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मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च

22 अक्टूबर 2021

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पराए वक्त की थाती में सांस ढोता शरीर नींद ले रहा था, तभी मस्तिष्क पर कुछ दस्तक हुई और हड़बड़ा कर उठ बैठा। आंख खुलते ही अहसास हुआ कि स्वप्न में मृत्यु रुदन चल रहा था, घड़ी पर नजर पड़ी सुबह के 7 बज रहे थे। नित्यकर्म से फारिग हो चाय संग खबरों पर नजर डाली, तो सिर्फ कोरोना का प्रकोप और उससे होने वाली मौतें, दुख, संताप और जाने मनहूसियत की गठरी का बोझ मनोवेदना को और बोझिल करने लगा।
किसी तरह कुछ घंटे बिताकर सोचा बनारस घूम लें और निकल पड़ा यह अनपढ़ अपने शहर की तंग गलियों में। तपती दुपहरी में सोचा रिक्शा ले लें, सड़क किनारे एक रिक्शेवाले से पूछा- ‘घाटे चलबा..!’ जवाब मिला- ‘देखत नाही हउवा लॉकडाउन लगल हव, अइसन हवा हव कि सब घटहीं जात हौ! कौउनो गल्ली पकड़ ला, छाहें-छाहें पहुंच जइबा।’ लॉजिकली बात में दम था, सचमुच सड़कों पर मेडिकल स्टोर को छोड़ सबकुछ बंद था, एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था। दाएं-बाएं मुड़ते हुए उन दुकानों को निहारते अनमने से बढ़ चले गली की ओर, जो कुछ हफ्तों पहले तक भी गुलजार थीं और जगह-जगह चाय की सुड़कियों के साथ अड़ीबाजी (बैठकें/ चौपाल) जमी रहती थी।
दो-चार फर्लांग के बाद मुड़ते ही गली ढालुआं (नीचे की ओर लुढ़कती) दिखी और सामने ही दीवार पर कबीर का यह दोहा लिखा नजर आया-

‘काल हमारे संग है, कस जीवन की आस।
दस दिन नाम संभार ले,जब लगि पिंजर सांस।।’
यानि, ‘मृत्यु सदा हमारे साथ है। इस जीवन की कोई आशा नहीं है। केवल दस दिन प्रभु का नाम सुमिरन कर लो, जब तक इस शरीर में सांस बची है।’ यह दोहा इस वक्त कितना मौजूं लग रहा था, सड़कों-गलियों में मृत्यु का सन्नाटा, कुछेक मिनटों में कानों में ‘राम नाम सत्य है..’ की गूंज के साथ कंधों पर अपने चहेते का शरीर लिए जाते लोग और अपने को खो चुके परिजन की भीगी पलकें! संताप से भरा मन कब जाकर मर्णिकर्णिका की सीढ़ियों पर जा बैठा खबर ही नहीं लगी। जिह्वा से विरक्ति भरे शब्द फूट पड़े- ‘कहां हैं शिव और कहां है उनकी निराली काशी..’, तभी कानों में निष्ठुर सी आवाज गूंजी- ‘एहीं हउवन शिव और एहीं हव काशी, जीवन जीये वालन के मृत्यु जियावत हउवन।’
कुछ पल को लगा स्वयं की अवचेतना है, फिर भी पलटा तो पाया अधेड़पन और बुजुर्गियत के बीच जूझता एक सांवला व्यक्तित्व था। कहीं से भी वह बौद्धिक नजर नहीं आ रहा था, लेकिन इस अनपढ़ के लिए उसके बोल मानो शिववचन ही थे। अचंभन को सामान्य बनाते हुए वह बोले, ‘काशी अइसहीं मोक्ष नाहीं देले, दुनियां-संसार में चकरघिन्नी जइसन नचले के बाद जब अदमी इहां आवेलन, तब बुझाला कि का कमइलन! समझ गइला, तो जी गइला, बाकी त सब रोजे मरत हव।’ अनचाहे प्रश्न फूटा- ‘का करैला भइया?’, तपाक प्रतिउत्तर- ‘एही ठियन घाटे पर रहिला गुरु, अउरी आवत-जात लोगन के तजबीजिला!’ विस्मय दूर करते हुए उन्होंने बताया कि वह मर्णिकर्णिका पर अन्त्य क्रिया कराते हैं, महाब्राह्मण हैं और कुछ लोग उन्हें खरबका कहते हैं, लेकिन अगर कर्मकांड मानें तो उनके बिना आत्मा की मुक्ति संभव नहीं है।
कोरोना महामारी, लोगों की लाचारी और शासन-प्रशासन-सरकार की जवाबदारी से जुड़े मेरे गुत्थम-गुत्थी भरे सवाल पर उन्होंने कुछ यूं कहा- ‘देखा गुरु, आपन का नाव बतइला किशन, तू बस इ समझ लिहा कि दुनिया कुछहु कहे, बनारस जस क तस अइसही रही। सब केहू आपन-आपन काम करत हव, बिशनाथजी भी आपन काम करत हउअन अउर हमहु। अदमी चाहे जेके कोसे, बहन्ना कुछहु हो, जेके जाएके हव ते जइबे करी! आज हम असामी देख वसूलत हई, एक दिन हमहु अइसहीं निकल लेब’ फिर उन्होंने भगवद्‌गीता का यह श्लोक सुनाया, जिसने भीतर तक झिंझोड़ दिया-

‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येथे न त्वं शोचितुमर्हसि।।’
‘अर्थातः जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के बाद पुनर्जन्म भी सुनिश्चित है। अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।’ उन्होंने बताया कि हम इंसान हर बात और घटना के लिए या तो कोई बहाना ढूंढ लेते हैं, या फिर किसी अन्य पर दोषारोपण कर लेते हैं। अगर, धर्म-अध्यात्म की सुनें, तो हमें आत्मचिंतन कर स्वयं में अपने सभी प्रश्नों का जवाब मिल जाएगा। लेकिन, हमारी मदोन्नत विचारधारा हमें खुद से ही पार नहीं निकलने देती, जब तक हम चेत पाते हैं, तब तक हमारा सफर बदल जाता है। उनकी बातों में मूढ़ बना यह अनपढ़ लगातार शून्य में टकटकी लगाए जाने कहां ताकता रहा। जब सबकुछ शांत सा महसूस हुआ, तो तथाकथित चेतना में पलटा और पाया कि वह व्यक्ति जा चुका है। शायद उन्हें कोई असामी (ग्राहक या किसी मृतक के परिजन) दिख गया हो या कोई और बुला लिया हो! अपने चित्त को सांत्वना देते यह अनपढ़ भी बुझे मन से घर की ओर यह सोचते चल पड़ा कि ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च..’।

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महाभिनिष्क्रमण: महज शब्द नहीं है, बल्कि इसमें छिपी अंतर्मन की आसक्ति है, जिससे बहिष्कृत हो कहीं अनंत में घुल जाने की उत्कंठा निहित है। इस पुस्तक (डायरी) का उद्देश्य अपने विचार थोपना नहीं, अपितु एकात्म को परिष्कृत कर ब्रह्मांड में नतमस्तक होना है।

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