कलाकार

सचमुच मिट्टी की आदमकद इस रूपसी के यौवन के देह आकृति को देख खजुराहों व कोर्णाक की सहज याद हो आती थी । गहरी झींल सी ऑखें मस्ती भरी देह आकार पुष्ट नितम्ब ,उन्नत स्वस्थ्य उरोज ,मिट्टी से बने अधोवस्त्रों की व्याख्या करने का दु:साहस शायद मुक्षमें न था । कैसे बांधा होगा इस रूपसी के यौवन को मिट्टी के बने, अद्योवस्त्रों में कैसे बॅधी होगी इस यौवना के देह के आकारों के उतार चढाव ,कैसे महीन पारर्दशी वस्त्रों की कल्पना को साकार किया होगा । सभी कुछ कितना साकार जीवन्त लगता था ।
इतनी सुन्दर अद्वितिय मिट्टी की मूर्तियों को सौन्द्धर्य आकार प्रदान करने बाला कलाकार जिसकी कल्पना में कलाकृतियों की सहज स्वाभाविकता की झलक थी , वही भारतीय सुसंस्कार सौन्र्द्धयर्ता का स्वस्थ्य र्दशन को अश्लीलता की सीमा रेखा से पूरी तरह से बचाये रखा था , न ही अधोवस्त्रों को कम करने का बलात प्रयास नजर आता था । इतनी सुन्दर कल्पना का धनी कलाकार, क्या स्वयंम स्वस्थ्य काम राज की तरह से र्दशनीय होगा ? मेरी यह क्षणिक कल्पना को जब जोर का क्षटका लगा , जब मैने उसे मैले कुचैले रंगों से सने परिधानों में लिपटे , उस जर्जर काय अधेडावस्था के कला उपासक को देखा । इससे पहले वह मुंक्षे देखता या मै उससे कुछ कहता मुठी भर जीर्ण शीण शरीर छोटे शीर्ष से दाडी तक पूर्ण श्वेत केशों से भरा पुपलाया मुंह जो एक कलाकार के कला उपासक होने की कथा यात्रा में यर्थाथ जीवन की सच्चाई का ब्यान व्याप्त दरिर्दता से कर रही थी । राहगीर उस कलाकार की कलाकृतियों को देखकर उसकी सराहना करते , तारीफ़ों के पुल बांधते ,प्रचार माध्यमों के लिये एक विषय था , बडी बडी पत्र पत्रिकाओं , दूरर्दशन , आकाशवाणी के पत्रकार आते, उनकी व उनके मूर्तियों पर कभी फिल्मांकन करते कभी प्रर्याप्त मसाला अपने पाठकों व र्दशकों के लिये बटोर कर चले जाते थे । दूर दूर तक इस कलाकार की ख्याती पहूंच चुकी थी , इतना नाम समाचार पत्रों से लेकर उपगृहों के प्रचार प्रसार माध्यमों के सभी चैनलों के लिये जो चर्चा का विषय बन चुका था , उसे देख कर विश्वास नही होता था , एल्युमीनिय के टूटे फूटे अव्यवस्थि दो चार बर्तनों के बीच ओढने बिछाने के मैले कुचैले कपडे भी रंगों के स्पर्श से न बच सके थे , दो तार की कुसीयॉ भी थी ,जो शायद इस वृद्ध कलाकार की तरह समय से पूर्व ही बूढी हो चली थी । मुक्षे देखते ही उसने अन्दर आने को कहॉ , मै किसी शिष्य की भॉती गुरू की प्रति पूर्ण आदर व सम्मान लिये उसके अव्यवस्थित दर्रिद घर में टूटी कुर्सी को रूमाल से साफ कर बैठ गया ,बुढ्ढे ने हॅसते हुऐ कहॉ अरे बाबू सब ऐसई है , अब मै दिन भर काम में लगा रहता हूं कौन करता सफाई वफाई । मैने चंद औपचारिकता के बाद कहॉ हॉ दादा ठीक है ! आप भी बैठिये न ? ----- मेरे इस प्रश्न पर बुढ्ढे ने कहॉ , बेटा मै अब बैठ कैसे सकता हूं ? पहले चाय पियूगा ,फिर खाना भी तो बनाना है । मै कुछ कहता इससे पहले बुढ्ढे ने एल्युमोनियम के बर्तनों को खटखटाना शुरू कर दिया था , किसी बर्तन में चावल रखे तो किसी बर्तन में दाल का पानी रख स्टोप पर चढाकर बुढ्ढा धीरे से बाहर बिना बतलाय निकल गया ,जब लौटा तो उसकी पतल पतली अंगुलियों में दो गिलासों में गरम गरम चाय थी , चाय का एक हाथ बढाते हुऐ उसने इतने प्रेमपूर्वक चाय मुझे दी कि मुझे ऐसा लगा मानो सारी आत्मीयता का रस शायद इस कलाकार ने इसमें डाल दी हो , मैने चाय उसके हाथों से ले ली , बुढ्ढा जमीन पर लकडी के पटे पर बैठ सहज स्वाभाविक ढंग से चाय को फूक फूक कर पीने लगा । हॉ बाबू पूछो क्या पूछते हो ? कहॉ से आये हो ? किस समाचार पत्र पत्रिका या फिर रेडियो दूरर्दशन से हो ?
मै कुछ कहता इससे पूर्व बुढढा हॅसा और स्वयंम अपनी आप बीती सुनाने लगा ,मैने भी उसके चहरे पर शायद उसके किसी अभागे अतीत या कर्मो की आप बीती पहले ही पढ ली थी ,चूंकि मै स्वंय साहित्य प्रेमी था और इस व्यवहारिक यर्थाथ दुनिया में कलाकार या साहित्यानुरागी व्यक्तियों का जीवन मात्र धनाभावों में कैसे गुजरता है, मै अच्छी तरह से जानता था ,इसलिये मैने उसका किसी प्रकार का विरोध न करना ही उचित समक्षा और वहा जो कुछ कह रहा था सुनता गया , बाबू मेरा नाम धनीराम है, परन्तु मै निर्धन हूं , जाती का कुम्हार हूं ,परन्तु नाम के पीछे कलाकार लिखता हूं ,मैने ग्यारवी बोर्ड से पास की है ,मेरा बाप तहसीलदार था , अब आप सोच रहे होगे , जब बाप इतनी अच्छी शासकीय नौकरी में था , तो मै निकम्मा ही होऊगॉ जो पढ लिख न सका ? ग्यारवी के बाद मैने बी एस सी प्रथम वर्ष साइंस विषय से पास किया जानते हो मेरे पिताजी ने मुझे शूरू से साईस विषय में डाल दिया और मेरी अभिरूची साईस विषय में न थी इसलिये बडी मुश्किल से पास होता रहा , पेशाई नौकरी वाले परिवार से था ना इसलिये पढना जरूरी था ,परन्तु पिताजी की असमय मृत्यु पश्चात पढना बन्द हो गया , शायद आगे और पढता और किसी दफतर आदि में मुलाजिम होता अच्छी खॉसी दाल रोटी तो चलती ,इसमें क्या रखा है ? जब कभी मिल गया, तो मिल गया नही तो फांको की पडती है ,। सहजतावश मैने पूंछ ही लिया दादा नौकरी तो आप को ग्यारवी के बाद भी मिल जाती । इतना सुनते ही बुढ्ढे ने अपने कर्मो व भाग्य को कोसते हुऐ कहॉ ,हॉ बेटा नौकरीया तो कई मिली थी ,परन्तु इस कला उन्माद ने मुझे नौकरी न करने दिया ,शायद विधि को कुछ और ही मंजूर था इसी दरिद्रता में ही पूरा जीवन गुजर गया अब क्या है ? ढलती उम्र है ,कब जीवन की शाम हो जाये और फिर अब कुछ चाहत भी तो नही रह गई है , न कुछ पाने की इक्छा है, न ही नाम मशहूर होने की चाहत ,,अरे इस दुनिया में मेरा कौन है जो मेरी तारीफ पढ दूरर्दशन पर मेरी कलाकृति या मुक्षे देख खुश होता , दुनियॉ के तारीफ़ करने या खुश होने से क्या होता है ?यदि कोई अपना तारीफ करता है तब खुशी होती है ,अपनो की तारीफ अपनी सी लगती है । अब कौन हमारा है धीरे धीरे अपने पराये सभी चले गये इतनी बडी इस दुनियॉ में अब मै अपने इस छोटे से मकान में अपनी कलाकृतियों के सहारे जिन्दा हूं ,बुझॅता हुआ दिया हूं बेटा जाने कब रोशनी चली जाये ।
डाँ.कृष्ण भूषण सिंह चन्देल
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