By:मुकेश कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार
भारतीय अफ़सरशाही ने नेताओं से जो सबसे ख़राब चीज़ सीखी है, उसे येन-केन-प्रकारेण ‘वाहवाही लूटने’ या सच-झूठ के नाम पर ‘क्रेडिट लेने’ की बीमारी के रूप में देखा जा सकता है. इस बीमारी का सबसे शर्मनाक चेहरा देश ने पठानकोट आतंकी हमले के दौरान देखा. इसे लेकर सबसे ज़्यादा गुस्सा उन लोगों में है जो पूरे सुरक्षा तंत्र और फौज़ के कामकाज से बहुत क़रीब से जुड़े रहे हैं. क्योंकि पठानकोट ऑपरेशन में जितने व्यापक पैमाने पर हमारी पूरी व्यवस्था की ख़ामियाँ उजागर हुईं, वैसा पहले कभी देखने को नहीं मिला. वैसे विभिन्न एजेंसियों के बीच समन्वय और तालमेल की ख़ामियाँ तो मुम्बई हमले (26/11) में भी कोई कम नहीं थीं. लेकिन पठानकोट ने तो सारे रिकॉर्ड ही तोड़ दिये. इस ऑपरेशन में जो भी गुड़गोबर हुआ, उसकी सबसे बड़ी वजह तमाम अफ़सरों और नेताओं में ‘वाहवाही लूटने की आपाधापी’ थी.
पूरी दुनिया में राजनेता तो सार्वजनिक जीवन में तरह-तरह के सब्ज़बाग़ दिखाकर जनता को हमेशा से और बरगलाते रहते हैं. सत्ता पक्ष या विपक्ष कोई भी इसका अपवाद नहीं होता. लेकिन देखते ही देखते कारपोरेट सेक्टर की ‘पैकेज़िंग’ वाली बीमारी ने सरकारी तंत्र में भी अपना संक्रमण फैला दिया. अब सरकारी अफ़सरों में भी ‘अपने नम्बर बनाने’ की बीमारी घर कर गयी है. नौकरी में चमचागिरी तो हमेशा थी, लेकिन ‘वाहवाही लूटने की आपाधापी’ वाला जज़्बा मोदी राज में सिर चढ़कर बोल रहा है. सारा ध्यान सिर्फ़ बॉस को ख़ुश करने पर जाकर टिक गया है. प्रधानमंत्री मोदी की ही तरह उनके इर्द-गिर्द जमा लोगों में भी अपनी उपलब्धि से कई गुना ज़्यादा वाहवाही लूटने की होड़ दिखायी देती है. जिसको देखो वही ‘वन मैन शो’ वाली वाहवाही चाहता है.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लोगों ने शायद यही सबसे बड़ी प्रेरणा ली है. मोदी का भी ये स्टाइल है कि वो सारे काम ख़ुद ही करते हुए दिखना चाहते हैं. उन्हें सामूहिकता रास नहीं आती. एकल उपलब्धियाँ उन्हें कहीं ज़्यादा आकर्षित करती हैं. इसीलिए सामूहिक उपलब्धियों की अहमियत घटती हुई दिख रही है. एकल उपलब्धियों का बोलबाला है. यही वजह है कि पठानकोट आतंकी हमले को देखते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, अजीत डोभाल जैसा चोटी का अफ़सर ख़ुद ऐसे फ़ैसले लेने लगता है जो अन्य एजेंसियों के नेतृत्व को लेना चाहिए था. वो भूल जाता है कि उसका काम बड़े फ़ैसले लेना है. उस पर वाहवाही लूटने का ऐसा भूत सवार हो जाता है कि वो छोटी और बारीक़ बातों में भी ख़ुद को उलझा लेता है.
यही वजह है कि पठानकोट हमले को लेकर अजीत डोभाल ऐसे पेश आये, मानो प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री और गृह मंत्री सब कुछ वही हैं. उन्होंने ही आपदा प्रबन्धन समूह (Crises Management Group) और कैबिनेट की सुरक्षा मामलों की समिति (Cabinet Committee on Security) को सिरे से नज़रअन्दाज़ किया. अजीत डोभाल ने ही ये ग़लत आंकलन किया कि आतंकी चार ही थे. इसीलिए चारों के मार गिराये जाने के बाद ही उन पर वाहवाही लूटने का भूत सवार हो गया. उन्होंने ऑपरेशन के ख़त्म होने का औपचारिक ऐलान हुए बग़ैर ही राजनाथ सिंह, मनोहर पर्रिकर और नरेन्द्र मोदी से बधाई सन्देश (ट्वीट) जारी करवाने में हड़बड़ी दिखायी.
अजीत डोभाल ने ही आतंकियों के हमला शुरू करने से पहले ही एनएसजी की टीम को पठानकोट पहुँचा दिया था. जबकि इससे पहले उन्हें पठानकोट छावनी में मौजूद विशाल सैन्य शक्ति को मौक़ा देना चाहिए था. उन्होंने ही पूरे ऑपरेशन की कमांड उन सक्षम हाथों के हवाले नहीं की, जो इसके विशेषज्ञ रहे हैं. यही वजह है कि ऑपरेशन के बारे में प्रेस कांफ्रेंस करने का काम इतने ज़्यादा लोगों ने किया जैसा पहले कभी दिखायी नहीं दिया. इसकी वजह भी सिर्फ़ इतनी थी कि हरेक अफ़सर में वाहवाही लूटने की होड़ थी. इसी होड़ की ख़ातिर अजीत डोभाल को ये फ़ैसला लेना पड़ा कि वो चीन के साथ सीमा विवाद पर होने वाली निर्धारित बैठक में नहीं जा सके. यही होड़ ऑपरेशन ख़त्म होने के बाद उस वक़्त भी दिखायी दी जब वो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पठानकोट वायु सेना स्टेशन का दौरा करवाने ले गये. इसका भी इरादा सिर्फ़ इतना था कि ऑपरेशन की कामयाबी का सेहरा सिर्फ़ उनके सिर ही बँधे!
इसीलिए दुआ कीजिए कि पठानकोट जैसी ग़लतियाँ आईन्दा कभी ना दोहराई जाएँ. इससे हरेक मुनासिब सबक़ ज़रूर लिया जाए. बहुत पुरानी बात नहीं है जब वाहवाही लूटने की इसी प्रवृति की वजह से ऐसे बयान दिये गये कि भारतीय सेना ने म्यांमार की सीमा में घुसकर आतंकियों का सफ़ाया किया था. तब भी सरकार को अपनी ग़लतियाँ समझ में आती इससे पहले ही चिड़ियों ने खेत चुग लिया था. इसी तरह, नेपाल के मामले में भी उस वक़्त सिर्फ़ वाहवाही लूटने का ही इरादा था जबकि भारतीय मीडिया में ये लीक करवा दिया गया कि नेपाल के संविधान में भारत किन-किन बातों को जोड़े जाने के पक्ष में है? कालान्तर में इसी रुख ने भारत-नेपाल सम्बन्धों को सबसे ख़राब स्तर पर पहुँचा दिया.
वैसे वाहवाही लूटने की बीमारी का ताल्लुक सिर्फ़ मोदी राज से ही नहीं है. पूर्व केन्द्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने भी कमोबेश इसी मनोदशा से प्रेरित होकर उस गड़े मुर्दे को उखाड़ दिया जिसमें ये बातें लीक हुई थीं कि 2012 में भारतीय सेना की दो बड़ी टुकड़ियों ने हिसार और आगरा से दिल्ली की ओर इसलिए कूच किया है, क्योंकि उसका इरादा दिल्ली में ‘तख़्तापलट’ का था. मुमकिन है कि मनीष तिवारी ने उस वक़्त सेनाध्यक्ष रहे जनरल वी के सिंह की साख़ को गिराने के लिए ये दाँव खेला हो. जनरल सिंह इस वक़्त मोदी सरकार में राज्यमंत्री हैं. लेकिन मनीष का दाँव ख़ुद उनकी पार्टी और उसके तत्कालीन रक्षा मंत्री ए के एंटोनी के लिए उल्टा पड़ गया. क्योंकि सरकार में बैठे मंत्रियों ने अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए जानबूझकर ख़ुलासा करने अख़बार की ख़बर को ग़लत ठहराया था. यही वजह है कि अब काँग्रेस पार्टी ने मनीष तिवारी के तेवर से कन्नी काट ली है.
मनीष से पहले फ़ोकट की वाहवाही लूटने की फ़ितरत मणि शंकर अय्यर और सलमान ख़ुर्शीद जैसे नेता भी दिखा चुके हैं. इसी बीमारी ने इन दिनों बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी को भी सुर्ख़ियों में बना रखा है. स्वामी भी राम मन्दिर को लेकर दिये जा रहे अपने बयानों की वजह से चर्चा में हैं. कभी कहते हैं कि दिसम्बर से राम मन्दिर बनना शुरू हो जाएगा. कभी वो अयोध्या के बाद मथुरा-काशी को लेकर भी माहौल गरमाने लगते हैं. ताज़्ज़ुब की बात ये है कि कभी इन्हीं मुद्दों को दरकिनार करके बीजेपी ने उस एनडीए को बनाया था, जिसकी क़मान अटल बिहारी वाजपेयी ने थामी थी. वैसे बीजेपी के पास पूर्ण बहुमत होने के बावजूद तकनीकी रूप से मौजूदा मोदी सरकार भी एनडीए की ही है. कहने के लिए सही, दोनों ही एनडीए सरकारों ने बीजेपी के विवादित मुद्दों से ख़ुद को दूर रखा है!
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