आज मिलने का सबब पूँछते हैं
खाते थे जो क़समें, साथ रहने की मरने तक
आज वो दो क़दम साथ देने से कतराते हैं
कहते थे कभी कि घर है उनका, नज़रों में हमारी
आज वो नज़रें मिलाने से भी घबराते हैं
भीड़ में थाम कर हाथ, हो जाते थे महफ़ूज़
आज वो अकेले में मिलने पर भी पहचानते नहीं
देख कर आँसुओं को हमारे, देते थे जो ख़ुद रो
आज वो देखकर लहू हमारा, उफ़्फ़ तक नहीं करते
३ अप्रेल २०१६
जिनेवा