आज भी जब कभी अपना कोई रिश्तेदार या निकट सम्बन्धी गांव जाकर वहाँ से मौसमी फल अखरोट, आड़ू, काफल, च्यूड़े, नारंगी या माल्टा के साथ ही गैथ की दाल, भट्ट, छीमी, रयांश, मंडुवे का आटा, कौणी, झंगोरा आदि लाकर उसमें से थोड़ा-बहुत हमें देकर जाता है तो गांव की कई यादें ताज़ी हो जाती है। कुछ फल और दाल तो शहर में मिल जाती हैं, लेकिन जो नहीं मिलती हैं उंन्हें देखते ही मुँह में पानी भर आता है और मन उन दिनों की यादों में डूबने लगता है। मुझे सबसे बड़ी ख़ुशी गैथ की दाल देखकर मिलती हैं, क्योंकि यहाँ शहर में कितने ही प्रकार की दालें बनाकर खा लो लेकिन जो स्वाद गांव की दाल में आता है, वह इनमें नहीं मिल पाता है। दाल की बात निकली है तो बताती चलूँ कि हमारे उत्तराखंड में दाल हो या साग जब तक इनमें जख्या या दुत पंगुरु का तड़का नहीं लग जाता, तब तक ये बेस्वाद माने जाते है। इसीलिए चाहे कोई भी हरी सब्जी हो या दाल इनमें तड़का जरूर लगता है और जब तड़का लगता है, तब इसकी सुगंध बड़ी दूर तक ऐसी फैलती है कि खाने वालों के मुँह में पानी भर आ जाता है और जब वे खाने बैठते हैं तो फिर उन्हें जिंदगी भर इसका स्वाद याद रहता है। आज हमें भले ही बाज़ार में तड़के के नाम पर कई प्रकार के रंग-बिरंगे पैकेट बड़ी सहजता से मिल जाते हैं लेकिन जो स्वाद साग और दाल में जख्या के बीज और दुत पंगुरु का तड़का लगाने पर मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ होता है।
अब मैं सबसे पहले थोड़ा दुत पंगुरु के बारे में बताती हूँ। क्योंकि हमारे उत्तराखंड में इसे हम इसी नाम से जानते हैं। हिंदी और अंग्रेजी में इसे क्या कहते हैं इसका पता नहीं है लेकिन चीन में इसे चीनी चिव्स या चीनी प्याज कहा जाता है। इसकी पत्तियां लहसुन की पत्तियों जैसी होती हैं। यह एक बारामासी पौधा है, जिसपर वर्ष में एक बार प्याज जैसे सफ़ेद फूलों का बीज का गुच्छा आता है, जो बहुत सुन्दर लगता है। इसके सफेद फूल और लटके तने स्वादिष्ट चटनी बनाने के काम आते हैं। इसे उबालकर पकने वाली सब्जियों में बारीक काटकर मिलाया जाता है, जिससे वह और अधिक स्वादिष्ट हो जाता है।
अब थोड़ा जख्या के बारे में बताती हूँ। यह हमारे उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में तड़के के रूप में सबसे सर्वाधिक प्रयोग में लाये जाने वाला पसंदीदा और लोकप्रिय मसालों में से एक है। इसके बीज राई और सरसों जैसे हल्के काले ओर भूरे रंग के होते हैं, जो कि तड़के के रूप में लगने वाला मुख्य मसाला है। कुछ लोग इसके पत्तों का साग भी बनाते हैं। पहाड़ी भोजन कड़ी, हरी सब्ज़ी,आलू के गुटके, रायते और दाल बिना जख्या के तड़के के अधूरे रहते हैं। पहाड़ ही क्यों जिसने भी इसका एक बार स्वाद लिया, वह उसे कभी नहीं भूलता। इस पौधे को उगाने के लिए कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती हैं। यह प्राकृतिक रूप से उगने वाला जंगली पौधा है, जो पीले फूलों और रोयेंदार तने वाला होता है। यह एक लगभग एक मीटर ऊँचा, पीले फूल व लम्बी फली वाला पौधा कहीं भी खाली पड़ी जमीन में बरसात आते ही उग जाता है। लोगों को इसकी पहचान बहुत कम होती है, इसलिए वे इस महत्वपूर्ण पौधे को खरपतवार समझकर उखाड़कर फेंक देते हैं। जबकि अलग-अलग शोधों के पता चला है कि इसमें एंटी-हेल्मिंथिक, एनाल्जेसिक, एंटीपीयरेटिक, एंटी-डायरियल, हेपेटोप्रोटेक्टिव और एलिलोपैथिक जैसे कई गुण शामिल हैं। इसमें पाए जाने वाले पौष्टिक तत्व खान-पान में इसके महत्व को और अधिक बढ़ाते हैं। इसके बीज में पाए जाने वाला 18 फीसदी तेल फैटी एसिड तथा अमीनो अम्ल जैसे गुणों से परिपूर्ण होता है। इसके साथ ही इसके बीजों में फाइबर, स्टार्च, कार्बोहाइड्रेड, प्रोटीन, विटामिन ई व सी, कैल्शियम, मैगनीशियम, पोटेशियम, सोडियम, आयरन, मैगनीज और जिंक आदि पौष्टिक तत्व पाए जाते हैं। पहाड़ की परंपरागत चिकित्सा पद्धति में जखिया का खूब इस्तेमाल किया जाता है। एंटीसेप्टिक, रक्तशोधक, स्वेदकारी, ज्वरनाशक इत्यादि गुणों से युक्त होने के कारण बुखार, खांसी, हैजा, एसिडिटी, गठिया, अल्सर आदि रोगों में जख्या बहुत कारगर माना जाता है।
मैंने तो दुत पंगुरु या चीनी चिव्स या चीनी प्याज को अपने बग़ीचे में उगाया है और इसका मैं भरपूर उपयोग तो करती ही हूँ साथ ही अन्य लोगों को भी इसे लगाने और चटनी के लिए देती हूँ। क्यों न आप भी इस बारामासी पौधों को अपने बगीचे या गमले में लगाए, क्योंकि यह एक सुन्दर सजावट जैसा भी है और उपयोगी भी। इसके साथ ही जख्या को आप अपने आस-पास खाली पड़ी जमीन में तलाशिये क्योंकि यह सरसों जैसा ही पौधा है इसलिए इसे पहचानने में आपको ज्यादा मशकत नहीं करनी पड़ेगी। जब इसकी पहचान कर लो तो उसके बीजों को निकाल कर अपनी रसोई में स्वाद का तड़का लगाइये और फिर मुझे याद करना न भूलिए।
आज के इतना ही, फिर मिलती हूँ बाग़-बगीचे की कुछ और बातें लेकर...........