पसीना आ जाना,
नीद में डरावने सपने देखने के कारण नीद का उचट जाना ।
15-मिमुलस:- इसका दूसरा नाम मौनकली फ्लावर ,मिमुलस क्यूटेटस है । यह ज्ञात भय की दवा है
16-इलम
:- इसका दूसरा नाम अल्मस प्रोसेरा है । इसका व्यक्ति
बहुत उद्यमी ,योग्य व सक्रिय होता है और प्राय: बहुत सी जिम्मेदारीयॉ लेता है
तथा अपने कार्यो हेतु जिनका सहयोग लेता है यदि वे उसके जैसा कार्य नही करते तो
उससे उसको निराश व असन्तोष पैदा हो जाता है यह दवा एसे व्यक्तियों में जो नैराश्य
भाव व असन्तोष पैदा होता है उसको यह दवा शीघ्र काबू में कर देती है ।
17-ओक:- इसका दूसरा नाम क्युकस रोबर है । चाहे कितनी भी बाधाये आये इस दवा के स्वभाव
का रोगी कभी निराश, या हताश हो कर प्रयत्न करना नही छोडता । तथा दूसरों को भी
विपरीत परस्थितियों में हिम्मत बंधाते रहते है एंव उनकी मदद के लिये तैयार रहते
है । ऐसे व्यक्ति कमजोर इक्च्छा शक्ति वाले नही होते न ही वे दूसरों के प्रभाव
में आ पाते है उनमें दृढ इक्च्छा शक्ति होती है
18-बरबेन
:- इसका दूसरा नाम बरबीन्स औफिसिनलिस है । इसका व्यक्ति
जो काम उसके बस में नही होता उन कार्यो का बोझ भी ले लेता है । यह व्यक्ति हर
कार्य को शीघ्रता से करता है एंव चाहता है कि दुसरा भी उसकी तरह से शीघ्रता से
कार्य करे ,इसका रोगी बोलता भी जल्दी जल्दी है , एंव चलता भी जल्दी जल्दी है
,उसे समय का अभाव हमेशा खटकता है ।
19-विलो
:- इसको सैल्क्सि विटैलिना ,गोल्डन ओसियर के नाम से
भी जानते है । इस दवा का रोगी सदा अपनी असफलता के लिये दूसरों को दोष देता है और
दूसरों के प्रति सदा अपने मन में कडुवाहट पाले रहता है उसको दूसरों में कभी कोई
अच्छाई नही दिखती और उसकी तारीफ वह कभी नही करता
20-पाईन:- इसका दूसरा नाम श्लैलवेस्टरिस है । यह उन व्यक्तियों की दवा है जो सदा
अपनी ही कमियों को ढूंढने में लगे रहते है और कभी भी अपनी उपलब्धियों से सन्तुष्ट
नही होते ।
21-इम्पेशन्स
:- इसका दूसरा नाम इम्पेशन्स ग्लैण्डुलिफैरा है ।
इसके रोगी को भी हर कार्यो में अधीरता रहती है इसलिये ऐसे रोगी बहुत ज्यादा स्नायुबिक
होते है ये भी जल्दी जल्दी चलने व बोलने वाले ,हर काम को जल्दी करने बाले ,
किसी का धीमा कार्य उनको बर्दाश्त नही होता वे दुसरे के कार्यो को भी स्वयम करने
लगते है तथा वे दूसरो को बोलने या अपना पक्ष रखने का मौका ही नही देते एंव स्वयम
कह उठते है कि मै समक्ष गया ,इन्हे धीमी गति से कार्य करने वाला व्यक्ति पंसद
नही होता ।
22-वाईन
:- इसका दूसरा नाम विटिस बिनिफेरा है । इस दवा का रोगी
महात्वाकांक्षी ,कठोर व अमानवीय स्वाभाव का होता है सदा दूसरों पर हुक्म चलाते
रहना, तथा कोई उसका हुक्म टाले तो उनको बर्दाश्त नही होता , यह इस दवा के मुख्य
निर्देशक लक्षण है ।
23-वालनट:- इसका दूसरा नाम जगलेंन्स रेजिया है । इस दवा के रोगी का अपने जीवन का विशिष्ट
उदृश्य व लक्ष्य होता है ऐसे व्यक्ति किसी बंधे विचारो में चलने वाले नही होते
,वे अपना मार्ग स्वयम तैय करते है और लींक को छोडकर एकला चलने वाले होते है ।
24-वाटर
वाइलेट :- इसका दूसरा नाम होटोनियापैलस्टैरिस है । घमंडी, गर्वीला,
एकाकी, इसका रोगी वैसे तो मृदु स्वाभाव का होता है मन की भीतरी शान्ति के कारण
ऐसे लोग पूरी तरह से संतुष्ट होते है उन्हे अपने ऊपर पूरा आत्म विश्वास होता
है ।
25-वाइल्ड
रोज :- इसका दूसरा नाम रोजा कैनीना डाग रोज है ! यह ऐसे
लोगों की दवा है जिन्होने अपना सब कुछ भाग्य भरोसे छोड दिया है ,क्योकि उन्हे
लगता है कि उनका प्रयत्न व्यर्थ जायेगा ,यहॉ तक कि वे अपनी बीमारी से भी आशा छोड
देते है
26-गोर्स
:- इसका दूसरा नाम यूलैक्स यूरोपकस विन है । यह भी उन
व्यक्तियो कि दवा है जो प्रयास कर के थक गये है और इसलिये मजबूरन जिनको वर्तमान
स्थिति में जीने को मजबूर होना पड रहा है एव यह ऐसे लोगो की दवा है जिनको चिकित्सकों
ने कह दिया है कि उनके पास उनको ठीक करने का कोई उपाय नही है , हमसे जो कुछ हो
सकता था सारे प्रयास किये जा चुके है । इस दवा को जीर्ण रोग में जरूर देना चाहिये
इससे रोगी के मन में आशा जाग जाती है । यह दवा ओक के स्वाभाव से इसलिये भिन्न है, क्योकि ओक के स्वाभाव का व्यक्ति कितनी भी निराश क्यो
न हो वह कभी हार नही मानता
27-राक
वाटर :- यह उन लोगो की दवा है जो सदैव कठोर अनुशासित रहते है
जीवन का प्रत्येक कार्य एकदम अनुशासित रहकर व्यवस्थित तरीके से करते है । यह दवा
बाईन से इसलिये भिन्न है क्योंकि वाईन वाले दूसरों को अनुशासित रखना चाहते है ,
28-बीच
:- इसका दूसरा नाम फैगस सल्वैटिका है । इसके रोगी को
हर व्यक्ति में दोष ही नजर आता है दूसरों
में कुछ भी अच्छाईयॉ क्यों न हो, ऐसे लोगों को अपनी आलोचना बर्दाश्त नही होती ।
29-चिकोरी
:- इसका दूसरा नाम सिकोरियम इनटाइबस,बाइल्ड सिकोरी है
,यह मतलबी, स्वार्थी स्वाप्यार ,अधिकार पूर्वक प्रेम चाहने वाले स्वाभाव के
रोगीयों की दवा है , इसका व्यक्ति अकला रहना पसंद नही करता उसको हमेशा किसी के
साथ की आवश्यकता होती है ।
30-रेड
चैस्टनट :-बिना किसी कारण का डर ,सदा दूसरो के लिये चिन्ता
करते रहना , अपना कोई व्यक्ति जडा सी भी देर से आये तो बहुत चिन्तित हो जाना
,उसके मन में बुरे ख्याल आने लगते है कि कही कोई अप्रिय घटना तो नही घट गयी , यदि
निकटस्थ व्यक्ति किसी यात्रा आदि में जाये तो उसके मन में बुरे ख्याल आते है कि
कही कोई घटना न घट जाये वह केवल बुरा पक्ष ही देखता है । इस दवा में सब चिन्ता
फिक्र केवल दूसरों के लिये ही होती है अपने लिये नही ।
31-राक
रोज :- भयानक दुर्घटना के बाद, कोई भयानक दृष्य देखने के
बाद , उसके मन में इसका प्रभाव वर्षो बना रहता है किसी घटना या दुर्घटना का विचार
उसके मन में बैठा रहता है यह डर नही निकल पाता ,स्वप्न में डरावने सपने के कारण
बैठा डर यह दवा इस प्रकार के डर को मिटा देती है । और उसमें हिम्मत जगा देती है
।
32-स्टार
आफ बेथलेहम :- इसका दूसरा नाम आरनिंथेगेलम अम्बीलेटम है । यह
मुख्यत: शारीरिक एंव मानसिक सदमें के बाद उत्पन्न दशा एंव रोग की दवा है ।
33-वाइल्ड
चेस्ट नट :- इसका दूसरा नाम इस्क्युलस हिपोकेस्टनम है । इस
दवा का मुख्य लक्षण है कि रोगी सदा ही विचारों में उलझा रहता है हमेशा मानसिक व्दन्द
में फंसे रहता है
34-कार्बएपल
:- इसका दूसरा नाम मेलस प्यूमिला है । किसी प्रकार के
अपराध के कारण मन में ग्लानी बने रहना (अपराध बोध), जिसकी वजह से मन हमेशा उदास रहता है ।
35-होली:-
यह दवा सन्देही, जलन, शत्रुभाव तथा घृणा की प्रधानता वालों
की दवा है ,इसका व्यक्ति सदा अपने को असुरक्षित महसूस करता है प्रेम नाम की कोई चीज
उसके पास नही होती , इसके रोगी को सुर्निवाचित दवा देने पर भी रोग ठीक न हो रोगी
हृष्ट पुष्ट हो तो यह दवा दी जाती है परन्तु रोगी दुबला पतला है तो बाइल्डओट
का प्रयोग करना चाहिये ।
36-जैन्शियन
:- इसका दूसरा नाम जैन्शियन एमरेला आटम जैन्शियन है ।
यह ऐसे रोगीयो की दवा है जो हमेशा किसी चीज का बुरा पक्ष ही देखते रहते है , बुरा
पक्ष देखने और बुरा सोचने के कारण सदैव गहरे अवसाद व उदासीनता में ही डूबे रहते है
ऐसे लोग थोडी सी भी विपरीत परस्थितियों में घबरा जाते है एंव हतोत्साहित हो जाते
है ।
37
मास्टर्ड :- इसका दूसरा नाम सिनेपिसअरवैन्सिस है । यह भी अन्धकारजनित
अवसाद, विषादग्रस्तता, उदासीनता अनदेखी चीजों का डर ,बिना कारण घबराहट की दवा है
।
38-
स्वीट चेस्टनट :- इसका दूसरा नाम केस्टेनिया
सेटाइवा,स्पेनिश चेस्टनट ,एडीबल चेस्टनट है । बार बार मानसिक यातना के कारण एक
समय ऐसा आता है जब उसके लिये सहन करना कठिन हो जाता है इसके कारण उसकी मानसिक व
शारीरिक शक्ति पूरी तरह से नष्ट हो जाती है तथा रोगी निराश हो जाता है ऐसे में
उसे अकेलापन अच्छा लगता है ।
39
रेस्क्यु रेमेडी:- उपरोक्त 38 दवाओं में से पॉच दवाओं को मिश्रित कर यह दवा डॉ0 बच के द्वारा
तैयार की गयी है । इसमें जो दवाये आपस में मिलाई गयी है , उनके नाम 1-स्टार आफ बेथलेहम,(शाक कम करने के लिये) 2-राक रोज (डर व आतक को
मिटाने के लिये ) 3-इम्पेशन्स (मानसिक तनाव को दूर करने के लिये) 4-चेरी प्लम
निराशा व अवसाद को मिटाने के लिये ) 5-क्लिमेटिस (मूर्च्छा व बेहोशी को दूर करने
के लिये) डॉ0 बच ने इसे आपात स्थिति में उपयोग करने के लिये एंव यह दवा शारीरिक व
मानसिक शाक, हिस्टेरिया, मूर्च्छा, जल जाना, रात को डर जाना, तीब्र दर्द,
दुर्धटना, गिर पडना, चोट लग जाना आदि सभी स्थितियों में उपयोग करने की अनुशंसा की
है ।
3-इलैक्ट्रो
होम्योपैथिक
पैरासेल्सस के प्रथम सिद्धान्त ‘ सम से सम की
चिकित्सा ’ पर डॉ0 हैनिमैन सहाब ने होम्योपैथिक चिकित्सा का आविष्कार किया, वही
उनकी मृत्यु के 22 वर्षो पश्चात पैरासेल्सस के दूसरे सिद्धान्त ‘ वनस्पति
जगत में विद्युत शक्ति विद्यमान ’ होती है । इस सिद्धान्त पर इलैक्ट्रो होम्योपैथिक का आविष्कार बोलग्ना
इटली निवासी डॉ0 काऊट सीजर मैटी ने 1865 ई0 किया था किया था । इस चिकित्सा पद्धति
की औषधियों में प्रयुक्त 114 वनस्पतियों का प्रयोग कर डॉ0 मैटी ने 38 मूल
औषधियों का निर्माण किया था , रस रक्ते च शुद्धे प्राणी दीर्धायुराप्नोति अर्थात
रक्त व रस के शुद्ध होने एंव इसकी समानता से व्यक्ति निरोगी व दीर्ध जीवी होता
है, इस सिद्धान्त पर उन्होने अपनी चिकित्सा पद्धति का आविष्कार किया था उनका
मानना था कि शरीर में उपस्थित रस एंव रक्त शरीर के होम्योस्टेटिस
प्रक्रिया को शुद्ध व साम्यावस्था में बनाये रखकर व्याधियों को दूर किया जा
सकता है । डॉ0 मैटी सहाब ने प्रारम्भ में मूल 38 औषधियों का निर्माण किया तथा उन्ही
38 दवाओं को आपस में शारीरिक रोग एंव शरीर के आंतरिक अव्यावों तथा रोग प्रकृति के
अनुसार आपस में मिश्रित कर कुल 60 दवाओं का निर्माण किया जो आज प्रचलन में है तथा
कुछ विद्वान चिकित्सकों ने इन्ही मूल औषधियों को रोग स्थिति के अनुसार आपस में
मिश्रित कर कुछ और नई औषधियों का निर्माण किया है जिससे इनकी संख्या में वृद्धि
हुई है ।
4-इलैक्ट्रो
होम्योपैथिक :- ।
इलैक्ट्रो होम्योपैथिक
चिकित्सा पद्धति के दो सिद्धान्त है
1-वनस्पति जगत में वि़द्धुत शक्ति विधमान होती
है
2- रस और रक्त की समानता एंव शुद्धता
मैटी सहाब ने हानिरहित वनस्पतियों के वि़द्धुत शक्ति की खोज करते हुऐ 114 वनस्पतियों के अर्क को कोहेबेशन
प्रक्रिया से निकाल कर 38 मूल औषधियों का निर्माण किया जो मनुष्य के रस एंव रक्त के दोषों को दूर कर उन्हे शुद्ध
व सम्यावस्था में करती है , उन्होने उक्त औषधियों के
निर्माण में शरीर के अंतरिक अंगों पर कार्य करने वाली औषधियों के समूह का निर्माण
किया जिन्हे आपस में मिला कर मिश्रित कम्पाऊंउ दवा बनाई गई इस प्रकार इनकी संख्या
बढकर कुल 60 हो गयी है ।
इसे सुविधा व कार्यो की दृष्टि से निम्न समूहो
में विभाजित किया जा सकता है । इस विभाजन में मूल औषधियों के साथ मिश्रित किये गये
कम्पाऊड की संख्या भी सम्मलित है ।
1- स्क्रोफोलोसोज :-प्रथम
वर्ग में रस पर कार्य करने वाली मेटाबोलिज्म को संतुलित एंव उसके कार्यो को सामान्य
रूप से संचालित करने वाली एक क्रियामिक औषधिय है जो रस तथा पाचन सम्बन्धित अव्यावों पर कार्य करती है , जो स्क्रोफोलोसोज
नाम से जानी जाती है एंव संख्या में कुल 13 है ।
स्क्रोफोलोसो लैसेटिबों
:- इसमें एक दवा स्क्रोफोलोसो लैसेटिबों सम्मलित है इसका कार्य कब्ज को
दूर करना तथा ऑतों की नि:सारण क्रिया को प्रभावित करना है
2- एन्जिओटिकोज :- दूसरे वर्ग
में रक्त पर कार्य करने वाली , औषधियों
को रखा जो एन्जिओटिकोज के नाम से जानी जाती है इस समूह में कुल 5 औषधियॉ है ।
3- लिन्फैटिकोज :-तीसरे वर्ग
में रस एंव रक्त दोनो पर कार्य करने वाली औषधियों को रखा
गया जो लिन्फैटिकोज नाम से जानी जाती है इस समूह में 2 औषधियॉ है ।
4- कैन्सेरोसोज:- चौथे वर्ग
में शरीर पर कार्य करने वाले अवयवों तथा सैल्स एंव टिश्यूज की बरबादी एंव उनकी
अनियमिता से उत्पन्न होने वाले रोगों पर कार्य करने
वाली औषधियों को रखा , यह कैन्सेरोसोज
के नाम से जानी जाती है इस समूह में कुल 17 औषधियॉ है ।
5- फैब्रिफ्यूगोज :- पॉचवे वर्ग की वात संस्थान, नर्व सिस्टम पर कार्य करे
वाली औषधियों को रखा गया, इसे फैब्रिफ्यूगोज नाम से जाना जाता है इस समूह
में कुल 2 औषधियॉ है ।
6- पेट्टोरल्स :- छठे वर्ग
में श्वसन तंत्र पर कार्य करने वाली औषधियों को रखा गया जो पेट्टोरल्स के नाम से
जानी जाती है एंव संख्या में 9 औषधियॉ है ।
7-वेनेरियोज –सातवे वर्ग
में वेनेरियोज औषधियों को रखा गया जिसका कार्य इसका कार्य
रति सम्बन्धित, मूत्रसंस्थान ,जननेन्दीय सम्बन्धित
रोगेां तथा उनके अंगो पर होता है ।यह औषधिय संख्यॉ में 6 है ।
8-वर्मिफ्युगोज :–‘ इस वर्ग में
वर्मिफ्युगोज दवा का रखा गया जो संख्या में 2 है इस ग्रुप की दवा का प्रभाव विशेष
रूप से ऑतों पर है एंव यह शरीर से किटाणुओं व कृमियों को शरीर से खत्म कर देती है या शरीर में उनके विरूद्ध ऐसा वातावरण निमिर्त कर देती है जिससे उनका जीवन
खतरे में पडने लगता है इससे वे शरीर को छोड कर शरीर से बाहर निकल जाते है ।
9- सिन्थैसिस:- इस समूह में
सिन्थैसिस (एस0 वाय0) है जो एक कम्पाऊड मेडिसन है जिसका उपयोग सम्पूर्ण शरीर के आगैनन को
सुचारूप से संचालित करने हेतु प्रेरित करती है एंव उन्हे शक्ति प्रदान करती है
इसे एस वाई या सिन्थैसिस नाम से जाना जाता है ।
10-इलैक्ट्रीसिटी:- इस वर्ग में
पॉच इलैक्ट्रीसिटी एंव एक तरल औषधिय अकुवा पर
ला पैली (ए0पी0पी) है । इसमें पॉच इलैक्ट्रीसिटी एंव एक त्वचा जल शम्मलित है, जो क्रमश: निम्नानुसार है ।
1-व्हाईट इलैक्ट्रीसिटी
:-इसे सफेद बिजली भी कहते है , इसकी क्रिया ग्रेट सिम्पाईटिक नर्व, सोरल
फ्लेक्स,लधु मस्तिष्क तथा वात संस्थान के समवेदिक सूत्रों पर है ,इसलिये यह
वातज निर्बलता की विशेष औषधिय है ,इसका प्राकृतिक गुण पीडा नाशक, शक्ति प्रदान करने बाली , नींद लाने वाली, वातज पीडा
को ठीक करने वाली एंव ठंडक पहुचाने वाली है । इसका वाह्रय एंव आंतरिक प्रयोग किया
जाता है ।
2- ब्लू इलैक्ट्रीसिटी
:-इसे नीली बिजली भी कहते है ,यह रक्त प्रकृति के अनुकूल है ,इसका प्रभाव
हिद्रय के बांये भाग पर है, यह रक्त के स्त्राव को चाहे वह वाह्रय स्थान या
अंतरिक अवयव से हो उसे रोक देती है ,नीली बिजली क्योकि यह रक्त नाडियों का सुकोड
देती है इससे रक्त स्त्राव रूक जाता है । यह लकवा , मस्तिष्क
में रक्त संचय ,चक्कर आना ,खूनी बबासीर , या शरीर से रक्त स्त्रावों के लिये
उपयोगी है ।
3-रेड इलैक्ट्रीसिटी:- इसे लाल
बिजली भी कहते है, यह कफ प्रकृति वालों के अनुकूल है इसकी प्रकृति पीडा नाशक,बल
वर्धक उत्तेजक,प्रदाह नाशक, ग्रन्थी रोग नाशक है । इसमें रक्त की मन्द गति को
तीब्र करने का विशेष गुण है ।
4-यलो इलैक्ट्रीसिटी:- इसे पीली
बिजली भी कहते है,यह कफ प्रकृति वालों के अनुकूल है इसकी प्रकृति पीडा नाशक, रक्त
की कमी एंव ऐठन को दूर करने वाली, कै को रोकने वाली एंव कृमि नाशक है तथा वात
सूत्रों को बल प्रदान करने वाली है । यह औषधिय बल वर्धक है तथा अन्य अपनी सजातीय
औषधियों के साथ प्रयोग करने पर शरीर से पसीना लाने वाली है । वात सूत्रों ,ऑतों,और
मॉस पेशियों पर इसका विशेष प्रभाव है ,मिर्गी,हिस्टीरिया,जकडन,पागलपन इत्यादि
में एंव उष्णता को शान्त करने के लिये इसका प्रयोग होता है ।
5-ग्रीन इलैक्ट्रीसिटी:-इसे हम हरी
बिजली भी कह सकते है ,यह रक्त प्रकृति वालों के लिये अनुकूल है इसका प्रभाव
शिराओं एंव उनकी कोशिकाओं और हिद्रय के आधे दाहिने भाग की वात नाडियों पर
है , इसकी क्रिया त्वचा ,श्लैष्मिककला पर होता है, इसके प्रयोग से किसी भी
प्रकार के धॉव, चाहे वे सडनें गलने लगे हो उसमें इसका प्रयोग किया जाता है जैसे
कैंसर, गैगरीन,दूषित धॉव बबासीर ,भगन्दर के ऊभारों में इसका प्रयोग किया जाता है
। मस्स्ो ,चिट्टे इसके प्रयोग से झड जाते है यह जननेन्द्रिय या मूंत्र मार्ग से
पीव निकलने पर अत्यन्त उपयोगी है । इसके प्रयोग से शरीर के अन्दर या बाहर किसी
भी स्थान पर कैंसर हो जाये तो उसकी पीडा को यह दूर कर देती है ।
6-अकुआ पर ला पेली या
ए0पी0पी :- इसे त्वचा जल के नाम से भी जाना जाता है इसका प्रयोग त्वचा को स्निग्ध,
मुलायम, चिकनाई युक्त एंव सुन्दर स्वस्थ्य बनाने तथा त्वचा के रंग को साफ
करने के लिये वाह्रय रूप से (त्वचा पर लगाना) उपयोग किया जाता है । इस दवा को
ऑखों के चारों तरफ की त्वचा पर (ऑखों पर नही) लगाने से ऑखों को शक्ति मिलती है ।
इसका प्रयोग चहरे व त्वचा को चिकना मुलायम साफ चमकदार बनाने में तथा दॉग धब्बे
झुरियों अथवा मुंहासे, चहरे के ब्लैक हैड,
खुजली ,छीजन,त्वचा के रंग में परिवर्तन आदि में किया जाता है ।
4-होम्योपंचर या होम्योएक्युपंचर
विश्व में प्रचलित
विभिन्न प्रकार की चिकित्सा पद्धतियॉ किसी न किसी रूप में प्रचलन में है इसी कडी
में होम्योपंचर चिकित्सा की जानकारी प्रस्तुत है । होम्योपंचर चिकित्सा,
होम्योपैथिक एंव एक्युपंचर की सांझा चिकित्सा है । इसका प्रयोग होम्योपैथिक के
ऐसे चिकित्सकों द्वारा किया जा रहा है, जिन्हे एक्युपंचर तथा होम्योपैथिक का सांझा ज्ञान है । होम्योपंचर चिकित्सकों
द्वारा होम्योपैथिक की शक्तिकृत दवाओं को एक्युपंचर के निर्धारित पाईट पर पंचरिग
कर उपचार किया जाता है । होम्योपंचर चिकित्सकों का मानना है कि इससे परिणाम
यथाशीर्ध प्राप्त होते है । होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति को जिसे लक्षण विधान चिकित्सा पद्धति कहते है ।
इसमें एक समय में एक ही प्रकार की उच्च शक्तिकृत दवा को देने का प्रवधान है, साथ
ही निर्देश है कि उच्चशक्तिकृत दबाओं का प्रयोग एक बार में एक ही बार किया जाये
अन्य शक्तिकृत दबाओं का एक साथ प्रयोग वर्जित है । जबकि होम्योएक्युपंचर में एक
समय मे एक साथ कई प्रकार की उच्च से उच्चतम शक्ति की दबाओं का प्रयोग किया जाता है
। होम्योपैथिक चिकित्सा में औषधियों को खिलाने के पहले मुहॅ साफ करने को कहॉ जाता
है, ताकि मुहॅ में किसी प्रकार का अन्य पदार्थ न हो जो उसके कार्यो में बॉधा न
डाले । होम्योपंचर चिकित्सकों का मानना है कि मुहॅ को कितना भी साफ क्यो ना किया
जाये उसमें लार या अन्य द्रवों का प्रभाव हमेशा बना रहता है, इसी लिये होम्योपंचर
चिकित्सक होम्योपैथिक की उच्चतम शक्ति की दबाओं को डिस्पोजेबिल निडिल जो बहुत
बारीक होती है उसके ऊपर के चैम्बर भर कर
एक्युपंचर के निर्धारित उस पाईन्ट पर
चुभाते है, जिसका सीधा सम्बन्धि बीमारी वाले अंतरिक अंगों से या रोग से होता है ।
इसके दो लाभ है, एक तो उसे गंत्बय तक पहुंचने में समय नही लगता, जिस पाईन्ट पर दवा लगाई जाती है, उसका सीधा रास्ता व सम्बन्ध रोगग्रस्त स्थान तक
पहूच कर जीवन ऊर्जा को प्रभावित करती है । जबकि मुहॅ से दबा खिलाने पर पहले वह मुहॅ में जाती है, इसके बाद उसे
विभिन्न प्रकार के रस रसायनों का सामना करना पडता है । होम्योपेचर में औषधियों का
सीधा प्रभाव उस चैनल के माध्यम से रोगग्रस्थ अंतरिक अंग या रोग से हो जाता है ।
इसका दूसरा फायदा यह है कि औषधि अपना सीधा रास्ता तैय कर जीवन ऊर्जा जिसे चाईनीज
भाषा में ची कहते है प्रभावित करती है । होम्योपैथिक दबायें भी लक्षण अनुसार अपना
कार्य जीवन शक्ति पर करती है । एक्युपंचर चिकित्सा सिद्धान्त के अनुसार शरीर के
निर्धारित चैनल के पाईट ची अर्थात जीवन ऊर्जा पर करती है । होम्योपंचर चिकित्सा के उदभव पर यदि नजार
डालें तो मालुम होगा कि होम्योपैथिक के आविष्कार के पूर्व से ही शरीर को छेद कर
उसके अन्दर औषधियॉ पहूचाने का प्रचलन विभिन्न प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों के
प्रचलन में किसी न किसी रूप में प्रचलित रहा है । जैसे एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति
में इंजेक्शन का लगाना, अतिप्राचीन आयुर्वेद चिकित्सा में भी शरीर के अन्दर
औषधियों को पहुचाने हेतु शरीर को छेदा जाता रहा है । प्राचीन एक्युपंचर चिकित्सा
में कई प्रकार के असाध्य रोगों के उपचार हेतु एक्युपंचर के निश्चित चैनल व पाईन्ट
में बारीक सईयों को चुभाकर उपचार किया जाता था । परम्परागत कई प्रकार की चिकित्सा
पद्धति में आज भी शरीर की कई व्याधियों के उपचार हेतु वनस्पिति के मूल से प्राप्त
औषधियों को तरल रूप् में शरीर को छेद कर अन्दर पहुचाने का प्रचलन है ।
होम्योपंचर चिकित्सा जैसा कि पूर्व में ही
कहॉ गया है कि यह एक्युपंचर एंव होम्योपैथिक की सांझा चिकित्सा है । इसका
प्रयोग होम्योपैथिक तथा एक्युपंचर कि सांझा जानकारी रखने वाले चिकित्सकों
द्वारा की जा रही है, परन्तु होम्योपंचर चिकित्सा को स्वतन्त्र रूप से चिकित्सा
कार्य करने हेतु शासकीय मान्यता प्राप्त नही है , आशनुरूप शीघ्र परिणामों की वजह
से यह अपने प्रचलन में है, परन्तु हमारे देश में गिने चुने चिकित्सकों द्वारा इस
का उपयोग किया जा रहा है ।
5-नेवल एक्युपंचर बनाम नेवल होम्योपंचर
नेवल एक्युपंचर, एक्युपंचर की नई खोज है इसकी खोज व इसे नये स्वरूप में
सन 2000 में कास्मेटिक सर्जन मास्टर आफ-1 चॉग के मेडिसन के प्रोफेसर योंग क्यू
द्वारा की गयी । यह चाईनीज एक्युपंचर चिकित्सा फिलासफी पर आधारित चिकित्सा है
जो टी0 सी0 एम0 (ट्रेडिशनल चाईनीज मेडिसन) पर आधारित है । जैसा कि एक्युपंचर चिकित्सा
में शरीर में हजारों की संख्या में एक्युपंचर पाईन्ट पाये जाते है एंव रोग
स्थिति के अनुसार चिकित्सक इन पाईन्ट की खोज करता है, फिर उस निश्चित पाईन्ट पर
एक्युपंचर की बारीक सूईयों को चुभा कर उपचार किया जाता है । चूकि एक तो चिकित्सक
के समक्छ एक्युपंचर के हजारों पाईन्टस में से निर्धारित पाइन्ट को खोजना फिर
उक्त निर्धारित पाईन्ट पर,
रोग स्थिति के अनुसार दस पन्द्रह बारीक सूईयों को चुभोना एक जटिल प्रक्रिया है ।
डॉ0 योंग क्यू ने महशूस किया कि नेवेल व उसके आस पास के क्षेत्रों पर सम्पूर्ण
शरीर के एक्युपंचर पाईन्ट पाये जाते है,
जिन्हे खोजना आसान है साथ ही किसी भी प्रकार के रोग उपचार हेतु कम से कम सूईयों
को चुभाकर सफलतापूर्वक परिणाम प्राप्त किये जा सकते है ।
उन्होने सन 2000 में अपने इस नये शोध को कई
पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित कराया साथ ही उन्होने इसका प्रशिक्षण कार्य प्रारम्भ
कर इसके परिणामों से चिकित्सा जगत को परिचित कराया । एक्युपंचर चिकित्सकों को
पूर्व की तरह से सम्पूर्ण शरीर में हजारों की संख्या में पाये जाने वाले एक्युपंचर
पाईट के साथ कम से कम सूईयों को चुभा कर उपचार करने में काफी सफलता मिली , नेवल एक्युपंचर
में नाभी व इसके चारों तरफ के क्षेत्रों पर कम से कम सूईयों को चुभाकर उपचार किया
जाता है । इस उपचार विधि का एक लाभ और भी
था, जो एक्युपंचर चिकित्सक
वर्षो से महसूस करते आये है जैसा कि रोग स्थिति के अनुसार सम्पूर्ण शरीर में कही
भी एक्युपंचर पाईन्ट पाये जाते है उपचार हेतु इन पाईन्ट पर सूईयॉ चुभाकर उपचार
किया जाता है कभी कभी कई ऐसे भी पाईन्ट होते है जिन पर सूईयों का लगाना काफी
खतरनाक होता है । जैसे गले के पास या ऑखो के चारो तरफ या फिर सीने के पास, खोपडी या कान के पिछले भागों में या ऐसे स्थानो पर जहॉ पर
मसल्स कम या त्वचा मुलायम होती है, नाजुक स्थानों पर जहॉ पर पंचरिग करना
कठिन होता है । नेवेल एक्युपंचर में जैसा कि पहले ही बतलाया जा चुका है कि इसमें
केवल नेवेल व उसके चारों तरफ पाये जाने वाले पाईन्ट पर बारीक सूईयों को चुभाकर
उपचार किया जाता है । पेट पर नेवल के चारों तरफ प्रर्याप्त
मात्रा में मसल्स
होते है , इन क्षेत्र में शरीर के
आंतरिक (खतरनाक) हिस्से मसल्स के काफी नीचे होते है । अत: इन भाग पर पंचरिंग
करने से किसी भी प्रकार का खतरा नही होता । इसका कारण यह है कि पेट पर लगभग एक इंच
या इससे भी आधिक चरर्बी होती है तथा इस
भाग में आंतरिक अंग चर्बी वाले हिस्से से बहुत नीचे होते है । अत: इस भाग पर
पंचरिग करने से किसी भी प्रकार का खतरा
नही होता । नेवल एक्युपंचर में सूईयो को एक सेन्टी मीटर से डेढ से0मी0 या इससे
भी कम मसल्स के अन्दर डाली जाती है, मल्सल्स के अन्दर कितनी सूई को धुसाना है इसके लिये रोगी के पेट की मसल्स
का पहले परिक्षण कर यह मालूम कर लिया जाता है कि पेट पर कितनी मोटी मसल्स की परत
है । फिर उसके हिसाब से सूई
को इस प्रकार से
चुभाते है ताकि मसल्स के आधे भाग तक ही सूई पहूंचे ताकि पेट के आंतरिक अंगों पर
सूई का प्रभाव न हो ।
नेवल एक्युपंचर
चिकित्सको का मानना है कि शरीर के सम्पूर्ण आंतरिक एंव वाहय अंगों के चैनल इस
पांईन्ट से हो कर गुजरते है , जैसा कि हमारे प्राचीनतम आयुर्वेद मे कहॉ गया है कि
नाभी से हमारे शरीर की 72000 नाडीयॉ निकलती है । नेवल एक्युपंचर चिकित्सा सरल
होने के साथ पंचरिग भी सुरक्षित है एंव उपचार हेतु कम से कम एक दो सूईयों का
प्रयोग किया जाता है । नेचेल एक्युपंचर में सूईयो को चुभाने पर र्दद बिलकुल नही
होता एंव परिणाम भी जल्दी एवं आशानुरूप मिलते है । इस नेवल एक्युपंचर का उपयोग
अब नेवल होम्योपंचर के रूप में होने लगा है जिसमें होम्योपैथिक की शक्तिकृत
दवाओं को बारीक डिस्पोजेबिल निडिल के चैम्बर में भर कर नेवल के आस पास पाये जाने
वाले एक्युपंचर पाईन्ट पर पंचरिक कर उपचार किया जाता है ।
नेवेल
क्षेत्र में पाये जाने वाले एक्युपंचर पाईट का लाभ:-
1-नेवेल
(नाभी)क्षेत्र में पाये जाने वाले एक्युपंचर पाईन्ट सम्पूर्ण शरीर का
प्रतिनिधित्व करते है अर्थात हमारे शरीर के सम्पूर्ण अंतरिक अंगों की नाडीयॉ इस
क्षेत्र पर पाई जाती है ।
2-इस
क्षेत्र में मसल्स अधिक होने से सुरक्षित पंचरिग (सूई चुभाना) किया जा सकता है ।
3-इस
क्षेत्र में मसल्स अधिक होता है एंव आर्टरी वेन या हडडीयॉ तथा अन्य अंतरिक अंग
कम या काफी गहराई में होते है । इससे सूई चुभाने पर किसी भी प्रकार का खतरा नही
होता है ।
4-शरीर
के समस्त अंतरिक अंगों की नाडीयॉ इसी क्षेत्र से होकर गुजरती है अत: एक्युपंचर
पाईन्ट का निर्धारण करने में अनावश्यक समय की बरबादी नही होती ।
5-इस
क्षेत्र में पंचरिंग पाईट आसानी से मिल जाते है जो पंचरिग करने में काफी सुरक्षित
होने साथ मरीज को र्दद नही होता ।
6-इस
क्षेत्र में पंचरिंग कर उपचार करने से परिणाम यथाशीघ्र एंव आशानुरूप प्राप्त होते
है ।
7-महिलाओं
में बाझपंन के उपचार में यहॉ पर पाये जाने वाले पाईन्ट काफी कारगर सिद्ध हुऐ है।
8-सौन्द्धर्य
समस्याओं के निदान में ब्यूटी क्लीनिक में नेवल एक्युपंचर , तथा नेवल
होम्योपंचर का प्रचलन काफी बढा गया है । नेवल होम्येापंचर का उपयोग सौन्द्धर्य
समस्याओं के निदान में पाश्चात साधन सम्पन्न राष्ट्रों में काफी फल फूल रहा
है ।
9-नेवेल
एक्युपंचर में डिस्पोजेबिल निडिल न0 26 या 27 का प्रयोग किया जाता है जो अत्यन्त
बारीक होने के साथ इसकी लम्बाई दो से तीन सेन्टीमीटर तक होती है । मरीज के मसल्स
परिक्षण पश्चात इसे एक या डेढ से0मी तक ही चुभाया जाता है ।
10-सूईयॉ
डिस्पोजेबिल होती है अत: एक बार प्रयोग कर उसे नष्ट कर दिया जाता है ।
11-नाभी
का सम्बन्ध भावनाओं अर्थात मन से होता है इसके बाद शरीर से होता है इसलिये यह मन
और शरीर दोनो का उपचार करती है ।
नेवल
एक्युपंचर एक संम्पूर्ण चिकित्सा पद्धति है एंव एक्युपंचर चिकित्सा से सरल
तथा शीघ्र आशानुरूप परिणाम देने वाली है । नेवल एक्युपंचर तथा नेवल होम्योपंचर
की जानकारीयॉ नेट पर उपलब्ध है गुगल साईड पर Navel
Acupanthure या नेवेल होम्योपंचर टाईप
कर इसे देखा जा सकता है । ब्यूटी क्लीनिक में नेवल एक्युपंचर एंव नेवल होम्योपंचर
का समान रूप से सौन्द्धर्य समस्याओं के निदान में प्रयोग किया जा रहा है । ब्लागर
की इस साईड पर भी जानकारीयॉ उपलब्ध है ।