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कविता/एक

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भीड़ से घिरी लेकिनबिल्कुल अकेली हूं मैंहां, एक अबूझ पहेली हूं मैंकहने को सब अपने मेरेरहे सदा मुझको हैं घेरेपर समझे कोई न मन मेराखामोशियो ने मुझको घेराढूंढूं मैं अपना स्थान...जिसका नहीं किसी को ज्ञानक्या अस्तित्व है घर में मेरा?क्या है अपनी मेरी पहचान?अपने दर्द में बिल्कुल अकेलीहूं मैं एक अबूझ पहेली

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