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कबीरदास की जीवनी

17 अक्टूबर 2022

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कबीरदास की जीवनी

कबीरदास जी ने हिंदी साहित्य की 15 वीं सदी को अपनी रचनाओं के माध्यम से श्रेष्ठ बना दिया था। वह ना केवल एक महान् कवि थे, बल्कि उन्होंने एक समाज सुधारक के तौर पर भी समाज में व्याप्त अंधविश्वासों, कुरीतियों और पाखंड के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की थी।

कबीरदास जी वैसे तो भक्तिकाल की निर्गुण शाखा से संबंध रखते थे, लेकिन इनके द्वारा कहे गए वचनों का पालन आज भी समस्त धर्मों के लोग किया करते हैं। इतना ही नहीं इन्होंने जीवन पर्यन्त मानव समाज को सत्य और न्याय के मार्ग पर चलने के लिए प्रशस्त किया।

जिसके कारण कबीरदास का नाम आज भी हिंदी भाषा के महान् कवियों की श्रेणी में आदर के साथ लिया जाता है। ऐसे में आज हम आपके लिए कबीरदास की जीवनी हिंदी में लेकर आए हैं। जिसे पढ़कर आप अवश्य ही कबीरदास जी के जीवन से रूबरू होंगे।

कबीरदास का जन्म

कबीरदास के जन्म को लेकर कई सारी भ्रांतियां मौजूद है। विभिन्न स्रोतों की मानें तो कबीरदास ने वर्ष 1398 में एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से जन्म लिया था। जिन्हें स्वामी रामानंद से पुत्रवती होने का वरदान मिला था। लेकिन लोक लाज के भय के कारण वह इन्हें काशी के लहरतारा नामक तालाब के पास छोड़ आई थी।

जहां एक गरीब मुस्लिम दंपति जिनका नाम नीरू और नीमा था। उन्होंने कबीरदास का पालन पोषण किया। हालांकि कुछ लोग उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के बलहरा गांव को भी कबीर की जन्मस्थली मानते हैं। इस प्रकार, जन्म के उपरांत से ही कबीरदास जी के ऊपर हिन्दू, मुस्लिम और सिख तीनों ही धर्मों का गहरा प्रभाव पड़ा था।

और कबीर के काशी में जन्म का प्रमाण इनके इस दोहे से भी मिलता है कि….

चौदह सौ पचपन साल गए,चन्द्रवार एक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासीतिथि प्रगट भए।।

घन गरजें दामिनी दमके बूंदें बरषें झर लाग गए।
लहर तलाब में कमल खिले तहं कबीर भानु प्रगट भए।।

इनके परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। जिस कारण कबीरदास जी कभी पढ़ लिख नहीं सके। लेकिन उनकी हिंदी, पंजाबी, हरियाणवी, अवधी, राजस्थानी भाषा समेत ब्रज भाषा आदि पर पकड़ अच्छी थी। जिसके चलते कबीरदास जी के मुख से उच्चारित उनकी समस्त रचनाओं का संकलन उनके शिष्यों ने किया। कबीरदास जी की शिक्षा पर एक दोहा भी काफी प्रचलित है कि…..

मसि कागद छुवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।।

कबीरदास जी आरंभ से ही वैष्णव संत आचार्य रामानंद को अपना गुरु मानते थे। लेकिन आचार्य रामानंद ने कबीरदास को अपना शिष्य बनाने से इंकार कर दिया था। ऐसे में कबीरदास जी ने आचार्य रामानंद से गुरू मंत्र प्राप्त करने की एक योजना बनाई।

जिसके चलते वह एक बार गंगा तट के समीप पहुंचे। जहां प्रातः काल के समय आचार्य रामानंद स्नान के लिए जाया करते थे। कबीरदास जी ने सोचा कि जब आचार्य रामानंद स्नान के लिए गंगा तट पर जाएंगे। तब वह उसी तट की सीढ़ियों पर लेट जाएंगे।

फिर एक दिन जब आचार्य रामानंद गंगा तट पर पहुंचे। तब कबीरदास जी वहां सीढ़ियों पर जाकर लेट गए। और जैसे ही आचार्य रामानंद सीढ़ियों से नीचे उतरे। कि तभी उनका पैर कबीरदास के ऊपर पड़ गया और उसी समय आचार्य रामानंद के मुख से निकले ‘ राम – राम ‘ शब्द को कबीरदास ने गुरू मंत्र मान लिया।

और जीवन पर्यन्त उसी की आराधना करने लगे। कबीर ने गुरु की प्रशंसा में लिखा भी था कि….

काशी में पर भये, रामानंद चेताये।।

इन्होंने अपनी जीविका को चलाने के लिए जुलाहे का कार्य भी किया था। जिस पर वह कहते भी थे कि….

जाति जुलाहा नाम कबीरा बनि बनि फिरो उदासी।।

इनका विवाह लोई नामक स्त्री से हुआ था। जोकि वनखेड़ी बैरागी की कन्या थी। जिनसे इन्हें कमाल और कमाली नामक पुत्र और पुत्री की प्राप्ति हुई थी। तो वहीं कबीरदास जी के विवाह को लेकर कुछ का मानना है, कि लोई कबीरदास जी की शिष्या हुआ करती थी।

जिनसे आगे चलकर कबीरदास जी ने विवाह कर लिया होगा। उन्होंने अपनी पत्नी और वैवाहिक जीवन के बारे में भी कई सारे दोहों की रचना की थी। साथ ही कबीरदास जी हिन्दू और मुस्लिम धर्म दोनों के ही प्रवर्तक थे।

इसलिए इनके घर हिन्दू मुस्लिम दोनों ही संप्रदाय से जुड़े लोगों का आना जाना लगा रहता था। कबीरदास जी एक निडर स्वभाव के व्यक्ति थे। जो सत्य बोलने से कभी नहीं डरते थे। वह साधु संतों के साथ नगर भ्रमण पर जाया करते थे और लोगों को वचन उपदेश दिया करते थे।

इतना ही नहीं जो लोग कबीरदास जी की आलोचना किया करते थे, वह उनको भी अपना हितैषी मान लेते थे। जिसपर कबीरदास जी ने लिखा भी है कि…..

निंदक नियरे राखिये,
आंगन कुटी छवाय।

बिन पानी साबुन बिना,
निर्मल करे सुभाय।।


कबीरदास जी का व्यक्तित्व

कबीरदास जी सदैव लोगों को अच्छे विचारों को ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया करते थे। वह एक साधारण जीवन जीने वाले व्यक्ति थे। जिन्होंने जीवन भर मूर्ति पूजा और धार्मिक कर्म कांड का पुरजोर विरोध किया। उन्हें हिन्दू धर्म से जुड़े पंडितों और मुस्लिम धर्म से जुड़े मौलवियों दोनों के ही कर्म काण्ड उचित नहीं लगते थे।

वह सदैव समाज के लोगों को आडंबरों से युक्त जीवन जीने की सलाह दिया करते थे। वह लोगों को उनकी स्थानीय भाषा में विचारों का आदान प्रदान करने को भी कहा करते थे। साथ ही वह सदाचार और अहिंसा के गुणों का पालन किया करते थे।

कबीरदास जी की मृत्यु

इनकी मृत्यु के विषय में कहा जाता है कि अपने जीवन के अंतिम दिनों में कबीरदास जी काशी से मगहर चले गए थे। क्योंकि उस समय ऐसी मान्यता थी कि जो व्यक्ति काशी में प्राण त्यागता है, उसे स्वर्ग मिलता है। और जो व्यक्ति मगहर में आखिरी सांस लेता है, वह नरक का भोगी होता है।

परन्तु कबीरदास जी इस मान्यता को तोड़ने के उद्देश्य से मगहर चले गए। जहां इन्होंने वर्ष 1518 में प्राण त्याग दिए। इनकी मृत्यु के संबंध में एक दोहा प्रचलित है कि…..

जौ काशी तन तजै कबीरा।
तो रामै कौन निहोटा।।

हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि कबीरदास के शत्रु नहीं चाहते थे कि वह काशी में प्राण त्यागे। इसलिए उनके शत्रुओं ने ही उन्हें मगहर भेज दिया था। तो वहीं इनकी मृत्यु के बाद हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के लोगों में इनके अंतिम संस्कार को लेकर कुछ कहा सुनी हो गई थी। क्योंकि जहां मुस्लिम समाज के लोग इनके शरीर को दफनाना चाहते थे।

तो वहीं हिन्दू धर्म के लोग इनके शरीर को जलाना चाहते चाहते थे। कहते है इसी दौरान कबीरदास के शरीर के स्थान पर उन लोगों को कुछ फूल बिखरे पड़े दिखाई दिए। जिसको दोनों समुदाय के लोगों ने आपस में बांट लिया। ऐसे में जहां हिन्दू समाज के लोगों ने उन फूलों को जला दिया।

तो वहीं मुस्लिम समाज के लोगों ने उन फूलों को दफना दिया। इस प्रकार, कबीरदास जी मृत्यु के पश्चात् भी समाज में व्याप्त धार्मिक और सामाजिक भेदभाव को कम करने के लिए प्रयासरत रहे। और अपने इन्हीं गुणों के चलते वह हम सभी भारतीयों के दिल में सदैव ही अमर रहेंगे।

कबीरदास की रचनाएं – Kabir das ki rachnaye

कबीरदास जी की रचनाओं का संग्रह बीजक कहलाता है। जिसमें कबीरदास के दोहे मुख्यता तीन रूपों में रचित किए गए हैं- साखी, सबद, रमैनी। इसके अलावा भी कबीरदास की रचनाओं के 72 संग्रह मौजूद है। जिनमें कबीर ग्रंथावली, कबीर दोहावली, राम सार, ज्ञान सागर, अलिफ नाफा, रेख़ता, उग्र गीता, कथनी, ज्ञान गुदड़ी, भक्ति के अंग, अनुराग सागर, कबीर अष्ठक, काया पंजी, जन्म बोध, वारामासी, मगल बोध, विवेक सागर, ज्ञान सरोदय और कबीर की वाणी आदि में कबीरदास जी की वाणी लिखी हुई है।

इतना ही नहीं मानव जीवन और मौजूद धर्मों से जुड़ा ऐसा कोई विषय नहीं है, जिसपर कबीरदास जी ने अपनी वाणी में कुछ कहा ना हो। इसलिए वह हिंदी काव्य जगत के श्रेष्ठतम कवियों की श्रेणी में उच्चतम माने जाते हैं। उन्होंने समाज में व्याप्त बुराइयों के विरोध में सदैव ही अपनी रचनाओं को जीवित रखा। ऐसे में कबीरदास जी हिंदी काव्य के एक महान् कवि और भारतीय समाज के प्रसिद्ध सूफी संत थे।

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