अन्धविश्वास हमारे समाज और हमारे मे मन मे कुछ इस तरह व्याप्त हो जाता हैं कि हमें विश्वास और अन्धविश्वास मे अंतर नहीं हो पाता हैं। हमारे जीवन और समाज इर्द गिर्द विविध प्रकार की रीति रिवाज़ और परम्पराएं मौजूद होती हैं और उन रीति रिवाजो और परम्पराओं को निभाने के लिए हमें हमारे समाज और परिवार द्वारा कड़े निर्देश दिए जाते हैं उन परम्पराओं और रिवाजो से जुड़ी कई कथा और कहानियां भी होती हैं जो इन रिवाजो को मानने के लिए इंसान को बताये और सुनाये जाते हैं कुछ को धर्म के नाम से जोड़ दिया जाता हैं कुछ विश्वास और श्रद्धा से बांध दिया जाता हैं। कई ऐसी चीजें भी होती हैं जो जिस समय बनाई गई थी उस समय सही थी समयानुकूल थी लेकिन पश्चात मे उनका कोई महत्व नहीं रहता लेकिन लोग उसे परम्परा के नाम पर निभाते हैं।
उदाहरण स्वरूप - हमारे यहां लड़को के उपनयन संस्कार ( जनेव ) जोड़े मे करने की परम्परा हैं अर्थात अगर आपको अपने एक बेटे का उपनयन संस्कार करना हैं तो आपको उसके साथ अपने कुल के बाहर का एक और लड़का ढूढ़ना होगा तथा अपने बेटे और उस लडके का जनेव साथ साथ किया जाता हैं जो उपहार कपड़े सामान अपने बेटे को देते हैं ठीक वैसे ही उस लडके को भी दिया जाता हैं अर्थात दोनों लडके तथा उसके परिवार और रिस्तेदार मे कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता हैं। यह नियम उस समय बना होगा ज़ब हमारे पूर्वज सम्पन्न हुआ करते होंगे इसलिए उन्होंने ऐसे नियम बनाये ताकि उनके माध्यम से किसी गरीब ब्राम्हण परिवार का भला हो सके जो इतना सक्षम ना हो कि वो धूमधाम से उपनयन संस्कार कर सके। लेकिन वर्तमान मे ये मुश्किल कार्य हो चूका हैं क्योंकि सर्वप्रथम अब कोई अपने बेटे को इस तरह दूसरे के घर उपनयन संस्कार के लिए राजी नहीं होता क्योंकि अब सभी लोग इतना थोड़ा तो सक्षम हैं कि वो अपने बेटे के इस संस्कार को स्वयं कर सके इसमें उनका अपना आत्मसम्मान और ख्वाहिशे भी शामिल होती हैं दूसरी समस्या ये हैं कि अगर हमारे खानदान मे कोई बहुत सम्पन्न नहीं हैं वो अपने बेटे के साथ दूसरे के जिम्मेदारी उठाने मे सक्षम नहीं भी हैं तो भी उसे ये करना ही पड़ता हैं। और सबसे हास्यप्रद बात ये होती हैं कि सभी को पता हैं कि ये एक अन्धविश्वास हो चूका हैं सब चाहते हैं कि ये प्रथा टूट जाये लेकिन कोई खुद आगे आकर इस तोड़ने की साहस नहीं करता हैं।
वो हर एक परम्परा और रिवाज़ जिसे हम पूर्ण चेतना और विश्वास के साथ नहीं करते वो सिर्फ एक अन्धविश्वास बन कर रह जाता है। पैर छूना भारत वर्ष के आदि संस्कृति मे शामिल हैं जिसमे इंसान झुककर सामने वाले के पैर के पंजे और अंगूठे को छूकर प्रणाम करता था क्योंकि इसका एक कारण था जिससे पैर छूना लाभप्रद होता था लेकिन आजकल लोगों के लिए बस एक औपचारिकता भर रह गया हैं तभी तो लोग पैर छूने के नाम पर खडे खडे घुटने छूकर निकल जाते हैं। 😁😁😁
कहना बस यही हैं विश्वास और अन्धविश्वास मे मात्र विश्वास, श्रद्धा और भाव का अंतर होता हैं जिसे हमें समझना चाहिए।