ग़ज़ल (जिंदगी का ये सफ़र )कल तलक लगता था हमको शहर ये जाना हुआइक शक्श अब दीखता नहीं तो शहर ये बीरान हैबीती उम्र कुछ इस तरह की खुद से हम न मिल सकेजिंदगी का ये सफ़र क्यों इस कदर अनजान हैगर कहोगें दिन को दिन तो लोग जानेगें गुनाहअब आज के इस दौर में दीखते नहीं इन्सान हैइक दर्द का