क्या लिखूं मैं तुझे की मैं तुझे याद रहूॅं ,
बुने अल्फाजों में तुम्हें हमेशा याद रहूॅं ।
बचपन,जवानी,बुढ़ापा सब बीत जीती है,
बारिशों की बूंदे छू कर कहीं खो जाती है ।
घर की चौखट में कभी मैं अब तन्हा बैठा,
लम्हें गुजरते देख कितना सिमट ने लगा ।
समेट कर लाई मेरी कहानियां रूबाई मेरी,
बचपन से खिलौने मिट्टी की गुड्डे गुड़िया मेरी ।
देख अब मैं खुश हो जाऊ ऐसी क्या बात रही,
बैसाखी से पैरों को संभाल रही जज़्बात मेरी ।
आधी नींद कुछ सोच रहा था मैं हमेशा की तरहा,
लबों पे ज़माने की बात रही समझ बस टीका रहा ।
वो खुसनुमा मौसम और हवाओ का बेहिसाब चलना,
ठहर कर वादियों में मुसलसल तेरी नज़रों से ये कहना ।
ये तुम मैं और आप, हम और क्या-क्या कहना बाकी है,
साथ रहने का वादा कर रहे खामोशी सफर में जरूरी नहीं ।
हम मिलेंगे इक सफर में तय की बात में फ़िर एक बार,
उस वक्त तुम होगी हमसे कोई दूरी नही होगी उस पार ।
और गुजरे लम्हें अब कितना याद करके रोना चाहोगी तुम ,
बढ़ जाते हैं अक्सर लोग ठहर कर क्या देखना चाहोगी तुम ।
बताओ ये ज़िन्दगी मुसलसल हमेशा चलती रहेगी अक्सर,
और कितना तन्हा रहना चाहोगी तुम इस बात में होके गुम।
मुझे मालूम है हर किसी को मोहब्बत सोहबत में मंजूर नहीं,
तुम और कब तक इंतजार की घड़ी हाथों में पहन कर बैठोगी....
- डेनिरो सलाम