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महेश आलोक की बेतरतीब डायरी

23 मई 2016

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कुछ कवितानुमा टिप्पणियाँ(महेश आलोक की बेतरतीब डायरी)

 (1)

मैं दुखी नहीं हूँ।कवि अपने आप से दुखी हो ही नहीं सकता।वह तो समाज के दुखी होने से दुखी होता है। समाज उसकी कविता में हँसे, उछले, कूदे, करवटें ले, गाये-गुनगुनाए, संवेदना जगाये, संघर्ष करे।समाज से उसका रागात्मक सम्बन्ध बना रहे,टूटे नहीं,कविता में उसे अपना चेहरा साफ-साफ दिखाई दे,बिगड़े बाल संवारने लायक जगह बची रहे कविता में।वह सड़क दिखाई दे, जिस पर उसे चलना है।यही तो उसका अभीष्ठ है। सचमुच कवि अपने आप से दुखी हो ही नहीं सकता।वह तो समाज के दुखी होने से दुखी होता है। 

(2)


अगर मैं कविता सुनाऊँ और लोग प्रसन्न होकर तालियाँ बजाते रहें,तो मुझे क्या समझना चाहिये। एक- लोग मेरी कविताएं समझ रहे हैं और दूसरा- समझ तो नहीं रहे हैं लेकिन तालियाँ बजा रहें हैं कि श्रोता यह न समझें कि हाय-हाय, कितने मूरख हैं, इन्हे इतनी अच्छी कविता समझ में नहीं आ रही है। वहीं एक तीसरा वर्ग भी है, जिसके चेहरे पर सन्नाटा खिंचा है और वह गुस्से में देख रहा है ताली बजाऊ जनता की तरफ।कौन समझ रहा है मेरी कविताएं?  

(3)


युद्ध की जो तस्वीर दिखाई जा रही थी सरकार के नियन्त्रण वाले दूरदर्शन पर उससे कुछ राष्ट्रवादियों के मन में पड़ोसी देश के प्रति घृणा पैदा हो रही थी। ठीक यही हाल पड़ोसी देश का भी था। वहाँ तो हवा को भी फिल्टर किया जा रहा था।और बेचारे शायर और कवि और मासूम लोग अपनी सँवेदना में भावनात्मक एकता का खेल खेलते हुए बूढ़े हो रहे हैं इस फिराक में कि कभी तो राजनैतिक कटुता खत्म होगी और किसी हिन्दी सिनेमा को चार सौ करोड़ कमाने के लिये मुस्लिम बच्ची से यह नहीं कहलवाना पड़ेगा- ‘मामा, जय श्रीराम’। 

(4)


सारी समस्या की जड़ किसी भी वस्तु या विचार या भावना को उसके अधूरेपन में देखना है।किसी भी धर्म की उदारता और उसका वैचारिक खुलापन अंधश्रद्धा और मूर्खतापूर्ण फतवे में तब्दील तभी होता है जब देख़ने की दृष्टि इतनी संकुचित हो जाती है क़ि खान-पान जैसी निजी या वैयक्तिक स्वतन्त्रता को भी तथाकथित बेवकूफ़ाना, जड़ परंपराओं के नाम पर कटघरे में खड़ा करके उसका दम घोंट दिया जाता है और कुछ लोग नपुंसको की तरह खड़े होकर गर्व से ताली बजाते हैं और यह मानते हैं कि  हम अहिंसक हैं। समाज वैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्य मूलतः हिंसक प्राणी है। हम सभी निरंतर हिंसा में लिप्त रहते हैं भले ही वह मानसिक ही क्यों न हो।यही स्थिति भावनात्मक हिंसा की भी है जो प्रत्यक्ष हिंसा से कहीं ज्यादा खतरनाक है। धर्म की आड़ में आज जितना खतरनाक खेल खेला जा रहा है,वह मांसाहार के धवन्यात्मक अर्थ को वहाँ तक ले जाता है जहां किसी प्रगतिशील साहित्यकार की उन्हीं धार्मिक फतवेदारो द्वारा निर्मम हत्या कर दी जाती है और वे ही संघीय ढांचे में बजरंगी बनकर समाज को मांसाहारियों से कही ज्यादा खतरनाक रूप से तोड़ रहे हैं।

(5)


युद्ध का कोई चेहरा नहीं होता।वहाँ तो सिर्फ मृत्यु है।ठीक यही बात मृत्यु के बारे में भी कह सकते हैं। हिंसक हिन्दू हो या मुसलमान,क्या फर्क पड़ता है। चेहरा अहिंसक का होता है और जब वह सही मायने में बनता है तो व्यक्ति या तो बुद्ध बनता है या गाँधी। 

(6)

मैं एक कथात्मक कविता लिखता हूँ। दन्त कथाओं जैसी कथात्मक कविता


एक राजा को उपहार में बाज के दो बच्चे भेंट मिले । वे बड़ी ही अच्छी नस्ल के थे। राजा ने देखभाल के लिए एक आदमी को नियुक्त कर दिया। कुछ समय बीत जाने पर राजा बाजों को देखने उस जगह पहुँच गए जहाँ उन्हें पाला जा रहा था। दोनों बाज काफी बड़े हो चुके थे। राजा ने कहा- मैं इनकी उड़ान देखना चाहता हूँ , तुम इन्हे उड़ने का इशारा करो । इशारा मिलते ही दोनों बाज उड़ान भरने लगे पर एक बाज आसमान की ऊंचाइयों को छू रहा था दूसरा कुछ ऊपर जाकर वापस उसी डाल पर आकर बैठ गया जिससे वो उड़ा था। ये देख राजा ने सवाल किया ऐसा क्यों है? 


 जी हुजूर , इस बाज के साथ शुरू से यही समस्या है। वो इस डाल को छोड़ता ही नहीं। राजा  दोनों को ही उड़ना देखना चाहते थे।राजा ने ऐलान कराया कि जो इस बाज को ऊँचा उड़ाने में कामयाब होगा उसे ढेरों इनाम दिया जाएगा। एक से एक विद्वान् आये और बाज को उड़ाने का प्रयास करने लगे पर बाज थोडा सा उड़ता और वापस डाल पर आकर बैठ जाता। फिर एक दिन एक व्यक्ति ने दोनों बाज आसमान में उडा दिया। अगले दिन दरबार में हाजिर हुआ। उसे स्वर्ण मुद्राएं भेंट करने के बाद राजा ने कहा- मैं बहुत प्रसन्न हूँ बस तुम बताओ जो काम बड़े-बड़े विद्वान् नहीं कर पाये वो तुमने कैसे कर दिखाया?


“महाराज ! मैं तो एक साधारण सा किसान हूँ ।मैं ज्ञान की ज्यादा बातें नहीं जानता। मैंने तो बस वो डाल काट दी जिस पर बैठने का बाज आदी हो चुका था और जब वो डाल ही नहीं रही तो वो भी अपने साथी के साथ ऊपर उड़ने लगा।


मैं वर्षों से यही तो कर रहा हूँ कविता में

ऊँचा उड़ने के लिये उस डाल को काट देता हूँ

जिस पर बैठने का अभ्यस्त हो चुका हूँ


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