यह कैसा भादों?
यह कैसा जादू?
सब बातें न्यारी हैं
इस गर्भ के बालक का चोला
कौन सीयेगा?
य़ह कैसा अटेरन?
ये कैसे मुड्ढे?
मैंने कल जैसे सारी रात
किरणें अटेरीं...
असज के महीने
तृप्ता जागी और वैरागी
अरी मेरी ज़िन्दगी!
तू किसके लिए कातती है मोह की पूनी।।
मोह के तार में अम्बर न लपेट जाता
सूरज न बाँधा जाता
एक सच-सी वस्तु
इसका चोला न काता जाता।।
और तृप्ता ने कोख के आगे
माथा नवाया
मैंने सपनों का मर्म पाया
यह ना अपना ना पराया।।
कोई अज़ल का जोगी
जैसे मौज में आया
यूँ ही पल भर बैठा
सेंके कोख की धूनी।।
अरी मेरी ज़िन्दगी!
तू किसके लिए कातती है
मोह की पूनी।।