वर्ष 2015 में बैगलुरु-कर्नाटक से Pratilipi.com ने घोषणा की है कि दस हज़ार से अधिक कहानियों
में से 15 कहानियाँ ऐसी हैं, जो कि सबसे अधिक पढ़ी गई हैं और
उनके पाठकों की (रेटिंग) संख्या के आधार पर उन्हे श्रेष्ठ माना जाए, ऐसा साफ तो नहीं लेकिन मन्तव्य यही है। पहले स्थान पर मुंबई की शील निगम
की ‘रेपिस्ट’ कहानी है, जिसके पाठक 27259 हैं और यह संख्या निरंतर में बढ़ रही है। मैं कहानी की
सफलता पाठकों द्वारा वेब पर पढ़ी गई संख्या के आधार पर मानूँ,
कदापि संभव नहीं हो सकता है। सत्य तो यह है कि वेब पर पाठक जब सर्च करता है और
सर्च के दौरान पृष्ठ खुलता है, तो अपने आप एक संख्या दर्ज हो
जाती है। इसे पढ़ा जाना मानना बिलकुल भी प्रामाणिक नहीं है। होता यूं भी है कि
कहानी का शीर्षक पाठक को आकर्षित करता है और पाठक उस कहानी पर क्लिक करता है, तो पढ़ा जाना मान लेना सही नहीं है। यह तकनीक का भी कमाल है और आपसी मानवी
व्यवहार द्वारा बनाए गए सम्बन्धों का भी कमाल है कि सभी परिचितों को कहानी पढ़ने का
संदेश भेजना और कहना कि मेरी कहानी इस वेब पर मौजूद है,
कृपया पढ़ें, क्योंकि ऐसे संदेश लगातार मेरे पास भी आते हैं।
फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सअप तथा अन्य मध्यमों
के द्वारा यह कार्य बड़े आसान तौर पर किया जा रहा है, कुछ हाथ
वेब साइट का भी मानता हूँ, जो पाठकों तक कहानी अथवा रचना की
सूचना पहुंचाते हैं। एक बात और यहाँ कहूँगा कि यूं तो पाठक को किसी वर्ग में बंटा नहीं
मानता, लेकिन तकनीक के आजाने और उसे अपनाने से पाठक दो
वर्गों में विभाजित हो गया है, एक वह जो पत्रिकाओं, अखबार, पुस्तकों के माध्यम से कहानी/रचना पढ़ रहा है
और दूसरा वह जो इंटरनेट और कंप्यूटर/मोबाइल का उपयोग करते हुए कहानी/रचना पढ़ रहा
है। पाठकों की कहानी पढ़ने के संबंध में सही गणना करना दुष्कर है, सही गणना नहीं की जा सकती है। केवल आंकड़ों पर किसी कहानी को बहुत अधिक
प्रसिद्ध मान लेना, कहानी विधा के साथ अन्याय कहूँगा। कारण
यह है कि गद्य की सबसे सशक्त विधा कहानी है और इसके आंतरिक गठन, संवाद भाषा, पात्र, यथार्थ, सामाजिक सरोकार, परिदृश्य और समय-काल के विषय में
अधिक चेतना होना आवश्यक मानता हूँ और इसपर अधिक ज़ोर देकर खुले मन से इस पर चर्चा
करना भी आवश्यक मानता हूँ। एक बार रचनाकर ने अपनी रचना समाज को सौंप दी, तो वह समाज की हो जाती है, उसपर क्रिया-प्रतिक्रिया
होना आवश्यक हो जाता है। मैं यहाँ कहानी की निंदा करने के उद्देश्य से कोई बात
नहीं कहूँगा, बल्कि उसके आंतरिक गठन और सशक्तता-अशक्तता के
विषय में विचार कर रहा हूँ। इन 15 रचनाकारों की कहानी को लेकर मेरे मन में कई सवाल
उठ रहे हैं, जिन्हें खुले मन से आलोचनात्मक ढंग से प्रस्तुत
कर रहा हूँ। यह प्रश्न केवल प्रश्न करने के लिए नहीं किए गए हैं या रचनाकार को
किसी भी तरह की अपनी विद्वता दर्शाने के उद्देश्य से नहीं हैं और न ही उनकी कोई
निंदा या रचनात्मक अपमान, के लिए किए गए हैं, बल्कि कहानी पर सार्थक संवाद के लिए किए गए हैं। सब कहानियों को लेकर प्रश्न
करूंगा यह निश्चित नहीं है, इन 15 कहानियों में कुछ कहानी
शिल्प को लेकर अद्भुत और आंतरिक गठन को लेकर अत्यंत सजीव भी हैं। हर रचनाकर का
अपना दृष्टिकोण होता है और वह कई चीजों, अवस्थाओं से गुजरकर
रचनाकार बनता है, इसलिए प्रत्येक रचनाकार अपने में विशिष्ट
और विविधता लिए हुए है, इसी से रचना में भी विविधता कई
स्तरों पर देखी जा सकती है।
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शील निगम (मुंबई)
कहानी - रेपिस्ट
पाठक संख्या : २७२५९
मुंबई की हिन्दी
रचनाकार शील निगम की कहानी ‘रेपिस्ट’
कुल मिलाकर एक जीवन की दीर्घकाल की घटना को समेटी हुए एक साधारण सी
कहानी है, ऐसी कहानियाँ अखबार के लिए अक्सर लिखी जाती हैं। ‘रेपिस्ट’ की नायिका विमला है,
जिसके जीवन को केंद्र बनाकर कहानी रची गयी है। ये कहानी एक कहानी के प्लाट की ही
रचना करती है, कहीं भी कहानी में कहानी का एक ऐसा वातावरण
नहीं उभरा, जो कहानी को दृश्यात्म्क बनाए। जीवन के बहुत बड़े
फ़लक पर कहानी की रचना है, जिसमें विमला के जीवन के 16 वर्ष
बाद विवाह से लेकर उसकी आत्महत्या की एक कथा है, जो सपाटबयानी
से तेज़ गति में चलती हुई तेज़ी से समाप्त हो जाती है। कोई भी ऐसा बेग्राउंड कार्य
नहीं कर रहा है, जिससे कोई बिम्ब या चित्र बन पाए। कहानी में
जुड़वां बच्चे होते हैं जिसमें उसी समय पर यह भी न दर्शाया गया है कि बच्चे लड़का है
या लड़की? इसके अतिरिक्त विमला का तीसरा बच्चा होता है, वह भी अंत में पता चलता है कि वह एक लड़की है। कहानीकार का दायित्व बनता
था कि विमला का पति यदि फ़ौज में था, तो कैसे और कब फ़ौज में
भर्ती हुआ साथ ही यह भी दर्शाना था कि वह किस रेजीमेंट का फ़ौजी था, उसकी रैंक क्या थी और किस रैंक से रिटायर हुआ? विमला
के पति का फ़ौज छोड़ देना, कहानी को कमज़ोर बना रहा है, क्योंकि फ़ौज को ऐसे ही नहीं छोड़ा जा सकता है, उसकी
कई कंडीशन होती हैं, साथ ही 15 वर्ष की सेवा के पहले फ़ौज
छोड़ी ही नहीं जा सकती है। अगर उसने VRS लिया भी होता तो वह
पेंशनधारी होता, इसके साथ जब कोई फ़ौजी नौकरी छोड़कर आता है, तो उसे सरकार फिर से नौकरी में रखती है और वह भी उस बेसिक से जो उसका
अंतिम बेसिक था। साथ ही कैंटीन से लिकर कार्ड भी मिलता है,
जिससे वह शराब भी ले सकता है। कहानी में विमला की नौकरी लग भी जाती है और कुछ समय
बाद वह छोड़कर भी आजाती है, वह नर्सिंग के कोर्स के बाद कहाँ
पर, किस अस्पताल में, किस शहर में
नौकरी करती है? इसका कोई उल्लेख न होना कहानी को शीघ्रता से
समाप्त करने की सरासर जल्दबाज़ी है। राजन क्या अपने पैतृक निवास पर रहा रहा था? यह बात भी स्पष्ट नहीं और यह भी स्पष्ट नहीं कि विमला का जेठ कहाँ पर, कैसे, रह रहा था उसके परिवार की क्या दशा थी, वह क्या कार्य करता था जीवन यापन के लिए? विमला की
जेठानी कहाँ की थी, उसका नाम क्या था,
उसके कितने बच्चे थे? यह समस्त प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते
हैं। साथ ही विमला के पति राजन का स्थानांतरण किस शहर में हुआ इसका कोई उल्लेख
नहीं जो अत्यंत आवश्यक था। यह आवश्यक इसलिए हो जाता है,
जिससे पाठक को पता चलता है कि पात्र कब और कहाँ किस समय में रह रहे हैं। देवर की
भूमिका का उल्लेख कहानी में केवल इतना है कि विमला के पहलीबार माँ बनने के समय
देवर का संकेत मिलता है, उसके पश्चात राजन के बच्चे को अलग-अलग
जब भेजा जाता है तब उल्लेख ज़रा सा है। कहानी से देवर और ननद कमला की कोई भी
सामाजिक पारिवारिक भूमिका ही नहीं वो कहाँ हैं, क्या करते
हाँ, कैसे जी रहे हैं कोई उल्लेख नहीं?
जबकि कमला विमला की सहेली थी इस नाते उसकी सहायता हेतु उसे सबकुछ पता चल जाना था।
कमला कहाँ है, उसका विवाह हुआ या नहीं इसका भी कोई ज़िक्र
कहानी में नहीं आ पाया है। जहां तक कहानी में उल्लेख है कि राजन के दो भाई हैं, तो तीन बच्चों को तीनों भाइयों के यहाँ कैसे भेजा जा सकता है? कहानी की एक कमजोरी यह भी है कि विमला की सास की भूमिका तो थोड़ी बहुत
दिखाई दे रही है, लेकिन बाद की कहानी में ससुर का कोई अता
पता ही न रहा? कहानी में बच्चे और विमला सो रहे थे कहाँ सो
रहे थे नहीं पता? घर का हुलिया क्या है नहीं पता? अगर वह दोनों भाई शराब पीकर खाना खाने गए और रात को बारह बजे लौटे, तो क्या विमला बिना कुंडी लगाए सो गई? उसे अपने घर
की सुरक्षा का कोई ख्याल नहीं? अगर घर में आँगन भी होता तो
वह कुंडी या तो आँगन के दरवाज़े की कुंडी लगाकर रखती या आँगन न भी होता, तो घर की कुंडी तो महिलाएं अक्सर लगा ही देती हैं। विमला कान बंद करके
दूसरे कमरे में दौड़ जाती है, उसका कान बंद करना हास्यास्पद
और कहानी में मिस फिट नज़र आता हैं। ठीक इस घटना पर विमला के पति राजन का संवाद है-
“कान खोल कर सुन ले विमला, अगर तुझे इस घर में रहना है तो
रंजन भाईसहब की बात माननी होगी।” पहलीबार रंजन द्वारा किया जाने वाला बलात्कार का
प्रयास विफल था और उस समय रंजन द्वारा विमला से किये जा रहा संवाद की भाषा पत्रों
के अनुरूप है ही नहीं, वह पूरा संवाद संवादात्मकता के तौर पर
आधारहीन है। यह संवाद कहानी में दो बार प्रकारांतर से आया है, जो रिपिटेशन का शिकार हुआ है।
अंतत: कहना
होगा कि कहानी विमला के बहुत बड़े जीवन को केंद्र को समेट रही है, जो कि एक लंबे जीवन की गाथा है, उसे यूं कहानी में
बांधकर तत्परता और शीघ्रता से समाप्त कर देना कहनी के भीतर कई प्रश्नों को स्वतः उभार
जाना है। भाषा के स्तर से कहानी सपाट बयानी की कहानी है और साधारण सी बोलचाल की
भाषा का प्रयोग किया गया है। संवादों का इस्तेमाल पात्रों के अनुरूप न होकर कहानीकार
के अनुरूप हो गया है। रंजन, राजीव और राजन नाम भी भ्रम
उत्पन्न करने वाले हैं जो पाठक को भ्रमित करते होंगे, कारण
यह है कि ये तीनों नाम एक जैसे ही नज़र आते हैं थोड़ा सा अंतर है, कमला और विमला मैं भी यही स्थिति है। यह कहानी यथार्थ के धरातल पर सृजित
कहानी न होकर काल्पनिक आधार पाकर रची हुई अधिक लग रही है और कल्पनात्मक कहानी अधिक
कारगर तथा सामाजिक सरोकारों से युक्त हो मेरे गले नहीं उतरती है। फिर भी कहानी का
विषय स्त्री जीवन की उस दर्दनाक घटना का वर्णन करता है, जिसमें
स्त्री को पुरुष वर्ग से बलात होने का अन्याय सहन करना पड़ता है। विमला ऐसे ही पात्र
का प्रतीक है, जो हमारे देश में कई जगहों पर पाया जा सकता
है। शारीरिक और मानसिक बलात किसी भी स्त्री को मौत के मुंह में आसानी से ले जा
सकता है और ऐसी दु:खद घटनाएँ आम जीवन में लगातार हो रही हैं।
मूल कहानी इस लिंक http://www.pratilipi.com/blog/4565453695352832 पर पढ़िये।
©डॉ.मोहसिन ख़ान
हिन्दी विभागाध्याक्ष एवं शोध निर्देशक
जे.एस.एम.
महाविद्यालय,
अलीबाग
– 402 201
(महाराष्ट्र)
२. मृदुल पाण्डेय
कहानी - चीनी कितने चम्मच
पाठक संख्या : २६७८४
मृदुल पाण्डेय की कहानी ‘चीनी कितने चम्मच’ भारत में पुरुषों की तथा भारतीय परिवार की मानसिकता में स्त्री के प्रति बाज़ारवादी रवैये को चोट पहुंचाती एक घटना को केन्द्रित करती लघु कहानी है। यह कहानी लघु है, लेकिन संदेशात्मक मारक क्षमता में कहीं कमी न आने पाई है, एक लड़की को किस प्रकार बाज़ार के तौर-तरीकों से परिवार के सदस्यों द्वारा विवाह के लिए पेश किया जाता है और उससे उसकी मानशा, चुनाव के अधिकारों से वंचित रखकर उसे नमूना एवं वस्तु से अधिक नहीं समझा जाता है। कहानी भारतीय रूढ़िवादिता से टकराती है और इस टकराव में एक प्रहार छिपा है, जो समय की मांग को पहचान रहा है, भारतीय रूढ़िवादिता की ज़मीन को कुरेद रहा है। कहनी भारतीय परिवार की उस दशा को चित्रित करती है, जहाँ बेटियों को बोझ समझा जा रहा है और बेटे की चाह में बच्चे पैदा करने का पुरुष हर बार चांस ले रहे हैं और विफल होने पर स्त्री जाति को दोष देते हुए, उनके प्रति हिंसात्मक व्यवहार करते रहना है। यह कहानी स्त्री जीवन की पीड़ाओं को व्यक्त करने के साथ उनकी आश्रितता, नई पीढ़ी के विद्रोह और आत्मनिर्भरता को भी दर्शाती है। नई पीढ़ी जिसे अनियंत्रित और अनुभवहीन समझकर सतही तौर पर लिया जाता है और उनके सपनों पर अंकुश लगाया जाता है। यह ऐसे अंकुशों को ढीला करते हुए, स्त्री मुक्ति की दास्तां का एक पृष्ठ रच रही है।
कहानी
की शुरूआत एक उत्सुकता से हुई, लेकिन जहाँ
नायिका रुचि मिश्रा जो बैंक ऑफ विमेन्स की ज़ोनल हैड है, उससे
नायक का बातों की औपचारिक शुरूआत न दर्शाना कहानी में एक गैप पैदा करता है, जो कि कहानी का कमज़ोर हिस्सा बनता है और यहीं कहानी असहज सी दिखाई देती
है। औपचारिकता को नज़रअंदाज़ करके सीधे नायिका के आंतरिक जीवन में प्रवेश कर जाना, मुझे लगता है यह कहानी को कुछ अधूरा सा बना रहा है एक गैप को रच रहा है। कहानी
में ट्रेन के किस तरह के कोच में रिज़र्वेशन है? क्या वह
स्लीपर क्लास है या AC का कोई कोच ? यह
न दर्शा पाना कहानी को हवा में चलाने जैसा बना रहा है,
क्योंकि कोच के आधार पर कहानी के वातावरण की रचना होनी थी,
जो हो न पाई और इससे कहानी यथार्थ से गमन करती नज़र आती है। इस कहानी के आंतरिक गठन
की एक कमी यह भी मान रहा हूँ कि ट्रेन के कोच की सीटों की स्थिति के विषय में और
स्पष्ट हो जाता, तो बेहतर होता क्योंकि बगल वाली सीट दर्शाकर
पूरी 8 सीटों में से ठीक सीट का संज्ञान पाठक नहीं ले पाता है कि किस सीट पर बैठकर
कहानी चल रही है, उनकी अवस्था किस प्रकार की है? और अगल-बगल बैठे लोग क्या इनके संवादों के प्रति उपेक्षित हैं? अथवा रुचि ले रहे हैं? अक्सर होता यह है कि दो युवा
विपरीत लिंगियों के प्रति न चाहते हुए भी यात्रियों की दृष्टि पड़ती ही है और उनकी
बातों पर वे कान देते ही हैं। इस अवस्था से मुक्त यह कहानी लाउड संवादों की सृष्टि
कर रही है, ऐसा लगता है बोगी में केवल वह दोनों ही हैं और
कोई नहीं। यह एक रिक्तता कहानी को विच्छेदित करती है। कहानी के कहन के तौर पर एक
अटपटी सी पंक्ति सामने आती है- “पेंट्री बॉय चाय दे गया था,
चाय बनाते हुए अचानक मेरे मुँह से निकला।” मुझे लगता है पेंट्री बॉय बनी हुई चाय
दे गया होगा, क्योंकि अक्सर ट्रेन में चाय डीप वाली मिलती है
या बनी हुई। क्रियात्मक रूप में उसे चाय बनाना कभी नहीं कहा जाता है, उसे डीप करना कहा जाता है। कहानी केवल बात को कह देना भर मेरी नज़र में
कहानी नहीं, बल्कि एक ऐसे वातावरण को उभार देना है, जिसमे कहानी अपनी सहज गति से चले और चित्रात्मकता आँखों के सामने ला दे, कई बिंबों का निर्माण करदे और पाठक को सजीव सी लगाने लगे। कहन के लहजे का
भी अवसर कहानीकार को निकालना होता है, जो मूल कहानी को और भी
पुख्ता करता है। ऐसी कहानी ही मन पर छाप छोड़ देती है। यह कहानी मन पर छाप छोड़ने की
दृष्टि से सफल नहीं हो पाई है। कहानी का सीधे सीधे चलकर एक सदेश के रूप मे समाप्त
होजाना कहानीकार कहानी के कहनीपन को रच न पाया। ये कहानी, कहानी
के अंश को लिए हुए है, लेकिन कहानी के तौर पर कम नज़र आती है।
कहानी की बुनावट आत्मकथात्मक शैली में है और सपाटबयानी के रूप में अभिव्यक्त हुई
है। भाषा का गठन और प्रवाह पात्रानुकूल सा ही है जो कहानी को सपाट बनाता है।
मूल कहानी इस लिंक http://www.pratilipi.com/blog/4565453695352832 पर पढ़िये।
©डॉ.मोहसिन ख़ान
हिन्दी विभागाध्याक्ष एवं शोध निर्देशक
जे.एस.एम. महाविद्यालय,
अलीबाग –
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3. धीरेन्द्र अस्थाना
कहानी - उस रात की गंध
पाठक संख्या : २०२८०
धीरेन्द्र आस्थाना की कहानी ‘उस रात की गंध’ कहानी के स्तर से और कहन के स्तर से पहले की दो कहानियों की परख से कहीं श्रेष्ठ कहानी सिद्ध होती है। कारण इसका यह है कि विषय की दृष्टि से यह कहानी यथार्थ से एक मनोलोक की ओर ले जाती है, साथ ही यह कहानी बाहर से भीतर का प्रवेश कराती है। कहानी कई स्तरों पर फिट बैठती है, चाहे उसमें रूपकों का इस्तेमाल हो, चाहे चित्रात्मकता हो या बिंबों के माध्यम से सजीवता हो। हर प्रकार से कहानी की परख में यह कहानी अपने निजी और स्वतः रूप मे श्रेष्ठ सिद्ध हो जाती है। कहानी मुंबई शहर के उस मुखौटे को नोचकर अलग हटाती है, जिसे आम आदमी मुंबई को देखकर मतिभ्रम में पड़ा हुआ है कि- मुंबई मेरी जान!!! लेकिन इस चमक-दमक भरे शहर के आकर्षण और सपनों की साकारता की दुनिया के पीछे एक ऐसी दुनिया पनपी हुई है, जिसे देखकर हताशा, ऊब और कसेलापन ही हाथ लगता है। मुंबई में चोरी छिपे चल रहे अनियंत्रित देह व्यापार की हकीकत सामयिक यथार्थ को कहानी का प्लाट देती है, लेकिन इसके पीछे गरीबी मुख्य कारक बनकर उभरी है और जिसे लेखक ने बड़ी ही सौंदर्यपूर्ण शैली में उद्घाटित कर दिया है। कहानीकार भी पहले मुंबई के आकर्षण में गिरफ्त है और लगातार गिरफ्त ही रहता है, उसका भ्रम तब टूट जाता है जब वह जीवन की कटु सत्यता से टकराता है और देखता है कि शरीर, हवस, सौंदर्य और आकर्षण से भी अधिक कोई असरकारक स्वाद है, तो वह ज़हर जैसी ज़िंदगी का असर है और उस असर में एक कड़ुआपन गरीबी का घुला हुआ है।
कहानी का गठन इतना सहज और ज़ोरदार है कि कहानी पाठक के सामने बहती है और पाठक एक ही सांस में कहानी में डूबकर उसे पी लेता है, कहानी में कहीं भी व्यावधान या अनुत्तरित प्रश्न नहीं छूटते हैं। यही एक बेहतर कहाई और कहानीकार की निशानी है। कहानी में आकर्षण के साथ कौतूहल बराबर बना हुआ है, जो कहानी को चरम सीमा पर लेजाकर पाठक को अपनी संपूर्णता में अंत की तरफ ले जाता है। कहानी में जो बिम्ब खींचे गए हैं, वह लाजवाब मानने चाहिए जैसे- “कोहरा आसमान से झर रहा था। हमेशा की तरह नि:शब्द और गतिहीन”, “वह लड़की गीले अंधेरे में चारों तरफ दूधिया रोशनी की तरह चमक रही थी”, “दूर तक कई कारें एक-दूसरे से सम्मानजनक दूरी बनाए खड़ी थीं – मयखानों की शक्ल में” ऐसे बिम्ब कहानी को और भी अधिक स्पष्ट करने के साथ कहानी में नए प्रयोगों की संभावना को बड़ा देते हैं। अंतिम के बिम्ब में आस्थाना जी ने यथार्थ को ऐसी शक्ल दी है जिसे मुंबई के उस इलाके के लिए जहां कथा आकार ले रही है स्थायी बिम्ब के रूप में देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त भाषा का जो प्रवाह है वह अपने आप में सहज और बहुत तरलता लिए हुए है। संवादों में मुंबई की भाषा का सहज भाव और टोन का इस्तेमाल कहानी को और भी गठन प्रदान करता है, संवादों का ऐसा जोरदार प्रयोग है कि पत्रों के मूड का भी पता देता है, उनके भीतर की चिढ़, आक्रोश और एक चिंता को अभिव्यक्त कर देता है। कहानी के लिए सबसे अधिक महत्व की बात यह है कि यह पाठकों में समाज के यथार्थ को अवगत कराने के साथ एक अनाम चिंता में डालकर मन में संवेदना पैदा करने के साथ एक बेचैनी भर देती है। कहानी में मार्मिकता है जो मानवी जीवन कि छुपी हुई हकीकत को उजागर करती है। औरत की गंध का सबके लिए अलग अनुभव हो सकता है और उस गंध की बसाहट भीतर कहीं चिपक सी जाती है, जिसे समय रहते आदमी महसूस भी करता है। कहानीकार एक ऐसी तीखी विषाक्त गंध साथ लिए आता है, जिससे मन में ग्लानियुक्त हवस की उबकाई आजाए।
मूल कहानी इस लिंक http://www.pratilipi.com/blog/4565453695352832 पर पढ़िये।