नूतन रचना पुष्प
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हे ईश्वर दे दे मुझे, ऐसा तू वरदान, दिल की गलियों में, आयें वो ,बनकर के मेहमान। ❤❤❤❤❤❤❤❤❤ प्रभा मिश्रा 'नूतन'
वो आये हैं जब से, दिल के शहर में, मेहमान बनकर, तब से लगने लगा है, मुझे शहर का, हर मोड़ खूबसूरत। ❤❤❤❤❤❤❤❤ प्रभा मिश्रा 'नूतन'
आपकी याद मुझे, इस कदर सताती है, बनाती हूँ किसी और की, बन तस्वीर आपकी जाती है । ❤❤❤❤❤❤❤❤ प्रभा मिश्रा 'नूतन'
कैसे कहूँ, कैसे कटी? आँखों में ही रैन, जब तक , मिल न लूं आपसे , कहाँ आता है चैन? ❤❤❤❤❤❤❤ प्रभा मिश्रा 'नूतन'
जीवन एक युद्ध है, जो,समझदारी से जीत ले, वही,प्रबुद्ध है । ❤❤❤❤❤❤❤ प्रभा मिश्रा 'नूतन'
जीवन में लुका -छिपी,ही तो चलती रही,मैं खडी,गिनतियाँ गिनती रही।फिर जब ,खोजने गयी,दुख सब जो थे छुपे,वो सदा समक्ष दिखे,सुख और खुशियाँ,ऐसी जगह छिपीं,कि खोजते थकी,पर कभी मिली ही नहीं।प्रभा मिश्रा 'नूतन'
ऐ नर ,मत किसी से रूठ,मत किसी से मुँह मोड़,बडी़ नाजुक है,ये जीवन की डोर।क्या पता,पडे़ पछताना,चला जाय कोई अपना,तोड़ जीवन की डोर ।प्रभा मिश्रा 'नूतन'
संसार कूप में,मोह कीच मध्य,फंसा हुआसभी का जीवन,कोई इससे उबरने को,कर रहा प्रभु भजन,तो कोई 'उसे' विस्मृत कर,है इसी कीच में मगन,।🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
नहीं होता किसी को ज्ञात,खुलकर आयेगा ,कौन सा जीवन का नया भाग,लायेगा खुशियाँ,या दुख और आँसू बेइन्तेहां।जो मिलता वो ,गले लगाना है ,जब तक साँसें तब तक,हँसकर या विलाप कर,जीवन का साथ निभाना है ।
जीवन की डाल पर, ह्रदय कोकिल,गाती स्पंदन का गीत, साँसें आतीं, &n
जीवन,एक विपिन सघन ,चतुर्दिक ,जहाँ तिमिर आच्छन्न ।इसको पार ,कर सकोगे तभी ,जब हर क्षणईश स्मरण,और जब होंउम्मीद के दीप,संग।प्रभा मिश्रा 'नूतन'
देख तो लेते ,एक नज़र भर हमें तुम !!!तेरी एक ,नज़र पर ही ,काट लेते ,हम पूरा जीवन !!!प्रभा मिश्रा 'नूतन'
जरा सा ,प्रसन्न ही तो हुयी थी ,तेरे ह्रदय पर ,अधिकार जमाकर!!!देखो ,उन्होने चला दिया,मेरे ,अरमानों पर बुलडोजर !!!प्रभा मिश्रा 'नूतन'
ह्रदय में कोलाहल, नयनों में नमी, अधरों पर ताले हैं , तुम क्या जानो!! टूटे स्वप्नों के शव लिये, हम स्वयं को कैसे सँभाले हैं !!! प्रभा मिश्रा 'नूतन'
दौलत का नशा ,इस कदर छाया था !!!!कर दिया ,वृद्धावस्था में उन्हें अलग,जिन्हें ,भगवान ने मिलाया था !!!!प्रभा मिश्रा 'नूतन'
सबकुछ तो है तेरे पास !!! फिर भी ,चेहरे पर , पसरी हैं उदासियाँ !!! अधरों पर मौन के ताले, सूनी,रिक्त पडी़ं, नयनों की कश्तियाँ !!! तेरे पास , अगर नहीं है कुछ , तो वो है संतोष !!! जिस दिन , तेरे पास
पुस्तक कोई भी हो , वो वफादार होती है ,इंसानों की तरह से , धोखा तो न देती है !!जितना उतरो उसके भीतर, व
तेरे दिल की पुस्तक,के लिखे हुये शब्द ,कभी समझ न आये !!एक शब्द के हजार अर्थ ,पढ़ते जीवन गया व्यर्थ ,मेरे लिये रही दुरूह सदा ,न वो मुझे समझ पाई ,न हम उसे समझ पाये !!!प्रभा मिश्रा 'नूतन'
संभव है , कि ये धरा ऊपर टंग कर लहराये, संभव है , ये ये गगन , नक्षत्रों संग नीचे आ मुस्काये सँभव है , कि दिवाकर , शीतलता बरसाये , संभव है , कि चाँद अनल बन, हमको झुलसाये , संभव है , कि ओस बिंदु
यदि दिल में हो लगन ,और मन में हो पक्का यकीन ,तो इंसान तेरे लिये ,असँभव कुछ भी नहीं ,हर घडी़ कर प्रयास ,न छोड़ कभी आत्मविश्वास !!जो करे हतोत्साहित,उसे नज़र अंदाज कर,बस तू अपना ,सर्वश्रेष्ठ कर ,फि
कैसे निभे रिश्ता हमारा , उन्हें चुभते हैं मेरे शब्द , मुझे चुभती हैं , उनकी खामोशियां !!!! प्रभा मिश्रा 'नूतन'
खोलीं मन की सारी गांठें,तो वो ये कह दूर हुयीं मुझसे ,सब कुछ तो है वही पुराना,अब नया क्या बचा तुझमें !!!!प्रभा मिश्रा 'नूतन'
सूने नयनों की राहों में, उम्मीद जुगनू था पल गया , देखो झूठे स्वप्न दिखाकर, फिर कोई मुझको छल गया । प्रभा मिश्रा 'नूतन'
उनके उर में अपने लिए ,जमीं तलाशते रहे मगर,जिस खण्ड को छुआ ,वह तो बिक चुका था !!प्रभा मिश्रा 'नूतन'
मन का शोर , मन ही जाने, लगता मन को ही आघात, रिश्तों की मर्यादा, वो ना समझे, मन की सुंदरता , वो ना जाने, जो छुरी छुपाकर, मन के भीतर, करता रहा शहद में लिपटी बात । प्रभा मिश्रा 'नूतन'
मेरे सपने समझते कहाँ , मेरे अपने ! समझें, तो जाएं , ना सँवर ! पर, मेरे सपने, बिखरे ऐसे, जैसे रेत का घर !! प्रभा मिश्रा 'नूतन'
धूर्तता,चालाँकी,और मक्कारी,बेइमानी,घूसखोरी,और गद्दारी,जिस देश में हों,ये छह सहेलियाँ,उस देश में विकास !!!,,,,,,,,,,ढूँढ़ते रह जाओगे !!!प्रभा मिश्रा 'नूतन'
तेरे बिन ,कैसे कटे ,उसके दिन !!कैसे हर पल,उसका मन रहा खोया-खोया !!पूछना कभी,उस तकिए से ,जिसकी गोद में,सिर रखकर वो,तुझे याद कर,सारी रैन रोया !!प्रभा मिश्रा 'नूतन'
आह ! सजन फिर स्वप्नों में आए !आँखों से बरसा सावन,मुरझाया हरियाला यौवन,चली अतीत की पवन कटीली,और वेदना के पृष्ठ सभी फड़फडा़ए !!प्रभा मिश्रा 'नूतन'
पिया मिलन की सारी उमंग , सारे अरमान,सारे स्वप्न, उस समय धरे के धरे रह गए , जब ई रिक्शा चालक पिया, कमरे में आए , सेज के पास आकर बोले -- मैडम थोडा़ उधर बढ़ कर बैठिए, यहाँ अभी एक और सवारी बैठेगी !! 😂😂�
धरा से करता है बेपनाह प्यार, अंबर, पर मिल न पाने की कसक, लिये,वो ओसाश्रु धरा पर बिखराता है, धरा भी वेदना में , उसके तड़प कर रह जाती है, फैलाकर आंचल अपना, सारे अश्रुओं के बिंदु , सीने पर मुक्ता सी सजात
ओस की बूँदों की तरह, जो स्वयं को निश्छल दिखलाते हैं, जीवन के सफर पर, अकसर वही धोखा दे जाते हैं। प्रभा मिश्रा 'नूतन'
मन ख्वाब फिर से सजाने लगे हैं, उम्मीदों के दीपक जलाने लगे हैं । आए हैं जब से ,आप जिंदगी में, तब से मेरे जख्म भी अब मुस्कुराने लगे हैं । प्रभा मिश्रा 'नूतन'
हम-तुम , चाहें तो, बदल सकते, हैं देश, और परिवेश, मगर,  
स्वप्न जुगनू तो, बहुत हमने पाले, पर आडे़ आ गयी नियति, न दे पाये उन्हें,हिम्मत कि बनें सूर्य , और पूरा गगन संभालें।
एक तरफ ,फूंक कर मुझे,पटाखों में वो,खुशियाँ मनाते हैं।दूसरी तरफ,अभाव में,मेरे वो,भूखे ही सो जाते हैं।प्रभा मिश्रा 'नूतन'
तब, ये सोचकर , रहते थे परेशान, कि, समय नहीं कटता। अब, ये सोचकर, हैं हम हैरान? कि, समय नहीं बचता। प्रभा मिश्रा 'नूतन'
मेरी रचनाओं से उनको, मोहब्बत हुयी इस कदर, कि हमने,दर्द ए दिल, का हाल जब सुनाया, उन्हें जाकर, कमबख्त ,उसपर , भी उछल पडे़, वो वाह!वाह!कर। प्रभा मिश्रा 'नूतन '
पहले, घिस रही थीं चप्पलें, बेटी हेतु, सुयोग्य वर पाने के लिये। अब, घिस रही हैं चप्पलें, उसे ,उस रिश्ते से, मुक्ति दिलाने के लिये।
घिसी हुयी चप्पले , दर्शाती हैं कि ,वो दिन -रात मेहनत कर, खून पसीना एक कर, हर बुरे हालात से समझौता कर, अपने सपनों की तिलांजलि देकर, मर मिटा जिनका , भविष्य बनाने में , उन्हें एक क्षण न लगा , उनके हर संघ
दर दर भटकाता रहा मुकद्दर, जिसे खोजने में रहे संक्षुब्ध, वो तो अपने अंदर ही मिला। प्रभा मिश्रा 'नूतन'
अपनी पीर छुपाऊं कैसे? इस मन को समझाऊं कैसे? तू ही बता मेरे जीवन, तेरा साथ निभाऊं कैसे? प्रभा मिश्रा 'नूतन'
मैं हिंदी, गौरव मां भारती, के भाल की ,पर मां संस्कृत की , प्यारी सुता,मगर हूं वंचिता, मान और पहचान से, प्रतिष्ठा से,और सम्मान से। अन्य भाषायें, मेरी सखी और संगिनी, जिनके साथ, मैं सरल और सुगम बनी। बीता
भोर की प्रथम किरण जैसी,सरल,सुखद,सहज,सुंदर,शुद्ध,सारगर्भित,अर्थपूर्ण,बोधगम्य ,मनोहर।भारत,भारतीयों की,हिंदी भाषा,उसके स्वर।चलें जब जिहवा चढ़कर,कानों में ज्यों अमृत घोलें,धीरे धीरे चल,आनंदित कर।सजी अलंका