मैं हिंदी,
गौरव मां भारती,
के भाल की ,पर
मां संस्कृत की ,
प्यारी सुता,मगर
हूं वंचिता,
मान और पहचान से,
प्रतिष्ठा से,और सम्मान से।
अन्य भाषायें,
मेरी सखी और संगिनी,
जिनके साथ,
मैं सरल और सुगम बनी।
बीता बचपन,
सूर के श्याम की,
बाल लीलाओं में,
विकसित हुयी,
तुलसी की,रामचरित
काव्य परंपराओं में।
झूमीं,
मीरा के गीतों में,
कान्हा की अनुरागिनी बन,
रोयी ब्रज की,
गोपियों की विरह गाथाओं में।
ज्ञानी कबीर की,
साखियों के ज्ञान से,
किया रूबरू,
रहीम के दोहों में,
जग को वास्तविकता से।
हुयी प्रौढा़,
कवि केशव की,
कठिन काव्य धाराओं में,
धर्म की मैं पताका पर,
मनीषियों की,
मानस संजीवनी मगर,
विलायती वर्तनी की
चरण रज की सेविका जैसे,
लोगों के लिये हूं,
अपरिचित और अंजान ऐसे।
बैर किसी से नहीं,
पर है क्या ये सही?
कि जो हमारे,जनों के लहू से,
इतिहास हमारा रंग गये,
सब बेहिचक,बेझिझक,
वर्तनी में उन्हीं की,
आपादमस्तक रंग गये?
मैं छोडी़ गयी,
कोई प्रेमिका सी जैसै,
मैं उपेक्षिता,
सर्वत्र कार्यशालाओं में,
आती हूं स्मरण केवल,
अपने बस एक दिवस,
सिमट कर रह गयी,
श्रुतियों और ऋचाओं में।
प्रभा मिश्रा 'नूतन '