"आपको पता है, नेताओं को ना तो बैकवर्ड से कोई मतलब है, ना फारवर्ड से। उन्हें केवल वोट बैंक से मतलब है। वे जिसे वोटों के लिए भरमा सकते है, उन्हें आरक्षण का झुनझुना पकड़ाकर वोट लेते हैं। जिन्हें वोट बैंक में तब्दील नहीं कर पाते, उनके लिए कुछ नहीं करते। अगर सही मायने में आपको उनका सामाजिक आर्थिक स्तर बढ़ाना है, तो सरकारी नौकरियों को खत्म करने की कवायद क्यों चल रही है? नौकरियां सृजित करो, तभी तो आरक्षण सफल होगा। दोनों को बेवकूफ बनाते है और जनता आपस में लड़ती-मरती रहती है...और ये चैन की बंसी बजाते अपनी राजनैतिक रोटियां सेकतें रहते हैं। लेकिन अगर......"
"सिया! सिया!....निया!....क्या हो रहा है?" मम्मी ने दूसरे कमरे से आवाज लगाई।
"कुछ नहीं!!! सिया नींद में बड़बड़ा रही है।" निया ने उत्तर दिया।
- मेरी कहानी "क्या हुआ तेरा वादा!-भाग 10!" से
सखी, क्या आपको नहीं लगता! कि नेताओं ने वादों को चटपटी पानीपूरी बना रखा है। जनता से झटपट एक वादा कर दो और उसपर कुछ मिर्च-मसाले लगा कर परोस दो। चटपटे स्वाद के चक्कर में जनता झांसे में आ जायेगी और वोट दे देगी।
बाद में जब वो प्रश्न पूछे तो कह दो -
भैया! चटपटा गोलगप्पा किसने गपका?..... चटपटी पानी पूरी किसने खाई?..... स्वाद आया कि नहीं..... आया.... तो यही तो जीवन है। आपने वादों को सुना, उन्हें खाया, एन्जॉय किया, अब मस्त रहो। स्वाद के साथ वादा भी स्वाहा! कहे रो रहे हो!
सखी, इससे अच्छा हमारी कहानी पढ़ो, परमानेंट यहीं हैं। खाने के बाद भी, मतलब पढ़ने के बाद भी।
गीता भदौरिया