हरे कृष्ण. गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म करने के लिए कहा है.. लेकिन अब यह प्रश्न है.. की निष्काम कर्म कैसे करें..??मनुष्य को ना चाहते हुए भी कुछ न कुछ कर्म करने होते हैं और यह कर्म ही बंधन के कारण होते हैं.. कर्म से व्यक्ति बंधन में बनता है .. फिर यह बंधन मुक्ति का साधन कैसे हो सकती है?? अर्जुन के इसी संशय को गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कार्य में कुशलता को योग कहा है योग की परिभाषा देते हुए गीता में कहा गया है कि
" *योगा कर्मसु कौशलम्* " अर्थात कर्मों में कुशलता ही योग है। कर्म योग साधना में मनुष्य बिना कर्म बंधन में बंधे कर्म करता है तथा वह सांसारिक कर्मों को करते हुए भी मुक्ति प्राप्त कर लेता है... कर्म योग की स्थिति में साधक धीरे-धीरे सभी कर्मों को भगवान को अर्पित करने लगता है,और साधक में उस परम पिता परमेश्वर के प्रति भक्ति भाव उत्पन्न हो जाता है.. इस अवस्था में साधक जो भी कर्म करता है वह परमात्मा को अर्पित करते हुए करता है.. अर्थात यह कर्म योग भक्ति योग में परिणत होने लगती है, लेकिन यह भक्ति योग किसी सिद्धि या वरदान प्राप्ति हेतु नहीं होती यह तो निश्चल और निष्काम होती है और यहीं से शुरुआत होती है निष्काम कर्म की। 🙏
🙏 आज के परिपेक्ष में अगर देखा जाए तो भगवान को मनोवांछित फलों की प्राप्ति की मशीन मान लिया गया है, अमुक अनुष्ठान या फिर ऐसे भोग चढ़ाने मात्र से भगवान प्रसन्न हो जाएंगे, ऐसी अवधारणा आज के युग में प्रवृत्त होती जा रही है। वह भगवान हमारा परमपिता है वह हमारे अंदर विराजमान है, क्या वे नहीं जानते कि हमें हमारे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा। एक उदाहरण से समझें जब एक नवजात बच्चा अपनी मां के गर्भ से निकलता है तो उसे कौन बताता है कि उसे मां के स्तनों से अमृतमय दूध पीना है? या फिर मां के स्तनों में स्वत: खुद-ब-खुद दुध उतर जाता है। यह सब उस परमपिता परमेश्वर कहां किया धरा है। अतः हमारे अंदर विराजमान उस प्रभु को सब कुछ पता है कि हमें क्या चाहिए और क्या नहीं चाहिए, इसलिए उनसे मांग करने के बजाय हम उनकी भक्ति मांगे तो यह निष्काम कर्म हमें मुक्ति के मार्ग तक पहुंचा सकता है। और यही कर्म योग का सबसे बड़ा गूढ़ रहस्य। धन्यवाद 🙏सभार🙏
मनोज शर्मा