सड़क के किनारे, दीवार के सहारे।
बैठा है एक दीवाना ,पागल सा ।।
देखे जा रहा है एकटक ,
अपनी पत्नी को बेतहाशा।
उसके बेतरतीब से बिखरे बाल,
बैठी है अल्हड़ सी उसके पास,
जिसने ना किया है कोई श्रृंंगार,
और यही है उसका घर संसार।
कपडों से झांकती तंगहाली और गरीबी,
लेकिन है सहज सरल वो मतवाली।
ना उसके सर पर छत है,
ना ही है कोई ठहराव।
आज यहां कल वहाँ ,फिर भी थकते नहीं पांव।
ना ही है उसका कोई गांव।।
पर वह मुग्ध है, उसकी इस मुस्कान पर,
दुनिया जहां से बेखबर,
उसे यकीं है उसके प्यार पर।।
जहाँ तहाँ चादर बिछाते है,
खुले आसमान के नीचे सो जाते हैंं ।
उन्हें न कल की फिक्र है, न आज कि चिंता।
उन्हें मौसम कि परवाह नहीं , ऐसे ही है जिन्दा।।
तन ढकने व पेट भरने के लिए करते हैं मेहनत।
बस यही होती गरीब कि जन्नत।।
उसे बाकी दुनियादारी से कैसा सरोकार,
उनकी तो अम्बर चादर और धरती आधार।।