शहर में चेहरे तो लाखों
हैं, इंसां मगर दिखता नहीं
शीशे का मकां न है, पत्थर
हाथ में कोई रखता नहीं
आदमी आदमी का में जबसे भेद
होने लगा है
हाथ मिलता है दिल मगर मिलता
नहीं
दोस्त कौन है और कौन है
दुश्मन
जानते सब हैं कोई मगर कहता
नहीं
जुनूने इश्क के रंग भी अजीब
हैं
दर्द तो देता है दवा मगर
देता नहीं
खरीदने बिकने की बात क्यों
करता है
ईमान तो मगर बिकता नहीं
दरिया किस तरह पार करोगे
‘राजीव’
कश्ती है साहिल मगर दिखता
नहीं