बूढ़ा बरगद ,जिसपर इठलाती ,बलखाती लता झूल रही थी ,चिड़ियों का कलरव उनके नीड़,थके पथिकों को अपने वृक्ष तले पनाह देते ,हवा के झोंके जैसे लोरी सुनाते हुए थके पथिक की थकान मिटाते शान से अचल खड़ा था।
एक दिन लता ने हंसते हुए अहंकार से कहा _ सुन बूढ़े तुम इतने वर्षों से यूं ही पड़े हो ,और मुझको देखो महज दो महीनों में मैने तुम्हारी ऊंचाई छू ली,और देखना कोई और सहारा मिला तो तुमसे भी ऊंची होकर दिखाऊंगी।
वृद्ध बरगद हंसा और गंभीर होकर बोला _सुन री लता ,तुझे हर जगह सहारा चाहिए ,तुझे हवा के थपेड़े गिरा देते हैं,और तेरी जैसी कितनी लताएं पनपी और मुरझा गई, पर मैं सालों साल यूं ही खड़ा हूं।
यही फर्क है तुममें और मुझमें मैं जमीन से जुड़ा हुआ हैं,मेरी जड़ें जमीन के अंदर बहुत दूर तक गईं हैं,इसलिए मैं टिका हूं ,अपने साथ साथ तुम जैसे कितनों का भरण पोषण कर रहा हूं।वायुमंडल को शुद्ध बना रहा हूं कि सभी जीव सांस ले सकें।
यह बात सुन लता शरमा गई ,उसका दंभ चूर चूर हो गया।
समाप्त