(गुरुदत्त की पुण्यतिथि पर विशेष)
अगर आप फ़िल्मों में ज़रा भी रूचि रखते हैं तो उम्र आपकी कुछ भी हो, गुरुदत्त का नाम सुनते ही इतना तो यक़ीनन बता देंगे कि ये नाम किसी नामी एक्टर-प्रोड्यूसर-डायरेक्टर का है I और, अगर आप फ़िल्मों में इन्ट्रेस्ट रखते है मगर मिस्टर एंड मिसेज़ 55, प्यासा, कागज़ के फूल, चौदहवीं का चाँद और साहब बीवी और गुलाम जैसी फिल्में नहीं देखीं, तो ये कहिये कि अभी आपने फिल्में नहीं देखीं I
गुरुदत्त की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में ‘बाज़ी’ शामिल नहीं है लेकिन यह फ़िल्म उनके एक लम्बे फ़िल्मी सफ़र के लिए, एक अहम् शुरुआत ज़रूर कही जाती है I यह उनके फ़िल्मी करीअर का शुरुआती दौर था I अभिनेता देव आनन्द ने ‘नवकेतन’ की इस फ़िल्म की ज़िम्मेदारी अपने दोस्त गुरुदत्त को दी थी I इस प्रोजेक्ट में उन दोनों की दोस्ती का वो अटूट बन्धन साथ था जिसकी आज भी मिसाल दी जाती है I एक समय ये कहा जाता था कि ‘बाज़ी’ में देव आनन्द ने गुरुदत्त को स्थापित करने की कोशिश की I इसी के साथ कुछ फ़िल्मी पंडितों ने ये भी माना कि गुरुदत्त ने देव साहब के टैलेंट को निखारकर बतौर हीरो उन्हें एक अहम् मुक़ाम दिलाने की कोशिश की । फ़िल्म ‘बाज़ी’ में इन दोनों उस्तादों का साथ होना, प्रभात स्टूडियो, पुणे में दोनों की हुई दोस्ती का विस्तार था I कहते हैं धोबी की गलती से दोनों की कमीजों की अदला-बदली हो गई और इसी बहाने आपस में दोस्ती हो गई । दोनों ने एक-दूसरे से वायदा किया कि क़ामयाब होते ही एक-दूसरे को मौक़ा देंगे I
देव आनन्द पहले क़ामयाब हुए और उन्होंने गुरुदत्त को नवकेतन बैनर की पहली फ़िल्म ‘बाज़ी’ सौंपी i यह फ़िल्म दोनों के करियर की टर्निंग पॉइंट बन गई । 1951 रिलीज़ ‘बाज़ी’ की शूटिंग फेमस स्टूडियो में हुई और इस फ़िल्म ने जॉनी वाकर और कल्पना कार्तिक को भी ब्रेक दिया । इसकी कहानी गुरुदत्त और बलराज साहनी ने लिखी थी । पटकथा में फ़िल्म के मुताबिक़ कुछ परिवर्तन करने पड़े, जो बलराज साहनी को पसन्द नहीं आए । बाद में वो इस फ़िल्म से अलग हो गए । इसी फ़िल्म के लिए एस.डी. बर्मन ने कुछ नई धुनें बनाईं । हालांकि, उस वक़्त वो धुनें ज़्यादा पसंद नहीं की गईं लेकिन बाद में उनकी लोकप्रियता ने एस.डी. बर्मन के जादू को सावित कर दिखाया । ‘बाज़ी’ से ही गीतकार साहिर लुधियानवी उस दौर के श्रेष्ठ गीतकार के रूप में जाने गए ।
कहा जाता है कि ‘बाज़ी’ के गीत ‘तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले...’ को देखने के लिए दर्शकों की भारी भीड़ उमड़ती थी । रिलीज़ के पहले इस गीत की कामयाबी के प्रति खुद सचिन दा आश्वस्त नहीं थे । लेकिन, फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद सचिन दा ने कोलकाता में कुछ मछेरे बच्चों को तोतली जुबान में इस गीत को गाते हुए सुना तो उन्हें देव आनन्द और गुरुदत्त के विश्वास पर सुखद आश्चर्य हुआ । तकनीकी नज़रिए से ‘बाज़ी’ आज भी एक उम्दा फ़िल्म मानी जाती है । वास्तव में यह फ़िल्म देव साहब और गुरुदत्त की सफलता की कहानी है । अफ़सोस ! न वो वक़्त रहा, न ऐसी दोस्ती और ना ही ऐसे समर्पित फ़नकार...