कल मैंने आपको हमारे बाग़-बगीचे में उगाई कंडाली के पौधे के बारे में कुछ बातें बताई। इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए आज मैं आपको हमारे उत्तराखंड से लाकर बगीचे में लगाए कुणजा के पौधे के बारे में बताती हूँ। बचपन में हम बच्चे पहले अपनी लकड़ी की तख्ती (पाटी) में इसकी पत्तियों को पीसकर घोटा लगाकर चमकाते थे और फिर चॉक से उसमें सुन्दर अक्षरों में स्वर-व्यंजन या अक्षर लिखकर मास्टर जी को दिखाकर उनसे शाबासी लिया करते थे। इसके अलावा जब भी घर में कोई भी पूजा-पाठ या कोई धार्मिक अनुष्ठान होता था तो हम बच्चे ही पूजा के लिए दौड़-दौड़ कर इसकी पत्तियों को तोड़कर देते थे, क्योंकि गांव में इसकी पत्तियों के बिना कोई भी धार्मिक अनुष्ठान अधूरा समझा जाता था। हमें इस पौधे की पत्तियों को तोड़कर सूंघना बड़ा अच्छा लगता था, क्योँकि उसकी सुगंध से मन प्रफुल्लित हो उठता था। तब हमें पता न था कि जिस पौधे की पत्तियों को पीसकर हम बच्चे अपनी-अपनी पाटी घोंटते हैं, वह एक औषधीय पौधा है। यद्यपि बड़े-बूढ़ों को जरूर इसकी पत्तियों को दाद, खाज, खुजली में पीसकर लोगों को लगाने के लिए देते हुए जरूर देखते थे लेकिन तब इतनी समझ नहीं थी। आज जब मैंने अपने बग़ीचे में यह पौधा लगाया है तो इसके औषधीय गुणों के बारे में जानकार हैरानी होती है कि जो पौधा बिना परिश्रम के ही हमें गांव में उधर-उधर आसानी से मिल जाया करता था, वह एक ऐसा औषधीय पौधा भी हो सकता है, जिससे हमारे पडोसी देश चीन के लोगों ने अपनी आर्थिकी का जरिया बना रखा है। वहाँ के लोग इसे 'मुगवर्ट' नाम से जानते हैं, जिससे वे तेल निकालकर हज़ार रुपए से भी अधिक कीमत में बेचते हैं, जबकि हमारे उत्तराखंड में इसकी सुलभता होने के बाद भी कोई कीमत नहीं है। हमारे उत्तराखंडी लोगों की शिकायत रहती है कि वे जो कुछ भी खेतों में उगाते हैं उसे बंदर, सूअर खा जाते हैं, इसलिए वे करें तो क्या करें? लेकिन यदि वे गंभीरता विचार करते हुए इस पौधे को चीन की तरह अपनी आर्थिकी का जरिया बनाने की पहल करे तो निश्चित ही उन्हें जंगली जानवरों का भय भी नहीं सताएगा और उन्हें चीन के लोगों की तरह ही आर्थिक लाभ होगा। क्योँकि कोई भी जानवर इस पौधे को नहीं खाता है, इसलिए उन्हें बेफिक्र होकर इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन कर लाभ का साधन बनाना चाहिए।
आज के लिए इतना ही,फिर मिलते ही ......