इन दिनों हमारे बग़ीचे की बॉउंड्री में ककड़ी , कद्दू, लौकी, तोरई और सेम की छोटी-छोटी बेलें फ़ैल रही हैं। इनमें कद्दू, सेम और ककड़ी मैंने अपने गांव से बीज मँगवाकर लगाए हैं। हर दिन जब इन बेल को धीरे-धीरे बढ़ते हुए देखती हूँ तो मन में बचपन की कई यादें उभरने लगती हैं। तब गर्मियों में हमें खूब हिंसालु, किडगोड़ा और घिंघारू और काफल खाने को मिलते थे। क्योंकि ये सभी जंगली फल होते हैं इसलिए हम इन्हें बिना पैसा-धेला खर्च किये बिना बे-रोकटोक दिन भर इधर-उधर भटकते हुए खा लिए करते थे, लेकिन इन जंगली फलों के अलावा गांव में और भी फल-सेव, संतरे, आडू और पोलम थे, जिन्हें जब हम चुरा के खाते तो मुफ्त में पेड़ों के मालिकों की गाली भी खानी पड़ती थी।
बचपन में हमें टोलियां बनाकर फलों को चोरी कर खाने में एक अलग ही मजा आया करता था। हाँ, ये बात अलग थी कि तब घर में पता चलने पर थोड़ी-बहुत मार तो पड़ती थी और साथ में जिनके पेड़ से चोरी की उनकी गाली भी सुनने को मिलती थी। भले ही अब हम शहर में खूब फल खरीद कर खाते रहते हैं, लेकिन उनमें वह चोरी के फलों का स्वाद कभी नहीं आता है। बग़ीचे में ककड़ी की बेल देखकर बार-बार बचपन में ककड़ी चोर के खाने की बहुत याद आती है। क्योंकि इसे खाने के बाद सबसे ज्यादा गाली खानी पड़ती थी। गांव से आकर शहर बसने वाला कोई भी व्यक्ति हो शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने अपने बचपन में कभी न कभी ककड़ी न चुराई होगी और जिसके लिए उसे खूब गाली खाने को न मिली हो आज सोचती हूँ कि हमारे तरह ही गांव से शहर आने के बाद कई लोग तो वर्षों बरस बीत जाने पर भी गांव जा ही नहीं पाते हैं, लेकिन जो आते-जाते रहते हैं, उन्हें जरूर ककड़ी दिखने पर उसे चुराकर आज भी खाने में मन करता होगा। क्योंकि शहर में ककड़ी तो खाने को बहुत मिल जाती हैं, लेकिन वह स्वाद और गाली कहाँ मिलती हैं? जो लोग शहर आकर भूल गए होंगे कि गांव में ककड़ी चोर के खाने पर काकी-बोडी कैसे गालियां भी खिलाती थी उनके लिए मैं लाई हूँ ककड़ी चोरी करने वालों के लिए बोडी की ताज़ी-ताज़ी गालियां ... . . याद करो बचपन और लिखो अपनी-अपनी दिल की बातें .....