आज जून माह की ४ तारीख हो गयी हैं। इन चार दिन में सोच रही थी कि इस माह की दैनन्दिनी में क्या लिखूं। इसी उधेड़बुन में जब कल मैंने समाचार पत्र में विश्व पर्यावरण दिवस के बारे में कुछ लेख पढ़े तो मेरे मन भी विचार आया कि क्यों न इस माह की दैनन्दिनी में अपने बाग़-बगीचे की बातें करती चलूँ। वैसे भी जब-जब में अपनी बगिया में होती हूँ तो मेरे मन में कई विचार आते-जाते हैं, बस इन्हीं विचारों को मैंने इस माह आपके साथ साझा करने का मन बनाया है। प्रकृति से मेरा जुड़ाव बचपन से हैं। मुझे प्रकृति की गोद में बड़ा सुकून मिलता है। तभी तो मैंने अपने घर के पास एक ऐसा छोटा सा बगीचा बनाया हैं, जहाँ कुछ छोटे-बड़े अलग-अलग तरह के पेड़-पौधे और थोड़ी-बहुत ताज़ी साग-सब्जी भी उगा लेती हूँ। कई लोग कहते हैं पेड़-पौधे लगाना बहुत सरल हैं, उनकी बात से मैं सहमत होती हूँ लेकिन जब अपने पेड़-पौधों को लगाकर उन्हें पालने की बारी आती है तो मैं समझती हूँ उन्हें पालकर बड़ा करना बच्चों को पालने से भी कठिन हैं। मैंने स्वयं अनुभव किया है कि एक पौधे की परिवरिश दो-तीन बच्चों की परिवरिश से भी भारी पड़ती हैं, क्योंकि इसमें कई बातों का ध्यान रखता होता हैं। कम से कम दो वर्ष तक तो उनकी बड़ी देखभाल करनी पड़ती हैं, तभी वे बढ़ते हुए अपनी जड़ें जमा पाते हैं। छोटे से पौधे को लगाने के साथ ही उसकी सुरक्षा और उसके लिए जरुरी खाद-पानी की आवश्यकता की पूर्ति समय-समय अगर न किया जाय तो उनकी स्थिति कुपोषित बच्चों जैसे हो जाती है। इसलिए वे कुपोषण का शिकार न हो और उन्हें कोई पक्षी-पक्षी नुक्सान न पहुंचाए, इस बात का विशेष ख्याल रखना जरुरी होता है।
शहर में रहते हुए मुझे मेरी बगिया से ताजे-ताजे फल-फूल और साग-सब्जी तो मिलती ही है, लेकिन जब बगिया सरसों के फूलों से भर जाती हैं तब मुझे पता चलता है कि मेरे शहर में भी वसंत आ गया है। मेरी बगिया में कई तरह के पेड़-पौधे हैं, जिनमें कुछ औषधीय पौधे भी हैं, जो हमारे अपने पहाड़ी प्रदेश से लाये गए हैं, ये पौधे मुझे हमेशा अपने पहाड़ की प्रकृति से जोड़े रखते हैं। इनके बारे में भी मैं एक-एक कर बताती चलूंगी।
आज इतना ही, तैयार रहिए मेरे बाग़-बगीचे की दुनिया की सैर के लिए .......