न कहानी-
इलाज़
राजनारायण बोहरे-
आज आपके फकीरचन्द ने एक और आदमी मार डाला
’ मिश्रा जी जब भी आते हैं ऐसा ही कोई विलक्षण जुमला बोलकर घर में इंट्री करते हैं।
मैंने मुस्कराते हुए पूछा-‘किसे मार दिया यार !’
‘‘वो धर्मपुरा के किसान की बेटी थी। ...बिना मर्ज पहचाने इंजेक्शन भोंक दिया उसे और बोतल चढ़ा दी। राम जाने कोई ‘‘एयर बबल’’ आ गया, या इंजेक्शन का री-एक्शन हुआ कि बैंच पर लेटे-लेटे चल बसी बेचारी लड़की।’’ मासूम चेहरा बनाये मिश्रा जी के चेहरे पर बिषाद की रेखाएं गहरी थी। बेटियों का जिक्र आते वक्त वे बहुत भावुक हो जाते हैं, आखिर पैंतालीस की उमर में बेटी पाई है उन्होंने, सो बेटियों के मुद्दे पर कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हैं।
‘चलो, चलके तमाशा देखते हैं ’ मैं यकायक उठ खड़ा हुआ तो मिश्रा जी ने लानत भरे स्वर में रोका मुझे, ‘ ये बताओ, उस झोलाझाप डॉक्टर से तुम्हारी इतनी ज्यादा सहानुभूति क्यों है ?’
सदा की तरह मेरा जबाब था ‘वो मेरा फेमिली डॉक्टर है यार ।’
मिश्रा जी फिर उलाहना दे रहे थे ‘तुम पढ़े-लिखे आदमी हो और जब इस शहर में अच्छे-खासे तालीमयाफ्ता डॉक्टर मौजूद हैं तो तुम नीम-हकीम के चक्कर में काहे को पड़ते हो? देखना किसी दिन नुक्सान उठाओगे।’’
मैंने बात काटी उनकी , ‘ डिग्री भले न हो, लेकिन उसे हजारों मरीजों के इलाज का अनुभव है यार, खैर, चलो वहाँ देखते हैं क्या हो रहा है। मैं पूछना चाहता हूं कि आखिर क्या अपराध है उसका?’
वे बोले ‘आज की घटना थोड़ी है। कल हो चुका सब कुछ। मैंने तो अखबार में पढ़ा है अभी सुबह-सुबह। अब क्या रखा है वहाँ। ’
मैं शांत हो बैठ गया। अब मिश्रा जी बता रहे थे कि दिल्ली में स्वास्थ्य विभाग बाकायदा एक अभियान चला कर बिना मेडीकल-डिग्री वाले डॉक्टरों के खिलाफ कार्यवाही कर रहा है और वे चाहते हैं कि हमारे यहाँ भी ऐसा अभियान चलाया जाये। ऐसा न करने पर वे सरकार को कोसने लगे।
...कुछ देर बाद मिश्रा जी के जाते ही मैं डॉक्टर फकीर चंद के क्लीनिक पर था। मुझे उम्मीद थी कि तीनों दुकानों में ताले जड़े होंगे; लेकिन ऐसा न था तीनों दरवाजे खुले थे, अलबत्ता फकीरचंद नहीं थे वहाँ। मरीज भी न था कोई। कम्पाउन्डर बैठे हुए थे चारों। मुझे नमस्ते किया एक किशोर वय के कम्पाउन्डर ने, सो मैंने पूछा ‘‘कहाँ है डॉक्टर साहब ?’’
‘पता नहीं ! मोहन भैया के साथ गए है कहीं ? क्यों कोई दवा लेना है क्या आपको ?’
मैं मुस्कराया ‘अब ये लड़के भी दवाई दारूदेने लगे हैं जिनका मालिक खुद बिना लायसंस का डॉक्टर है-झोला-छाप !’
इंकार में सिर हिलाता मैं लौट आया था। पता नहीं, क्या हो रहा होगा बेचारे फकीरचंद के साथ ? अब थाने जाकर देखना तो ठीक न होगा.....फिर वहां अपना परिचित भी नहीं कोई, और दारोगा भी पूछेगा कि आप कस्बे के एक जिम्मेदार अफसर
हो, आप काहे चक्कर में पढ़ते हो इस हत्यारे डॉक्टर के। हाँ, दारोगा उसे हत्यारा ही कहेगा।
पुलिस की भी मजबूरी है। उसके पास न ज्यादा ज्ञान है न आदमी के भांपने की क्षमता। बहुत
सिमटा हुआ दायरा है उसका। छोटा शब्दकोश है उसका। गिने-चुने खाने है उसके दिमाग में, जिसमें वो आदमियों को पटक देते हैं-हत्यारा, मुल्ज़िम, फरियादी, हिस्ट्रीशीटर, महात्मा और वकील। हजारों पेशों और लाखों मनोवृत्ति वाले इस समाज के लोगों को देखने की क्षमता नहीं है उनके पास। फुरसत भी नहीं है। सत्य कहा जाय तो जरूरत भी नहीं। चल रहा है पिछले शताधिक वर्षों से ऐसा ही ढर्रा और कहीं कोई दिक्कत नहीं है, सो वे काहे को बदलेेंगे।
उत्सुकता में मैंने अखबार पलटा...देखूं तो कि फकीरचंद के मामले में क्या छपा है। प्रदेश स्तरीय एक अखबार में फोटो था फकीरचंद का जिसमें वे पुलिस लॉक-अप में नीचा सिर बैठे थे। मुझे दया आई।
यूं डॉक्टर फकीरचंद मुझे सदा से दयनीय लगते रहे हैं। ये बात अलग है कि मुझे भले ही लगते हो, लेकिन वे खुद को कभी दयनीय महसूस नहीं करते। अगर ऐसा प्रकरण होता कभी-कभार, ...और उनका कोई शुभचिन्तक उन्हें ज़लालत के लिए
टोकता। वो बेधड़क जबाब देते ‘ कैसी ज़लालत ? मैंने क्या गबन कर लिया किसी सरकारी धन का ? किसी से रिश्वत मांगी क्या ? किसी की बहन बेटी को छेड़ा क्या ? मैं तो समाज का सेवक हूँ भाई साहब। मजदूरी करता हूँ ’....और टोकने वाला हतप्रभ हो उन्हें भकुआकर ताकता रह जाता। गजब का आत्म विश्वास था उनमें। एक बार मैंने उनसे पूछा ‘ आप ये जो बिना मेडीकल-डिग्री के मरीजों का इलाज़ करते हैं , इसके लिए मन में कहीं संकोच नहीं होता कि कोई गैर-कानूनी काम कर रहे हो?’
हैरानी भरे स्वर में वे मुझसे पूछ रहे थे ‘ गैर-कानूनी काम काहे का भाई साहब? मेरे पास आर0एम0पी0 का सर्टिफिकेट
है। मैं कोई ओझा, गुनिया या तांत्रिक और मोघिया थोड़ी हूं कि वगैर किसी जानकारी के मरीजों के स्वास्थ्य से खेल रहा होंऊं। मैं तो समाज की सेवा कर रहा हूं, इस काम को बहुत मेहनत से सीखा है मैने और वो भी एक हुनरमंद डॉक्टर की सोहबत में रहकर।’
आप को ये डॉक्टरी का हुनर कैसे मिला?’ मैंने पूछा तो वे मुझे बताते चले गए थे...।
.....देश के विभाजन के वक्त वे दस साल के थे। अपना घर-बार छोड़कर पाकिस्तान से भागे उनके पिता जब भारतवर्ष आये थे तो बिलकुल फांकाकसी की हालत में थे। सिवाय माँ के पहने सुहाग चिन्ह के, एक भी जेवर न था उनके पास। ऐसे तमाम शरणार्थी आये थे उस भागमभाग के दौर में। रियासत के ज़माने के खाली भवनों पर शरणार्थियों ने अपने ठिकाने बनाये और हर आदमी अपने लायक रोजगार खोजने लगा।
हमारे कस्बे के लोगों को ताज्जुब था कि वे सब के सब धंधे की तलाश में थे-किसी सरकारी या प्राइवेट नोैकरी की इच्छा तो किसी को न थी।
कस्बा अजीब-सी कशमकश में था, लोग एक-दूसरे से पूछते थे कि इतने लोगों के आने से कस्बे का जीवन तो प्रभावित नहीं हो जाएगा? जमे-जमाये व्यापारियों को चिन्ता थी कि उनका धंधा तो चौपट नहीं कर देंगे ये लोग धंधे में उतर के..। दर्जियों को लग रहा था कि इनकी औरतें कपड़े सिलने की मजदूरी तो नहीं छीन लेगी उनसे..
लेकिन वे लोग जल्दी ही कस्बे की जिन्दगीमें शामिल हो गये थे, सोसायटी का विशेष हिस्सा बनके। बेशक कुछ धंधों पर असर पड़ा। किराना, कपड़ा, मनिहारी सामान और जूतों के व्यापार में पूरी तैयारी से कूद पड़े थे वे, और आसपास
के कस्बों के बाजार पर छा गये थे। वे सिर्फ दो धंधों से दूर थे सराफा और गल्ला व्यापार से। कारण साफ था कि इन दोनों धंधों में व्यापारी की साख, पुराने रिश्तों का बड़ा हाथ होता है। फिर दोनों ही धंधों में उधारी भी ज्यादा होती है। जिसके लिए पूंजी की व्यवस्था शरणार्थियों के पास नहीं थी।
ऐसे में फकीरचंद के पिता ने महसूस किया कि वे कस्बे की तुलना में गांव में ठीक रहेंगे सो उन्होंने कस्बे से बीस किलोमीटर दूर के एक विकसित गांव को अपना लक्ष्य बनाया और वे अण्डाबच्चा से उस गांव जा पहुंचे थे। वहीं अपनी किराना-कपड़ा की छोटी सी दुकान खोल ली थी उन्होंने।
बालक फकीरचंद का स्कूल में एडमीशन हुआ। वहां से लौटकर दुकान पर बैठने की जिम्मेदारी डाल दी उस पर पिता ने। लेकिन फकीरचंद नमक, मिर्च ओैर दाल मसाले बेचने में अपने आपको असहज पाते थे, सो वे स्कूल से सीधे दुकान पर नहीं
जाते थे, बल्कि स्कूल के पास बने सरकारी अस्पताल में जाकर बैठ जाते थे। जहां के लोकप्रिय डॉक्टर सिंह साहब को फकीरचंद के पुराने देश बारे में दिलचस्पी थी और फकीरचंद से वे वहां की बातें रूचि लेकर सुना करते थे। कभी वे पशु चिकित्सालय चले जाते, जहाँ के डॉक्टरों का उन्हें फेंककर ढोर के पुट्ठों में इंजेक्शन लगाना बहुत मजेदार लगता था।
धीरे-धीरे वे अस्पताल का ही एक हिस्सा बनते चले गए। दस साल के फकीरचंद ने पहली कक्षा में प्रवेश लिया था तब अस्पताल में जाना शुरू किया और जब वे दसवीं में पहुंचे तब तक मरीज को इंजेक्शन लगाना, ड्रिप चढ़ाना तक सीख चुके थे । थर्मामीटर से बुखार लेना और कटे-फटे की ड्रेसिंग व स्ट्रेंचंग तो उनके लिए बहुत सरल काम था। पशु चिकित्सालय में जाते तो वहाँ के डॉक्टरों से अनुमति लेकर कभीकभार वे भी ढोरों पर फेंककर इंजेक्शन लगाने की कला में अपना हाथ आजमाने
लगे।
दसवें क्लास में वे बुरी तरह फेल हुए। बाप उन पर जबर्दस्त खफा थे-दुकान पर आता नहीं और मन लगाकर पढ़ता नहीं है, अब क्या करेगा तू? डॉक्टरी करेगा! आगे तो पढ़ाऊँगा नहीं कतई। जाओ, जो मन में आये सो करो।
........और वे सहसा डॉक्टरी करने का मन मना बैठे थे। पिता की दुकान पर छोटा भाई बैठता था सो वहाँ की चिन्ता न थी और फिलहाल भोजन की भी फ्रिक नहीं, सो देखेंगे कि भगवान क्या कराता है। तीन दिन तक लगातर कॉपी लेकर बैठे फकीरचंद ने सरकारी
डॉक्टर सिंह साहब से लगभग सौ तरह की बीमारियों के नुस्खे लिख लिये थे। एंटीवायटिक, एंटीएलर्जिक और एंटीवायरस के गुण विस्तार से लिखे थे उन्होने।
‘‘फकीर क्लीनिक’’ के नाम से गाँव के मोटर-स्टैण्ड के पास एक छोटी सी दुकान खुली तो गाँव वाले आल्हादित थे, ...बल्कि उत्सुक भी कि दस साल से सरकारी अस्पताल में काम सीख रहा यह बिना पढ़ा डॉक्टर कैसे इलाज कर पाता है भला।
शुरू में दवाई के रूप में केवल गोली-कॅप्सूल देते रहे वे मरीजों को। ...जख्मी लोगों की मलहम पट्टी करते रहे मुफ्त में। उनके इलाज में ज्यादातर लोगों का फीस और दवाई का बिल बनता था कुल मिलाकर दो रूपये, सो एक बार आजमा लेने के ख्याल से भी मरीज उनके पास चले आते। हाथ में जस था सो जिसे एक बार दवाई देते वो ठीक होकर उन्हें दुआयें देता लौटता। एक खास सावधानी रखी उन्होंने कि गम्भीर बीमारी में वे कतई हाथ न डालते थे।
एक तो सस्ता इलाज और ऊपर से टाइम-बेटाइम उनकी उपलब्धता ने खासा लोकप्रिय बना डाला उन्हें- सरकारी अस्पताल का तो समय भी तय था और सारी सरकारी छुट्टियों में बंद रहने की मजबूरी भी। बिना किसी प्रचार के गाँव से बाहर भी उनकी ख्याति फैलने लगी।
धीरे-धीरे उन्होंने इंजेक्शन लगाना शुरू किया। वे मरीज की बांह का निशाना ले फेंक कर, इंजेक्शन लगाते थे, .....हाँ पशु चिकित्सालय में सीखा हुनर वे इंसानों पर अजमाने लगे तो मरीज उन पर सौ जान से फिदा हो उठे। दर्द का पता भी न लगता और इंजेक्शन की सुई बांह या पुट्ठे के गद्दर मसल्स में जा धंसती फिर बिना दर्द के दवा भी शरीर में प्रविष्ट हो जाती। लोग उनके इंजेक्शन लगाने की अदा को देखने किसी न किसी बहाने उनके क्लीनिक चले आते और मंत्रमुग्ध होकर देखते कि छोटे छोटे बच्चे भी बिना ऊ... आ.... के डॉक्टर फकीरचंद से इंजेक्शन लगवा रहे हैं।
दुकान चल निकली तो फकीरचंद ने शिक्षा पर ध्यान दिया। उन्होंने प्राइवेट तौर पर मैट्रिक का फॉर्म भरा और पास भी हुए। फिर इंटर किया और प्राइवेट ही बी0ए0 करके आयुर्वेद रत्न की परीक्षा पास कर ली। इस परीक्षा के बाद वे प्रदेश सरकार के स्वास्थ्य विभाग में रजिस्टर्ड-मेडीकल-प्रेक्टिशनर बनने योग्य हो चुके थे, और उन्होंने अपना रजिस्ट्रेशन करा भी लिया। इस बीच पिता ने उनका ब्याह किया वे तीन बेटियों और एक छोटे से बेटा के पिता बन गये थे।
अब उनके क्लीनिक में हर तरह से इलाज होने लगा था। कटी त्वचा पर टांके लगते। इंजेक्शन लगते। बोतल चढ़ती। ब्लड-प्रेशर लिया जाता। वे कान में आला लगाकर बड़ी गंभीरता से मरीज की बीमारी सुनते, नब्ज पकड़ते और दवाई लिखना
शुरू कर देते। हजारों मरीज ठीक किए थे उन्होंने और अनुभव के मामले में वे अच्छे खासे एम.डी.से बढ़कर थे।
....कि एक साथ दो घटनाऐं घटीं। पिता का दिवाला निकला और उनको क्लीनिक बन्द करना पड़ा। इलाके में पिछले दो साल से पानी नहीं बरसा था तो खस्ताहाल किसान ग्राहकों ने पिछले एक माह से फकीरचंद के पिता की दुकान से सौदा-सट्टा
लेना न केवल कम कर दिया बल्कि पुरानी बकाया चुकाने के लिए कतई हाथ जोड़ लिए थे तो उनके पिता की आँखों के आगे अंधेरा छा गया था। लाखों रूपया उधार था किसानों पर उनका और सब डूबा तो वे सड़क पर थे। एक दिन उनके सीने में
दर्द हुआ और वे दुकान बंद कर घर चले गये। ठीक उसी दिन फकीरचंद के क्लीनिक पर अपनी मृतप्राय बच्ची लेकर आये एक किसान को डॉक्टर वापिस लौैटाने लगे तो वह बोला था कि हम तो उसे मरी ही मान रहे हैं तुम्हारे हाथ के जस से यह जी जाये तो इसका भाग्य। बुझे मन से फकीरचन्द ने इलाज शरू किया और इंजेक्शन लगाकर ड्रिप लगाई ही थी कि बच्ची ने आँखे नटेर दी। सहसा बच्ची के बाप की नजरें बदल गई। वह चीख चीख कर अपनी मासूम बेटी को मार डालने के लिए फकीरचंद को दोशी ठहराने लगा और डॉक्टर को काटो तो खून नहीं। गाँव के लोग तमाशा देखने जुटने लगे ठीक उसी वक्त घर से खबर आई कि पिता नहीं रहे। हां, पिता को हार्ट-अटैक हुआ था और वे घर पहुंचते ही खत्म हो गये थे।
...और यह समाचार सुन क्लिनिक बंद करके पिता की क्रिया के लिए घर लौट रहे फकीरचंद पर हमला हुआ। वे हाथ जोड़ते रहे माफी मांगते रहे, लेकिन लोगों को जाने कब कब की लगी बुझाना थी सो उस दिन बुरी तरह पिटे वे।
पिता की लाश को जलाकर लौटे तो घर पर मृतक बच्ची का बाप बैठा था दुबारा झगड़ने को। आखिरकार बिना किसी गलती के पांच हजार डांड़ भरके छूट सके और कान पकड़े उन्होंने उस गांव से। भैया मोहन ने दुकान बंद कर दी और उन्होंने
क्लीनिक। दोनों कस्बे में चले आये जहाँ वे फिर से ‘डॉक्टर फकीरचंद’ का बोर्ड लटका कर बैठ गए थे और भाई मोहन पास की दुकान में नया मेडीकल स्टोर खोल कर।
गाँव में सीखा इलाज का हुनर खूब काम आया। कम पैसा। कम दवाई। इंजेक्शन लगाने का दर्दहीन तरीका।
उसके साथ कई खासियतें थीं उनकी, हर आदमी से भाईसाहब और स्त्रियों से बहनजी कहना, बच्चों को बिस्कुट के पैकेट, अपंग भिखारियों को भरपेट भोजन और गरीब मरीज का मुफ्त इलाज करने के गुण ने लोकप्रिय कर दिया, ....और वे फिर से मरीजों से घिरने लगे । ज्यादा मरीज आये सो रूपया भी ज्यादा आने लगा और वे इसे ठीक ढंग से इनवेस्ट भी करने लगे। पन्द्रह साल के भीतर उन्होंने न केवल अपना मकान बनाया, दुकान खरीदी, बल्कि अपने छोटे भाई और तीनों बेटियों का ब्याह भी कर डाला था। बेटे ने बारहवां दर्जा पास किया और जब मेडीकल कॉलेज के प्रवेश की परीक्षा में सफलता नहीं पा सका तो उन्होंने खूब भाग-दौड़ करके उसे सोवियत संघ के किसी देश के मेडीकल कॉलेज में प्रवेश दिला दिया था।
सब कुछ ठीक चल रहा था कि उन्हें दूसरी बार अपयश मिला। बस स्टैण्ड पर खड़ी बस में किसी यात्री को हार्ट-अटैक हुआ जिसे उठाकर लोग उनके यहां ले आये थे। वे भला क्या जानें इस उलझाऊ बीमारी का इलाज? कुछ करने के नाम पर वे ब्लड प्रेशर ले रहे थे कि मरीज ने दम तोड़ दिया। वे फिर हैरान थे- हे भगवान बैठे ठाले क्या मुसीबत आ गई।
मरीज बाहर का था पुलिस ने उसकी जेब से डायरी निकालकर उसके घर खबर की और डॉक्टर को इतनी भर सजा दी कि वे लाश को मरीज के घर पहुँचानेका बन्दोवस्त करें।
फिर दो ऐसे मरीज मरे उनके यहाँ जिनकी मौत में उनका कतई हाथ न था, लेकिन हर बार उनके खिलाफ पुलिस रिपोर्ट होती और वे दरोगा सिपाही के हाथ जोड़ते नजर आते। जेब ढीली होती सो अलग।
उनके इलाज का मैं जबरदस्त फैन था। सर्दी जुखाम हो या लू , बुखार हो या बदहजमी, मैं उनके पास से छै खुराक दवायें लाता और टनाटन हो जाता।
कस्बे के इर्द-गिर्द के पच्चीस-तीस गांव से मरीज आते थे उनके पास। वे जितना कमाते उतना दान पुण्य भी कर लेते। ...सावन के महीने में एक विशाल भण्डारा कराते और पांच हजार लोगों को भोजन कराते। ...हर साल एक कन्या
का विवाह का खर्च उठाते । ...भूले-भटके परेशान लोगों को आर्थिक सहायता करते। पत्रकारों को भरपूर विज्ञापन देते।
लेकिन बहुत कृतघ्न है दुनिया ! इस बार मरीज की मौत क्या हुई सारे पत्रकार उनके खिलाफ थे। लोगों की मांग थी कि बिना डिग्री और लायसेंस के इलाज करने के जुर्म में उनके खिलाफ कार्यवाही हो। कुछ लोगों का बस चलता तो वे उन्हें फांसी पर लटकवा देते।
मिश्राजी अगले दिन पूरी बहस के मूड में थे ‘कल आप को वो गैर लायसंसी डॉक्टर बड़ा धनवंतरी लग रहा था, पूछ
रहे थे कि क्या अपराध है उसका? इससे बड़ा और क्या अपराध होगा उसका कि ना उसने शरीर विज्ञान पढ़ा, न भेषज विज्ञान! न उसे शरीर के चयापचय का ज्ञान है, न ही नाक-कान-गला और न्यूरो सिस्टम का। फिर भी धड़ल्ले से इलाज कर रहा है क्लीनिक खोल कर, मानो ये भी एक दुकानदारी हो गयी हो, ... अरे भाई पूरी दुनिया में कानून है कि मनुष्य का इलाज वही करेगा जो मनुष्य के शरीर, बीमारियो और भेषज विज्ञान का बाकायदा पूरा कोर्स कर चुका हो। तुम्हे शायद पता होगा कि विदेशों से लौटने वाले इन चिकित्सा-स्नातकों को भी हमारे देश में मेडीकल काउंसिल का एक इग्जाम देना होगा तभी वे प्रेक्टिस कर पायेंगे।’
‘...और ये जो तमान वैध लोग, यूनानी चिकित्सक, होम्योपैथी के दवा सलाहकार और यहां तक कि मोघिया लोग खुले आम हर बीमारी का इलाज कर रहे हैं उनके बारे में कोई कानून है या नहीं!’ मैं खुले आम कुतर्क पर उतर आया था।
‘कानून तो सबके लिए है , बस लागू करने वालो की कमी है।’ मिश्राजी व्यवस्था पर सारी जवाबदारी थोप रहे थे जो आज हरेक की आदत में शामिल है और मेैं समझ रहा था कि भले ही जवाबदारी किसी पर थोप रहे हों लेकिनगलत नहीं कह रहे थे। लेकिन मैं भी अपनी नाक कैसे नीची करा सकता था सो बाकयदा बहस में उलझा रहा।
....कुछ देर बार मिश्रा जी चले गये भुनभुनाते हुए।
जमानत पर रिहा होकर डॉक्टर फकीरचंद फिर से अपने क्लीनिक पर थे।
इस बार वे मुकम्मल बन्दोबस्त करने के मूड में नजर आ रहे थे। उन्होने आयुर्वेद में बैचलर डिग्री लिए एक डॉक्टर को अपना पार्टनर बना लिया था शायद, क्योंकि क्लीनिक पर उस दूसरे डॉक्टर के नाम की तख्ती लटक गई थी। ....लेकिन ऐसा ज्यादा दिन नहीं चला बस कुछ दिन बी0ए0एम0एस0 वाले इन डॉक्टर साहब की तख्ती गायब नजर आई हम सबको। फिर कुछ दिन बाद उनकी बदली और एक पैथालॉजिस्ट की तख्ती लटकी। .... और सप्ताह भर के भीतर वह भी हट गई।
और इन दिनों उनके क्लीनिक में दीवाल पर किसी एम0बी0बी0एस0 डॉक्टर के नाम की डिग्री लटकी हुई है । मुख्य काउण्टर पर उन डॉक्टर साहब के नाम की एक बडी और भव्य कुर्सी रखी हुई है। जबकि मायूस फकीरचंद महज कम्पाउंडर के रूप में काम करते दिखते हैं । हम सबको इंतजार है किसी नई घटना का... देखिये क्या होता
है !
जब तक उनका बेटा सोवियत रूस से अलग हुए उस यूक्रेन या ऐसे ही कोई नामालूम से देश से डिग्री लेकर नहीं लौटता डॉक्टर फकीरचंद को यही सब भुगतना है- और शायद हम सबको भी। अब जनाब मनुष्य शरीर है तो बीमारियां है, और बीमारी है तो इलाज भी जरूरी है न।
0000