मानव की सतत यात्रा को
विज्ञान ने लाखो वर्ष बताया
धर्म ने युगों में बांटा
महात्माओं ने अनंत कहा
पर चेतना के पथ पर
आत्मा कभी अवतार है
तो कभी पैगम्बर है
कभी सूफियाना एहसास है .....
सृजन के केनवास में
पृथ्वी पर मानव का रंग
आत्मा की अनंत यात्रा है
जब शून्य से नील ग्रह पर
मानव का विस्तार हुआ
आकाशगंगा के शिखर संग
मानव का संवाद हुआ .......
समय की चाल में परिवर्तन समेटे
सदा बदलती रही मानवता
आत्मा का आत्मिक द्वन्द
कितनी मानवता अवशेष रही
आत्मा के सफ़र में
निश्चय ही परमात्मा जानता होगा
हम मानव तो खुद भी
आत्मा को ही नहीं जानते ...
आत्मा के प्रकाश से दूर
स्वार्थ के अंधेरो में खोते हुए
आत्मा से मानवता तक
समय के साथ दूर जाते
आत्मा की पुरातनता में
मानवता का पुनर्नवा रंग डालते
हम नव समय के अबोध मानव !!!
यह कविता क्यों ? सृजन के शून्य में आत्मा केंद्र है और मानवता यदि परिधि है तो तो सफ़र में आखिर मानव किस चाल में पंहुचा ...निर्माण से पतन या पतन से निर्माण .आत्मा से आत्मिक प्रश्न शेष है ....अरविन्द भारद्वाज