यह कहानी है तिलिसमपूर की इतराँ की, जिसके बदन में चिट्ठियाँ बहती थीं। उसकी ज़िंदगी में अद्भुत शहर हैं, दिलकश लोग हैं, और इतनी मुहब्बत है जो जन्म-पार, कई आयामों तक उसका हाथ थामे चलती है। इतराँ को लगता है कि इश्क़ वो निर्णायक बिंदु है जिससे तय होता है कि ज़िंदगी का क़िस्सा मुकम्मल होगा या नहीं। इतराँ कहती है, ‘प्यार एक जैक्सन पोलॉक की पेंटिंग है। माडर्न आर्ट। ऐब्स्ट्रैक्ट। सबको उसमें अलग-अलग चीज़ें दिखती हैं। कुछ को तो एकदम समझ नहीं आतीं और उन्हें लगता है इससे ज़्यादा ओवर-प्राइस्ड और ओवर-हाइप्ड बकवास दुनिया में कुछ नहीं।’ इतराँ की हुकूमत तो सबके दिल पर चलती थी, लेकिन उसे ‘सरकार’ सिर्फ़ रूद्र कहता था। फ़्रेंड, फ़िलॉस्फ़र, फ़रिश्ता। ख़ुराफ़ातों का कैटलिस्ट, इतराँ की सारी मन्नतें ईश्वर तक पहुँचाने वाला। क़िस्से, कविताओं और शहरों के आवारापन को इतराँ के दिल में रोपता। इतराँ की ज़िद पर उसे व्हीली सिखाता और चोट लगने पर पहले हँसता, फिर मरहम-पट्टी करता। इतराँ की कमोबेश सारी चिट्ठियों का पता। मेघ रंग आँखों वाला मोक्ष, जो आलू बहुत अच्छा उबालता था, बीन्स रोस्ट करके कॉफ़ी बनाता था और लिखता था, दिलचोर चिट्ठियाँ। जिसके पास हर मौक़े के लिए एक सटीक कविता होती। हसरतों के शहर में ख़ुसरो की मज़ार पर चढ़ाता, इतराँ के हिस्से के ख़ुशबूदार, लाल गुलाब। चोट लगने पर ख़ुश होकर ब्रेख़्त सुनाता, ‘What’s left of kisses, wounds however, leave scars.’ मोक्ष, जिसके काँधे से अलविदा की ख़ुशबू आती। मोक्ष जब चला गया तो इतराँ ने तमाम अधूरी ख़्वाहिशों का एक शहर बसा लिया, जो कि एक ऑल्टरनेट दुनिया था। शहर मिटना नहीं चाहता था, कि उसे लगता इश्क़ समयातीत है और शहर, अनश्वर। ‘इश्क़ तिलिस्म’ एक ख़ानाबदोश क़िस्सा है, कई आयामों में ख़ुद को पूरा करने की क़वायद में भटकता। यहाँ ठहरने की जगह है। पाठक से गुज़ारिश है कि इस क़िस्से को इत्मीनान से पढ़ें, कि आप इसके सम्मोहन में देर तक खोए रहेंगे।
0 फ़ॉलोअर्स
2 किताबें